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सृष्टि के महादानी- महर्षि दधीचि

सामान्यत: धन आदि के दान की महिमा का भी लगभग सभी धर्मशास्त्रों ने गान किया है। ऐसे में यदि सृष्टि के कल्याण के लिये सर्वस्व ही नहीं, अपितु अपने जीवन का ही उत्सर्ग कर दिया जाऐ तो इसे महादान ही कहा जाएगा।महर्षि दधीचि एक ऐसे ही महादानी पुराण पुरूष हैं, जिनका उल्लेख दानियों व प्रथम न्यासी के रूप में सबसे पहले उल्लेख होता है।


भगवान विष्णु के नाभि कमल से ब्रम्ह्माजी प्रकट हुए उनके तपोबल से उत्पन्न 10 पुत्रों में एक महर्षि अथर्वा थे। उनका विवाह ऋषि कर्दम की कन्या शांति (चित्ति) से हुआ। अथर्वा ऋषि एवं माता शांति (चित्ति) के यहाँ लोक कल्याणार्थ योगमाया महालक्ष्मी भगवती नारायिणि के रूप में माघ शुक्ल सप्तमी को प्रकट हुई वे दधि सागर का मंथन कर विकटासुर का वध करने वाली अथर्वानंदिनी का नाम ब्रह्माजी ने ही दधिमती रखा तथा महर्षि अथर्वा को एक पुत्र रतन की प्राप्ति का वरदान दिया।

वे माँ नारायणी भगवती दधिमती को अपने भाई (महर्षि दधीचि) के वंश की रक्षा करने हेतु कुलदेवी होने का आशीर्वाद देकर भगवान ब्रह्माजी अंतर्ध्यान हो गए। वे ब्रह्माजी के वरदान अनुसार महर्षि अथर्वा के यहाँ भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की अष्टमी में शुभ ग्रहों के उदयकाल में पुत्र रत्न महर्षि दधीचि का जन्म हुआ।


लोक कल्याण के लिये आत्म-त्याग करने वालों में महर्षि दधीचि का नाम बड़े ही आदर के साथ लिया जाता है। यास्क के मतानुसार दधीचि की माता ‘शांति’ (चित्ति)और पिता ‘अथर्वा’ थे, इसीलिए इनका नाम ‘दधीचि’ हुआ।

पुराणों के अनुसार कर्दम ऋषि की कन्या ‘शांति’ (चित्ति) के गर्भ से उत्पन्न अथर्वा के दधीचि पुत्र थे जो तपस्या और पवित्रता की प्रतिमूर्ति थे। भगवान शिव के प्रति अटूट भक्ति और वैराग्य में इनकी जन्म से ही निष्ठा थी। दधीचि प्राचीन काल के परम तपस्वी और ख्याति प्राप्त महर्षि थे। उनकी पत्नी का नाम वेदवति (गभस्तिनी) (सुवर्चा)था।

महर्षि दधीचि वेद शास्त्रों आदि के पूर्ण ज्ञाता और स्वभाव के बड़े ही दयालु थे। अहंकार तो उन्हें छू तक नहीं पाया था। वे सदा दूसरों का हित करना अपना परम धर्म समझते थे। उनके व्यवहार से उस वन के पशु-पक्षी तक संतुष्ट थे, जहाँ वे रहते थे। सरस्वती के किनारे जो वर्तमान में गोमति नदी के बाएं तट पर नैमिषारण्य (वर्तमान में सीतापुर, जिला उत्तर प्रदेश में स्थित है) में ही उनका आश्रम था।

जो भी अतिथि महर्षि दधीचि के आश्रम पर आता, स्वयं महर्षि तथा उनकी पत्नी वेदवति (गभस्तिनी) (सुवर्चा) अतिथि की पूर्ण श्रद्धा भाव से सेवा करते थे।


