कड़ी मेहनत व अपनों का साथ बना सफलता का आधार- रमेश गाँधी
फेडरेशन ऑफ पेपर्स ट्रेडर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया (FPTA) देशभर के सुस्थापित पेपर्स व्यवसायियों की एक प्रतिष्ठित राष्ट्र स्तरीय संस्था है, जिसके देशभर में लगभग 5500 से अधिक सदस्य हैं। FPTA द्वारा गत 5 मार्च को समस्त सदस्यों के मार्गदर्शन के लिये ‘‘सक्सेस मंत्र फार ए प्रोस्पेरस फेमिली बिजनेस’’ विषय पर वेबीनार का आयोजन किया गया। इस वेबीनार में 150 से अधिक पेपर मिल के प्रतिनिधि के रूप में देशभर में अपने कई कार्यालयों के माध्यम से पेपर व्यवसाय में महत्वपूर्ण योगदान दे रही कम्पनी ‘‘आर.ए. क्राफ्ट पेपर प्रा.लि.’’ के संचालक रमेश गाँधी विशेषज्ञ वक्ता के रूप में आमंत्रित थे। आईये जानते हैं ‘‘व्यावसायिक सफलता के मंत्र’’ श्री गाँधी की जुबानी जो उन्होंने इस वेबीनार में दिये थे।
मेरा जन्म सन् 1951 में एक छोटे से कस्बे मलकापुर (अकोला) में हुआ। वहीं रहते हुए एम.कॉम तक शिक्षा ग्रहण की, जिसमें मैं एक एवरेज विद्यार्थी ही रहा। हम सात भाई व तीन बहन थे, ऐसे में आप अंदाज लगा सकते हैं कि हमारी आर्थिक स्थिति कैसी थी? अत: आत्मनिर्भर होने हेतु शिक्षा के दौरान एक छोटी सी किराना दुकान पर गोली बिस्किट तक बेचे। हमारे परिवार का कोई सशक्त व्यावसायिक बेकग्राउंड नहीं था, इसलिये हमारी सोच एक अच्छी नौकरी कर पैसा कमाने तक सीमित थी।
अत: मैं नौकरी तलाश रहा था और ऐसे में मैंने स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में नौकरी के लिये आवेदन किया तथा साक्षात्कार के लिये मुम्बई गया। वहाँ जाकर मैं समझ गया था कि मुम्बई में मैं कुछ बन सकता हूँ, जबकि अकोला में अच्छा जीवन सम्भव नहीं था। इसी सोच के चलते मुम्बई में एक प्रायवेट फर्म में नौकरी प्रारम्भ कर दी और मुम्बई शिफ्ट हो गया। सन् 1975 से 78 तक मुम्बई में रहा। इस दौरान मुम्बई की लाईफ स्टाईल व वहाँ के लोगों का संघर्ष देखा जो मेरे लिये प्रेरक था।
फिर आया जीवन में मोड़
जब मैं मुम्बई में नौकरी कर रहा था तभी 17 जून 1978 को मेरा विवाह हो गया। बॉस की समझाइश के बावजूद मुझे मुम्बई छोड़ना पड़ा क्योंकि मात्र 700 रुपये की सेलरी में मुम्बई में परिवार सहित रहना सम्भव नहीं था। मेरे ससुरजी नागपुर के अत्यन्त सम्पन्न व्यक्तियों में से एक थे। अत: ऐसी स्थिति में मैंने उनसे चर्चा की। उनके परामर्श के अनुसार मैंने 7 जनवरी 1979 को नागपुर में आर.एस. इन्टरप्राइजेस के नाम से दुकान प्रारम्भ की। फिर मैं परिवार सहित नागपुर आ गया। यहाँ मुझे ससुरजी का काफी मोरल सपोर्ट मिला। उनके अपने सिद्धांत थे, जो उनके समयानुकूल थे। वे धन संरक्षण में विश्वास रखते थे। अत: उनका एक ही फंडा था व्यवसाय में उधार लाओ और नकद बचाओ। लेकिन मेरे पास पैसा नहीं था, ऐसे में न तो उधार लेने की मेरी हिम्मत थी और न ही पहचान।
मेहनत व मित्रता बनी सफलता का मूलमंत्र
अब व्यवसाय की चुनौतियों में रोज-रोज ससुरजी के पास जाना अच्छा नहीं लग रहा था और उनका सिद्धांत मेरे काम नहीं आ रहा था। अत: मैंने कड़ी मेहनत करने का निर्णय कर लिये। बस मैंने एक – एक प्रेस जाकर कागज की रिम बेचना प्रारम्भ कर दिया। अलग – अलग शहरों में कॉपियाँ भी बनाई और टीएलओ भी बेचा। इस दौरान मुम्बई आने-जाने का मौका भी मिलता था। इसी से वहाँ मेरी मित्रता रामअवतार अगरवाल से हुई, जो हरियाणा पेपर के स्थापित विक्रेता थे। एक बार मैंने हिम्मत कर दो वेगन पेपर मंगा लिया, जिसकी कीमत 3 लाख 50 हजार रुपये थी। दुर्भाग्य से रिजेक्टेड कागज के बंडल वहाँ पहुँचे। मेरे लिये 35 मी.टन रिजेक्टेड कागज को बेचना चुनौती बन गया। मैं 5000 रुपये क्लेम करने की सोच रहा था लेकिन ऐसे में मेरे मित्र श्री अगरवाल मेरे लिये फरिश्ता बन सामने आये। उन्होंने दिलेरी दिखाकर मुझे 4 रुपये प्रति कि.ग्रा. का क्लेम दिलाया। इससे मुझे बहुत राहत मिली।
