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औषधियों का अकूत भंडार – वृक्ष

वृक्ष भारतीय संस्कृति में वृक्ष को इतना अधिक महत्त्व दिया गया है कि उनकी पूजा करने तक का विधान बना दिया गया है। इसके पीछे इनकी उपयोगिता ही है, जो बनाती है, इन्हे सृष्टि के लिए ख़ास।

संसार में पाए जाने वाले हर एक पेड़-पौधे में कोई न कोई औषधीय गुण भी जरूर होता है। आपको जानकार आश्चर्य होगा कि माध्यम आकार के पेड़ और बड़े बड़े वृक्षों में भी गजब के औषधीय गुणों की भरमार होती है।

आइये जानें कुछ ऐसे वृक्षों को जिनमे छुपा है, औषधि का खज़ाना।


बेल

मंदिरों, आंगन, रास्तों के आस-पास प्रचुरता से पाये जाने वाले इस वृक्ष की पत्तियां शिवजी की आराधना में उपयोग में लाई जाती हैं। बेल की पत्तियों में टेनिन, लोह, कैल्शियम, पोटेशियम और मैग्नीशियम जैसे रसायन पाए जाते है। पत्तियों का रस यदि घाव पर लगाया जाए तो घाव जल्द सूखने लगता है।

बेल

गुजरात के डांग जिले के आदिवासी बेल और सीताफल पत्रों की समान मात्रा मधुमेह के रोगियों को देते हैं। गर्मी में पसीने और तन की दुर्गंध को दूर भगाने के लिए यदि बेल की पत्तियों का रस नहाने के बाद शरीर पर लगा दिया जाए तो समस्या से छुटकारा मिल सकता है।


जामुन

जंगलों, गांव व खेतों के किनारे और उद्यानों में जामुन के पेड़ देखे जा सकते हैं। जामुन में लौह और फास्फोरस जैसे तत्व प्रचुरता से पाए जाते हैं। इसमें कोलीन तथा फोलिक एसिड भी भरपूर होते हैं। पातालकोट के आदिवासी मानते हैं कि जामुन के बीजों के चूर्ण की दो-दो ग्राम मात्रा देने से बच्चे बिस्तर पर पेशाब करना बंद कर देते हैं।

जामुन

जामुन के ताजे पत्तों की लगभग ५० ग्राम मात्रा लेकर पानी (३०० मिली) के साथ मिक्सर में रस पीस लें और इस पानी को छानकर कुल्ला करें, इससे मुंह के छाले पूरी तरह से खत्म हो जाते हैं।


नीम

प्राचीन आर्य ऋषियों से लेकर आयुर्वेद और आधुनिक विज्ञान भी नीम के औषधीय गुणों को मानता चला आया है। नीम व्यापक स्तर पर संपूर्ण भारत में दिखाई देता है। इसमें मार्गोसीन, निम्बिडिन, निम्बोस्टेरोल, स्टियरिक एसिड, ओलिव एसिड, पामिटिक एसिड, एल्केलाइड, ग्लूकोसाइड और वसा अम्ल आदि पाए जाते हैं।

नीम

निंबौलियों को पीसकर रस तैयार कर लिया जाए और इसे बालों पर लगाया जाए तो जूएं मर जाते हैं। डांग-गुजरात के आदिवासियों के अनुसार नीम के गुलाबी कोमल पत्तों को चबाकर रस चूसने से मधुमेह रोग में आराम मिलता है।


नीलगिरी

यह पेड़ काफी लंबा और पतला होता है। इसकी पत्तियों से प्राप्त होने वाले तेल का उपयोग औषधि और अन्य रूप में किया जाता है। नीलगिरी की पत्तियां लंबी और नुकीली होती हैं जिनकी सतह पर गांठ पाई जाती है और इन्हीं गाठों में तेल संचित रहता है।

नीलगिरी

शरीर की मालिश के लिए नीलगिरी का तेल उपयोग में लाया जाए तो गंभीर सूजन तथा बदन में होने वाले दर्द से छुटकारा मिलता है। वैसे आदिवासी मानते हैं कि नीलगिरी का तेल जितना पुराना होता जाता है, इसका असर और भी बढ़ता जाता है। इसका तेल जुकाम, पुरानी खांसी से पीड़ित रोगी को छिड़ककर सुंघाने से लाभ मिलता है।


पलाश

मध्यप्रदेश के लगभग सभी इलाकों में पलाश या टेसू प्रचुरता से पाया जाता है। इसकी छाल, पुष्प, बीज और गोंद औषधीय महत्त्व के होते हैं। पलाश के गोंद में थायमिन और रिबोफ्लेविन जैसे रसायन पाए जाते हैं।

पलाश

पतले दस्त होने के हालात में यदि पलाश का गोंद खिलाया जाए तो अतिशीघ्र आराम मिलता है। पलाश के बीजों को नींबू रस में पीसकर दाद, खाज और खुजली से ग्रसित अंगों पर लगाया जाए तो फायदा होता है।