विश्व के प्रथम ट्रष्टी

पुराणों से सन्दर्भ मिलता है कि देवसत्ता ने देवासुर संग्राम के बाद दिव्यास्त्रों के रक्षार्थ महर्षी दधीचि को दिव्यास्त्रों का न्यासी बनने का देवताओं ने आग्रह किया जिसे महर्षि ने स्वीकार किया किन्तु दानवगण महर्षि के आश्रम में दिव्यास्त्रों के शस्त्रागार को लूट सकते थे ऐसी आशंका के कारण महर्षि की ध्यान साधना में व्यवधान आ रहा था के कारण अपने न्यासी दायित्व को ध्यान में रखते हुए महर्षि ने रसायन मंत्र के जाप से दिव्यास्त्रों को अणु में परिवर्तित कर लिया और अपने मेरुदंड की अस्थियों में धारण कर लिया। महर्षि दधीचि को अणु शक्ति के प्रथम आविष्कारक के रूप में भी जाना जाता है।


ब्रह्म ज्ञान था उनकी शक्ति

कहा जाता है कि एक बार इन्द्रलोक पर ‘वृत्रासुर’ नामक राक्षस ने अधिकार कर लिया तथा इन्द्र सहित देवताओं को देवलोक से निकाल दिया। सभी देवता अपनी व्यथा लेकर ब्रह्मा, विष्णु व महेश के पास गए, लेकिन कोई भी उनकी समस्या का निदान न कर सका। बाद में ब्रह्मा जी ने देवताओं को एक उपाय बताया कि पृथ्वी लोक में ‘दधीचि’ नाम के एक महर्षि रहते हैं।

यदि वे अपनी अस्थियों का दान कर दें और उन अस्थियों से एक वज्र बनाया जाये तो उस वज्र से वृत्रासुर मारा जा सकता है, क्योंकि वृत्रासुर को किसी भी अस्त्र-शस्त्र से नहीं मारा जा सकता ऐसा वरदान उसे प्राप्त है महर्षि दधीचि की अस्थियों में ही वह ब्रह्म तेज़ था, जिससे वृत्रासुर राक्षस मारा जा सकता था। इसके अतिरिक्त और कोई दूसरा उपाय नहीं है।

देवराज इन्द्र महर्षि दधीचि के पास जाना नहीं चाहते थे, क्योंकि इन्द्र ने एक बार दधीचि का अपमान किया था, जिसके कारण वे दधीचि के पास जाने से कतरा रहे थे। देवलोक पर वृत्रासुर राक्षस के अत्याचार दिन-प्रतिदिन बढ़ते ही जा रहे थे। वह देवताओं को भांति-भांति से परेशान कर रहा था।


महर्षि ने दान दी अस्थियाँ

अन्ततः देवराज इन्द्र को इन्द्रलोक की रक्षा व देवताओं की भलाई के लिए और अपने सिंहासन को बचाने के लिए देवताओं सहित महर्षि दधीचि की शरण में जाना ही पड़ा। दयालु, जनकल्याण हितैषी महर्षि दधीचि ने इन्द्र को पूरा सम्मान दिया तथा आश्रम आने का कारण पूछा।

महर्षि दधीचि

इन्द्र ने महर्षि को अपनी व्यथा सुनाई तो दधीचि ने कहा कि-‘मैं देवलोक की रक्षा के लिए क्या कर सकता हूँ?’ देवताओं ने उन्हें ब्रह्मा, विष्णु व महेश की कहीं हुई बातें बताईं तथा उनकी अस्थियों का दान माँगा। महर्षी दधीचि ने बिना किसी हिचकिचाहट के अपनी अस्थियों का दान देना स्वीकार कर लिया। उन्होंने फाल्गुन मास की पूर्णिमा को समाधि लगाई और अपनी देह त्याग दी। उस समय उनकी पत्नी वेदवति (गभस्तिनी) (सुवर्चा) आश्रम में नहीं थी। अब देवताओं के समक्ष ये समस्या आई कि महर्षि दधीचि के शरीर की चर्म वह ऊपरी तत्व को कौन उतारे ताकि महर्षि की हड्डियां वज्र हेतु प्राप्त हो सके।

इस कार्य के ध्यान में आते ही सभी देवता सहम गए। सब देवताओं ने महर्षि की देह पर सुगन्धित रसायन का लेप लगाकर स्वर्ग लोक से कामधेनु (सुरभि) नामक धेनु को बुलाकर महर्षी की देह से चर्म, रक्त, मज्जा वह अन्य अवशिष्टों को देह से पृथक करने को कहा। कामधेनु (सुरभि) नामक धेनु ने अपनी जीभ से चाट-चाटकर महर्षि के शरीर के सभी तत्वों को उतार दिया- अब केवल अस्थियों का पिंजर रह गया था।

