अर्थ के समक्ष परिवार व्यर्थ सहमत अथवा असहमत?
आज का दौर अर्थप्रधान दौर है। माना जा रहा है कि जेब में पैसा हो, तो सब कुछ है। ऐसे में आम तौर पर हर कोई पैसे को ही महत्व दे रहा है। पैसे की इस दौड़ में स्वास्थ्य तो ठीक, परिवार भी बहुत पीछे छूट गया है। परिवार के महत्व को भी नजर अंदाज करते हुए हम पैसे के ही पीछे भाग रहे हैं। बस इस सोच के साथ कि परिवार भी तभी रहेगा, जब जेब में पैसा रहेगा।
ऐसे दौर में यह विचारणीय हो गया है कि क्या अर्थ के समक्ष परिवार व्यर्थ है। आइये जानें इस स्तम्भ की प्रभारी सुमिता मूंदड़ा से उनके तथा समाज के प्रबुद्धजनों के विचार।
पैसों से मोह, परिवार से बिछोह
सुमिता मूंधड़ा, मालेगांव
आज की युवा पीढ़ी ने जीवन को प्रतियोगिता समझ लिया है और इस जीवन प्रतियोगिता के परिणाम का आंकलन पैसों के स्तर पर करने लगी है। यही सोच उन्हें अपनों एवं अपने परिवार से दूर कर रही है। इसमें कोई दो राय नहीं कि युवा पीढ़ी अपना बैंक बैलेंस बढ़ाने के लिए जी-तोड़ मेहनत करती है ; पर इस भाग-दौड़ में उनसे रिश्तों का बैलेंस बिगड़ जाता है।
आगे बढ़ने की होड़ में घर-परिवार, रिश्ते-नातों को नजरंदाज करना अधिकांश युवाओं की आदत बन जाती है। धीरे-धीरे उनको अपने कार्यक्षेत्र और स्तर के लोग ही करीबी लगते हैं। जीवन में परिवार का महत्व कम हो जाता है। गाहे-बगाहे जरूरत के समय भी उन्हें परिवार की जगह कार्यक्षेत्र के लोग याद आते हैं।
युवा-पीढ़ी यह भूल जाती है कि उसके कार्यक्षेत्र के लोग स्वार्थवश एक-दूसरे से जुड़े होते हैं जबकि परिवार निस्वार्थ भाव से आपके साथ खड़ा रहता है। परिवार के बिना तो दुनिया का अमीर से अमीर इंसान भी गरीब है। आपके पास पैसा हो या ना हो अगर परिवार आपके साथ है तो आपसे अधिक खुशकिस्मत कोई नहीं है।
जीवन के उतार-चढ़ाव में परिवार हर हाल में साथ निभाता है। बड़े-बुजुर्गों के अनुभवों के साथ हमारा वर्तमान संवरता है और आने वाली नई पीढ़ी में परिवार के संस्कार पनपते हैं जो पैसों से नहीं मिलते। परिवार का साथ हो तो खुशियों को बढ़ाया और गमों को घटाया जा सकता है।
एक सिक्के के दो पहलू
राजश्री राठी, अकोला
अर्थ के अभाव में परिवार और परिवार के अभाव में अर्थ दोनों का ही महत्त्व गौण हो जाता है। यह दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। वर्तमान युग भौतिक युग है। बढ़ती मंहगाई के चलते और पैसो के अभाव में जीवन में आये कटू अनुभव के चलते अर्थ को तवज्जो देना महत्त्वपूर्ण हो गया है। आखिर अर्थ के पीछे भागने का कारण ही परिवार है।
स्वास्थ्य की अनिश्चितता, शिक्षा, बढ़ती जरूरतों को पूरा करने हेतु जीवन में अर्थ का अत्याधिक महत्त्व है। परिवार से दूर होना कोई भी नहीं चाहता किंतु परिवार की खुशियां खरीदने ही तो व्यक्ति अपनी सुख-सुविधा को त्यागकर निकल पड़ता है एक मंजिल की ओर और फिर वह धीरे-धीरे संपदा के मायावी जाल में फंसते जाता हैै।
उसकी मानसिकता कार्यों को प्राथमिकता देने लगती है और यह सारी प्रक्रिया स्वाभाविक है। परिवार के आपसी रिश्तों में चाहे जितना प्रेम, प्रगाढ़ता रहे किंतु अर्थ के अभाव में इस प्रेम की जगह तनाव-निराशा ले लेती है। संस्कारों का योगदान महत्वपूर्ण हैं। संस्कार अच्छे हैं, तो दूर रहो चाहे पास, आज की पीढ़ी अपने माता-पिता का पूरा ध्यान बहुत अच्छे से रखती है।
