कैसे उत्पन्न होती हैं सामाजिक कुरीतियां
सामाजिक कुरीतियां एकदम उत्पन्न नहीं हुई बल्कि ये परंपराओं के भटकाव की प्रणाली में धीरे-धीरे निर्मित होती गई हैं। यदि इनके उत्पन्न होने में हमारी सामाजिक व्यवस्था की कहीं न कहीं कभी रही तो इनका उन्मूलन करना भी हमारा नैतिक सामाजिक दायित्व होना चाहिए।
– बालकृष्ण जाजू, ‘बालक’, जयपुर
सामाजिक व्यवस्थाओं परंपराओं का प्रादुर्भाव कब और कैसे हुआ पता नहीं? लेकिन यह निर्विवाद सत्य है कि समाज में कुरीतियों का प्रादुर्भाव वैभव प्रदर्शन से ही संभावित हुआ है। देखते-देखते ही अतिथियों के लिए सम्मानपूर्वक भोजन व्यवस्था कब असीमित व्यंजनों में बदल गयी पता ही नहीं चला। अंततः आज विवाह उत्सवों में अन्न का दुरूपयोग रोकने के प्रयास, व्यंजन सीमा का निर्णय जैसे प्रयास, निर्धारण, वैभव प्रदर्शन से उपजी सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध समसामयिक कदम हैं।
ऐसे बनती हैं कुरुतियां:
कैसे और कब कुरुतियां सुरसा बन जाती हैं? जरा गौर कीजिये ‘‘कभी बेटी को दिया जाने वाला ‘‘स्वैछिक उपहार’’ ‘‘दहेज’’ बन गया (सिर्फ वधू पक्ष पर लागू)। समधी को दिया जाने वाला मान- ‘मिलनी’ बन गया (सिर्फ वधू पक्ष पर लागू)।
समधन को दिया जाने वाला मान ‘पगालाग्नि’ बन गया (सिर्फ वधू पक्ष पर लागू)। गर्भस्थ शिशु का स्वास्थ्य परीक्षण-कन्या ‘भ्रूणहत्या’ बन गया (सिर्फ कन्याभ्रूण पर लागू)।
मृत्यु पर पद और कपड़े:
मृतक की मृत्यु के पश्चात १२ माह तक परिजनों द्वारा श्राद्ध की नई थाली निकालने की धार्मिक परंपरा है। कदाचित किसी कमजोर आय परिवार की परिस्थितियों के प्रति सहायक भूमिका के लिए किसी विद्वान बुजुर्ग ने समयानुकूल वैकल्पिक रास्ता निकाला होगा कि ननिहाल, ससुराल, बड़ी बहिन, समधी पक्ष की तरफ से पद, कपड़ा व्यवस्था कर दी जाए ताकि अर्थाभाव से पीड़ित परिवार कमजोर हीन भावना का शिकार न हो। संभवत: उस समय काल की वैकल्पिक व्यवस्था आज कुरुति बनकर औचित्यहीन मजबूरी बन गई है ।
कुरुतियों की समीक्षा जरूरी:
समय के साथ-साथ सामाजिक परिदृश्य, समयानुकूल जरूरतें एवं वैचारिक सोच में परिवर्तन होते आए हैं। बालिका बचाओ के समय काल में भी बहू के परिजनों पर सम्मान की जवाबदेही के नाम पर मिलनी, पहरावणी, पगालाग्नि के लागू लिफाफे (सामाजिक जजिया कर जैसी कुरीति बन चुकी व्यवस्था) को समाप्त करवाने के लिए विकृत कुरुतियों की समीक्षा समय की जरूरत है। प्रबुद्ध माहेश्वरी समाज में मृत्युभोज जैसी कुरुति तो समाप्त सी हो गई।
इसी कड़ी में मान्यताओं और परंपराओं को सुरक्षित रखते हुए ननिहाल-ससुराल को छोड़कर अन्य समधी पक्ष पर सम्मान के नाम पर शॉल, दुशाले, पद, कपड़े की गैरजरूरी फिजूलखर्ची पर रोक लगाने के लिए समाज में एक बदलाव की लहर चले, मातृशक्ति पहल करे तो सब संभव है। चिंतन समय की जरूरत है।
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