इन्द्र ऋषि दधीचि की अस्थियों को लेकर विश्वकर्मा के पास गये। विश्वकर्मा ने उन अस्थियों से वज्र का निर्माण किया और इन्द्र को दे दिया। अब एक बार फिर से देवताओं और दैत्यों में भयंकर युद्ध हुआ। इस बार इंद्र के पास महर्षि दधीचि की ब्रह्म तेजयुक्त अस्थियों से बना वज्र था।

अत: वृत्रासुर व उसकी असुर सेना उनके सामने टिक न सकी और वृत्रासुर अपनी कुलवंश सहित मारा गया।


दाधीच कहलाए उनके वंशज

महर्षि दधीचि ने तो अपनी देह देवताओं की भलाई के लिए त्याग दी, लेकिन जब उनकी पत्नी वेदवति (गभस्तिनी) (सुवर्चा) वापस आश्रम मे आई तो अपने पति की देह को देखकर विलाप करने लगी तथा सती होने की जिद करने लगी।

तब देवताओं ने उन्हें अपने वंश के लिए सती न होने की सलाह दी। लेकिन वेदवति (गभस्तिनी) (सुवर्चा) नहीं मानी। तभी भगवान शंकर की प्रेरणा से आकाशवाणी हुई कि तुम्हारे गर्भ में महर्षि दधीचि का ब्रह्मतेज जो (भगवान शंकर का ही अवतार रूप है) महान तेजस्वी बालक की रक्षा करना तुम्हारा दायित्व है, गर्भवती होने के कारण देहत्याग करना शास्त्र विरुद्ध है। इसलिए तुम सति नहीं हो सकती।

पहले तुम गर्भस्त बालक का पोषण करो- तो वेदवति (गभस्तिनी) (सुवर्चा) समय से पूर्व ही यत्न द्वारा जोहि पीपल के नीचे बालक को जन्म दिया, दधिचात पिप्लाद- माता गभस्तिनी ने अपने तेजस्वी अदभुत बालक का दर्शन कर बालक को पीपल को सौंपकर अपने पति की देह के बचे भागों को एकत्रित कर उसके साथ सति हो गई।

माँ दधिमती को यहाँ पुत्र जन्म का समाचार मिला तब वह पीपल के पास पल रहे अपने भाई के पुत्र का लालन पालन करने लगी तथा इंद्रलोक से सुरभि नमक गाय ने अपना दूध पिलाकर बालक का पोषण किया के कारण दधीचि ब्राह्मण जाति के लोग दधिमती माँ को अपनी कुलदेवी मानते हैं।

सभी देवतागण बालक के दर्शन हेतु पीपल के पास पहुंचे वह ब्रम्ह्माजी भी वहीं प्रकट हुए। वे बालक को गोद में उठाकर पीपल द्वारा पालन-पोषण करने और पीपल के फल खाकर बड़े होने के कारण उसका नामकरण पिप्लाद किया।

तस्मात् तस्याम महादेवो नानालीलाविशारदः। प्रादुबर्भूय तेजस्वी पिप्लादेति नामत:।।

पुराणों में मुनि पिप्लाद का उल्लेख प्रमुखतया शिवपुराण 24/43, 24/61, शिवपुराण सतरूद्र 2415 और ब्रम्हपुराण 110 अ-58 श्लोकों में मिलता है जिसमें मुनि पिप्लाद व शनिदेव से सम्बंधित विवाद का भी उल्लेख है कि जिसमें शनिदेव ने 16 वर्ष तक के बच्चों को शनिदोष से मुक्त रखा गया आदि वृत्तांत मिलते हैं।

पिप्लाद मुनि के 12 ऋषि पुत्र हुए जिसके दाधीच ब्राह्मण समाज अपने मूल गौत्र के रूप में जाने जाते हैं और उन 12 ऋषि पुत्रों के 144 ऋषि पुत्र हुए जिसको ब्राह्मण जाति में शाखाओं के रूप में जाने जाते हैं।

भारतीय सुरक्षाबलों में सर्वोच्च सम्मान परमवीर चक्र में महर्षि दधीचि के वज्र का अंकन है, और इसके इतिहास में इसका उल्लेख है।


Via
Sri Maheshwari Times

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