साथ ही माता-पिता भी अपने बच्चों को प्रगति के सोपान पर ऊपर चढ़ते देख प्रसन्न होते हैं, उनके मन में बच्चों के आत्मनिर्भर होने से अलग ही संतुष्टि का भाव होता है, जिससे वह खुश रहते है और अन्य जनहितार्थ कार्य करने में सक्रिय रहते हैं। परिवार और अर्थ से पहले महत्वपूर्ण है सेहत, इसलिए शरीर को स्वस्थ रखना अधिक जरूरी है। शरीर स्वस्थ होगा तभी वह हर दिशा में अपना सौ प्रतिशत दे पायेगा।
दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे
किरण कलंत्री, रेनुकूट
वरिष्ठों के ज्ञान की बुनियाद अनुभव मजबूत नींव से बनी होती है, जो हर परिस्थिति में उनके साथ होती है और उसके लिए अर्थ के समक्ष अगर परिवार व्यर्थ होता तो लोग परिवार के लिए अर्थ क्यो एकत्रित करते? क्योंकि अर्थ और परिवार दोनो एक दूसरे के बिना अधूरे है।
अर्थ से हम चकाचौंध की दुनिया में सब कुछ खरीद सकते है, लेकिन परिवार के अपनेपन की कीमत अर्थ से कभी पूरी नही कर सकते। अर्थ से जीवनयापन ऐशोआराम से भरा होता है। किन्तु विपरीत परिस्थिति में परिवार का साथ ही मंझधार से उभारता है।
अगर परिवार का साथ हो तो अर्थ की कमी कभी महसूस नहीं होती है। बदलते परिवेश में बच्चों के भविष्य को संवारने हेतु परिवार से दूर जाना पड़ता है। किन्तु अर्थ के पीछे भाग कर परिवार को नजरअंदाज करना गलत है। परिवार ही संस्कार की नींव है। अगर नींव मजबूत होगी तो अर्थ के समक्ष परिवार का साथ हमेशा बना रहेगा। अर्थ और परिवार का साथ ही खुशियों की कुंजी है।
परिवार है तो सब कुछ है
पूजा काकाणी, इंदौर
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अर्थ के समक्ष परिवार ‘व्यर्थ’ यह कथन बिल्कुल गलत है, क्योंकि हमारी भारतीय सभ्यता में परिवार से बढ़कर कुछ नहीं है। धन एकत्रित कर रहे हैं, तो उसका उपयोग परिवार, स्नेहीजन के लिए ही तो करते हैं। धन तो आता है, जाता है परंतु परिवार एक बार टूट गया तो वापस नहीं जुड़ता।
माना कि धन से हर व्यक्ति के लिविंग स्टैंडर्ड और रहन-सहन, स्टेटस आदि डिसाइड होता है, परंतु उसे करने वाला तो सामाजिक मानव ही है। आज की महंगाई में धन एक आवश्यकता हो गई है।
कोरोना काल में गत 2 वर्षों में वैसे ही कामकाज और अर्थव्यवस्था हर देश की डाँवाडोल हो गई है। इसलिए समय अनुसार अर्थव्यवस्था और पारिवारिक व्यवहार दोनों ही बैलेंस करना अति आवश्यक है। तभी जीवन के पहिए की सही राह, निश्चित होगी। समझदार को इशारा काफी है।
परिवार से ही ‘अर्थ’ है
अजय पनवाड़, बाँरा
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‘‘बंद मुठ्ठी लाख की खुल जाये तो खाक की’’ जी हां, यह कहावत आज भी बिल्कुल सार्थक है। त्याग, बलिदान, समर्पण, सेवा, प्रेम इनसे मिलकर बनता है परिवार और यह पाँच अंगुलियाँ जब आपस में मिल जाती हैं तो ये परिवार की ऊर्जा बन जाती है। इसी से परिवार है, और परिवार से हम हैं।
आपसी सामंजस्य से बाधा रूपी सागर (चाहे पैसे की हो या कोई भी) पर सेतु बनाकर उसे पार किया जा सकता है। बंद मुठ्ठी का ही अर्थ है नहीं तो काहे के आप समर्थ हैं। सिर्फ अर्थ से ही आपके सामर्थ्य की तुलना नहीं की जा सकती है। पारिवारिक मूल्यों का भी उतना ही ‘‘अर्थ’’ है जितना कि अपनेपन में ‘‘अर्थ’’ का।
माना कि अर्थ, क्षणिक खुशी दे सकता है किंतु परिवार जीवन भर की। परिवार ही प्रथम सीढ़ी है जिस पर चलकर वह अगली सीढ़ी पर पहुुंचता है। परिवार आपको मानसिक रूप से मजबूत ही नहीं करता अपितु प्रेरणा भी देता है, आपका मार्ग प्रशस्त करता है। जीवन का आधार तो परिवार ही है ना कि पैसा। परिवार से बड़ी दौलत कोई हो ही नहीं सकती।