बगैर लोहे का शस्त्र
भगवान श्री कृष्ण का कुनबा भी बहुत बड़ा था। कुकुर ,भोज, अंधक, वृष्णि, मधु आदि अनेक यादव संघ थे जिनके यादव गणतंत्र राज्य के मुखिया स्वयं कृष्ण थे। दिक्कत यह थी कि बलराम असीम बलशाली थे। वे बल में मस्त रहते थे। छोटे भाई गद कोमल था, अतः मेहनत से भागता था। बेटा प्रद्युम्न रूप के अभिमान में था।
चचेरे भाइयों आहुक और अक्रूर में तथा कृतवर्मा और सात्यकि आपस में लड़ते रहते थे। महाभारत के शांतिपर्व की कथा है कि कुटुंब के लोगों और जाति बंधुओं के आपसी हितों और अहंकार की लड़ाई से तंग आकर एक दिन श्रीकृष्ण ने देवर्षि नारद से इसका उपाय पूछा। ऐसी युक्ति जिससे सब अपने मतभेदों के बावजूद मिलकर रह सकें और संघ का मूलोच्छेद न हो!
तब नारदजी ने बड़ी सुन्दर बात कही। बोले “हे कृष्ण ! जब विवाद स्वजनों के बीच हो तब दाम, दण्ड और भेद जैसी नीतियाँ उचित नहीं है। तब एक कोमल शस्त्र का उपयोग करना चाहिए, जो लोहे का बना हुआ न होकर भी हृदय को छेद डालने में समर्थ हो, जो निरंकुश स्वजनों का परिमार्जन और अनुमार्जन करके उन्हें मूक बना दें ताकि फिर कलह न हो। ”
कृष्ण ने पूछा, “मुने! बगैर लौहे के उस शस्त्र को कैसे जानूँ, जिससे कुटुंब की कलह समाप्त हो? तब नारदजी ने “मुखिया” के अनुरूप जो कहा वो अद्भुत है। देवर्षि बोले, “अपनी शक्ति के अनुसार दान करना, सहनशीलता रखना, सरलता, कोमलता तथा यथायोग्य सभी का सम्मान करना, यही बिना लौहे का शस्त्र है।”
मुनि ने आगे कहा, “हे माधव ! जब सजातीय बंधु आपके प्रति कड़वी तथा ओछी बाते करना चाहें, उस समय आप मधुर वचन बोलकर उनके हृदय, वाणी तथा मन को शांत कर दें!” सार यह है कि जब समाज या कुटुंब में अभिमान के वशीभूत विवाद होने लगे तो सबसे बड़ी जिम्मेदारी मुखिया की बनती है।
समझदार मुखिया सभी को साथ लेकर बगैर लौहे के शस्त्र से विकारों का परिमार्जन और अनुमार्जन करता है। ऐसा करके वह जातिभंग और संघ नाश से बच जाता है।
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