पीपल

इस वृक्ष के औषधीय गुणों का बखान आयुर्वेद में भी देखा जा सकता है। मुंह में छाले हो जाने की दशा में यदि पीपल की छाल और पत्तियों के चूर्ण से कुल्ला किया जाए तो आराम मिलता है। पीपल की एक विशेषता यह है कि यह चर्म-विकारों को जैसे-कुष्ठ, फोड़े-फुंसी, दाद-खाज और खुजली को नष्ट करता है।

पीपल

डांगी आदिवासी पीपल की छाल घिसकर चर्म रोगों पर लगाने की राय देते हैं। कुष्ठ रोग में पीपल के पत्तों को कुचलकर रोगग्रस्त स्थान पर लगाया जाता है तथा पत्तों का रस तैयार कर पिलाया जाता है।


अमलतास

झूमर की तरह लटकते पीले फूल वाले इस पेड़ को सुंदरता के लिए अक्सर बाग-बगीचों में लगाया जाता है हालांकि जंगलों में भी इसे अक्सर उगता हुआ देखा जा सकता है। इसके पत्तों और फूलों में ग्लाइकोसाइड, तने व जड़ की छाल में टेनिन के अलावा ऐन्थ्राक्विनीन, फ्लोवेफिन तथा फल के गूदे में शर्करा, पेक्टीन, ग्लूटीन जैसे रसायन पाए जाते है।

अमलतास

पेट दर्द में इसके तने की छाल को कच्चा चबाया जाए तो दर्द में काफी राहत मिलती है। पातालकोट के आदिवासी बुखार और कमजोरी से राहत दिलाने के लिए कुटकी के दाने, हर्रा, आंवला और अमलतास के फलों की समान मात्रा लेकर कुचलते हैं और इसे पानी में उबालते है, इसमें लगभग पांच मिली शहद भी डाल दिया जाता है और ठंडा होने पर रोगी को दिया जाता है।


रीठा

एक मध्यम आकार का पेड़ होता है जो अक्सर जंगलों के आसपास देखा जा सकता है। इसके फलों में सैपोनिन, शर्करा और पेक्टिन नामक रसायन पाए जाते हैं। आदिवासियों की मानी जाए तो रीठा के फलों का चूर्ण नाक से सूंघने से आधे सिर का दर्द या माइग्रेन खत्म हो जाता है।

रीठा

पातालकोट के आदिवासी कम से कम ४ फल लेकर इसमें २ लौंग की कलियां डालकर कूट लेते हैं और चिमटी भर चूर्ण लेकर एक चम्मच पानी में मिला लेते है और धीरे-धीरे इस पानी की बूंदों को नाक में टपकाते हैं। इनका मानना है कि यह माइग्रेन के इलाज में कारगर है।


अर्जुन

यह पेड़ आमतौर पर जंगलों में पाया जाता है। यह धारियों-युक्त फलों की वजह से आसानी से पहचान आता है, इसके फल कच्चेपन में हरे और पकने पर भूरे लाल रंग के होते हैं। औषधीय महत्व से इसकी छाल और फल का ज्यादा उपयोग होता है। अर्जुन की छाल में अनेक प्रकार के रासायनिक तत्व पाये जाते हैं जिनमें कैल्शियम कार्बोनेट, सोडियम व मैग्नीशियम आदि प्रमुख हैं।

अर्जुन

आदिवासियों के अनुसार अर्जुन की छाल का चूर्ण तीन से छह ग्राम गुड़, शहद या दूध के साथ दिन में दो या तीन बार लेने से दिल के मरीजों को काफी फायदा होता है। वैसे अर्जुन की छाल के चूर्ण को चाय के साथ उबालकर ले सकते हैं। चाय बनाते समय एक चम्मच इस चूर्ण को डाल दें, इससे उच्च-रक्तचाप भी सामान्य हो जाता है।


अशोक

ऐसा कहा जाता है कि जिस पेड़ के नीचे बैठने से शोक नहीं होता, उसे अशोक कहते हैं। अशोक का पेड़ सदैव हरा-भरा रहता है, जिस पर सुंदर, पीले, नारंगी रंग के फूल लगते हैं। अशोक की छाल को कूट-पीसकर कपड़े से छानकर रख लें।

अशोक

इसे तीन ग्राम की मात्रा में शहद के साथ दिन में तीन बार सेवन करने से सभी प्रकार के प्रदर में आराम मिलता है। पातालकोट के आदिवासियों के अनुसार यदि महिलाएं अशोक की छाल १० ग्राम को २५० ग्राम दूध में पकाकर सेवन करें तो माहवारी संबंधी परेशानियां दूर हो जाती हैं।


कचनार

हल्के गुलाबी लाल और सफेद रंग लिए फूलों वाले इस पेड़ को अक्सर घरों, उद्यानों व सड़कों के किनारे सुंदरता के लिए लगाया जाता है। मप्र के ग्रामीण अंचलों में दशहरे के दौरान इसकी पत्तियां आदान-प्रदान कर एक-दूसरे को बधाइयां दी जाती हैं। इसे सोना-चांदी की पत्तियां भी कहा जाता है।

कचनार

पातालकोट के आदिवासी हर्बल जानकार जोड़ों के दर्द और सूजन में आराम के लिए इसकी जड़ों को पानी में कुचलते है और उबालते हैं। इसको दर्द और सूजन वाले भागों पर बाहर से लेपित करने से काफी आराम मिलता है। मधुमेह की शिकायत होने पर रोगी को रोज सुबह खाली पेट इसकी कच्ची कलियों का सेवन करना चाहिए।


गुंदा

यह मध्यभारत के वनों में देखा जा सकता है, यह एक विशाल वृक्ष होता है जिसके पत्ते चिकने होते हैं। आदिवासी अक्सर इसके पत्तों को पान की तरह चबाते है और इसकी लकड़ी इमारती उपयोग की होती है। इसे रेठु के नाम से भी जाना जाता है।

गुंदा

छाल की लगभग २०० ग्राम मात्रा लेकर इतने ही मात्रा पानी के साथ उबाला जाए और जब यह एक चौथाई शेष रहे तो इससे कुल्ला करने से मसूड़ों की सूजन, दांतों का दर्द और मुंह के छालों में आराम मिल जाता है। छाल का काढ़ा और कपूर का मिश्रण तैयार कर सूजन वाले हिस्सों में मालिश की जाए तो फायदा होता है।


फालसा

यह एक मध्यम आकार का वृक्ष है जिस पर छोटी बेर के आकार के फल लगते हैं। यह मध्यभारत के वनों में प्रचुरता से पाया जाता है। खून की कमी होने पर फालसा के पके फल खाना चाहिए, इससे खून बढ़ता है।

फालसा

अगर शरीर में त्वचा में जलन हो तो फालसे के फल या शर्बत को सुबह-शाम लेने से अतिशीघ्र आराम मिलता है। यदि चेहरे पर निकल आयी फुंसियों में से मवाद निकलता हो तो उस पर पत्तों को पीसकर लगाने से मवाद सूख जाता है और फुंसिया ठीक हो जाती हैं।


बरगद

इसे ‘अक्षय वट’ वृक्ष भी कहा जाता है, क्योंकि यह वृक्ष कभी नष्ट नहीं होता है। बरगद का वृक्ष घना एवं फैला हुआ होता है। पेशाब में जलन होने पर दस ग्राम बरगद की हवाई जड़ों का बारीक चूर्ण, सफेद जीरा और इलायची (दो-दो ग्राम) का बारीक चूर्ण एक साथ गाय के ताजे दूध के साथ लिया जाए तो अतिशीघ्र लाभ होता है।

बरगद

पातालकोट के आदिवासियों के अनुसार बरगद की जटाओं के बारीक रेशों को पीसकर दाद-खाज खुजली पर लेप लगाया जाए तो फायदा जरूर होता है।


बहेड़ा

बहेड़ा मध्य भारत के जंगलों में प्रचूरता से उगने वाला एक वृक्ष है, जो बहुत ऊंचा, फैला हुआ और लंबे आकार का होता हैं। इसके पेड़ १८ से ३० मीटर तक ऊंचे होते हैं। पुरानी खांसी में १०० ग्राम बहेड़ा के छिलके लें, उन्हें धीमी आंच में तवे पर भून लीजिए और इसके बाद पीस कर चूर्ण बना लीजिए।

बहेड़ा

इसका एक चम्मच शहद के साथ दिन में तीन से चार बार सेवन बहुत लाभकारी है। बहेड़ा के बीजों को चूसने से पेट की समस्याओं में आराम मिलता है और दांतों की मजबूती के लिए भी अच्छा उपाय माना जाता है।


शहतूत

वृक्ष मध्य भारत में ये प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। वनों, सड़कों के किनारे और बाग-बगीचों में इसे देखा जा सकता है। शहतूत की छाल और नीम की छाल को बराबर मात्रा में कूटकर इसके लेप को लगाने से मुहांसे ठीक हो जाते हैं। शहतूत में विटामिन-ए, कैल्शियम, फास्फोरस और पोटेशियम अधिक मात्रा में मिलता है।

शहतूत

इस वृक्ष के सेवन से बच्चों को पर्याप्त पोषण तो मिलता ही है, साथ ही यह पेट के कीड़ों को भी समाप्त करता है। शहतूत खाने से खून से संबंधित दोष समाप्त होते हैं।

कैलाशचंद्र लड्ढा, जोधपुर


Via
Sri Maheshwari Times

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