फिर बढ़े शिखर की ओर कदम
अगले दिन हम दोनों एक प्रिंटर से मिलने पहुँचे, जिन्होंने कुछ अलग साईज के कागज का आर्डर दिया था। उनका व्यवसाय मुम्बई व नागपुर दोनों जगह था। अत: मैंने उनके सामने वापस नागपुर आने की इच्छा जाहिर की। उन्होंने मेरे निर्णय का स्वागत किया। अब हमने आर.ए. इन्टरप्राइजेस नाम से नागपुर में फर्म प्रारम्भ कर दी, जिसके लिये नागपुर पेपर मिल की एजेंसी ले ली। उस समय कोरगेटेड पेपर का साईज बहुत छोटा था, लेकिन धीरे-धीरे मुम्बई में बड़ा मार्केट मिलने से आनंद आने लगा। फिर मैंने अपने परिवार को भी नागपुर से मुम्बई स्थानांतरित कर लिया।
दुर्घटना ने फिर पहुँचाया नागपुर
दुर्भाग्य से 14 सितम्बर 1986 में मेरा बहुत बड़ा एक्सीडेंट हो गया और मुझे डेढ़ माह तक अस्पताल में भर्ती रहना पड़ा। इसमें मेरी समस्त जमा पूंजी समाप्त हो गई। उस कठिन दौर में मेरा कोई सहयोगी नहीं बचा। मेरी पार्टनरशिप टूट गई और मेरी एजेंसी भी जाने के कगार पर थी। बिक्री भी लगभग खत्म ही हो गई थी। मेरा मुम्बई ऑफिस पूरा बर्बाद हो गया था। हमने धीरे-धीरे फिर काम प्रारम्भ किया। इस कठिन दौर में धर्मपत्नी व ससुरजी का ही नैतिक सहयोग था। इन स्थितियों में ससुरजी ने मुझे पुन: नागपुर लौट जाने की सलाह दी। छोटा भाई राजेश जो अभी मुम्बई आफिस देख रहा है, वह इस दौर में मेरे साथ आ गया। भाई प्रशांत भी सहयोगी बना और हमने पुन: नागपुर से व्यवसाय की शुरुआत कर दी। धीरे-धीरे व्यवसाय फिर चलने लगा। औरंगाबाद पेपर मिल के बादलजी और वाघलेजी ने साथ दिया। औरंगाबाद पेपर मिल के कागज का मुम्बई व औरंगाबाद में मूल्य अलग था। औरगाबाद में यह 30 पैसा कम था और वहाँ इनका कोई एजेंट भी नहीं था। अत: हमने औरंगाबाद में भी अपना ऑफिस प्रारम्भ कर दिया। वहाँ का कार्यालय चचेरे भाई को सौंपा और आसपास का मार्केट भी कवर कर लिया।
ऐसे हुआ व्यवसाय का विस्तार
फिर धीरे-धीरे एजेंसियों का विस्तार करते गये। हमने नाथ पेपर मिल तथा अमेया पेपर मिल की एजेंसी भी ले ली। नासिक में ग्रेफा सेशन में पेपर की काफी खपत होती थी, तो पैसा भी मिलने लगा। अत: वर्ष 1989 में पहली बार हमने मुम्बई में एक छोटा सा ऑफिस ले लिया क्योंकि अभी तक तो टेबल लगाकर ही अपना व्यवसाय करते थे और पेइंगगेस्ट के रूप में रहते थे। काम चलने लगा तो भाई अशोक भी साथ आ गया और नागपुर ऑफिस वो देखने लगा। नासिक की वजह से व्यवसाय में तेजी से वृद्धि हुई। हमारी औरंगाबाद पेपर मिल की एजेंसी ‘‘हिन्दुस्तान लीवर’’ में एप्रूव्ड थी, इस वजह से हमने कोल्हापुर ऑफिस भी प्रारम्भ किया तथा वहाँ दरकजी को बैठा दिया। धीरे-धीरे परिवार के सदस्यों को काम मिलता रहा और 7 में से 2 दिन नागपुर और 5 दिन अन्य शहरों में होते हुए पूणे व कोल्हापुर तक जाते थे। इस तरह हमने परिवार के सदस्यों का सहयोग लिया और व्यवसाय का विस्तार करते चले गये। वर्तमान में नागपुर, औरंगाबाद, नासिक, कोल्हापुर, पुणे, हैदराबाद, इन्दौर व वापी आदि में हमारी कंपनी के कार्यालय हैं तथा 150 से अधिक कागज मिलों की एजेंसी हमारी कम्पनी के पास है।
सभी के सहयोग से ही मिली सफलता
वर्तमान में मैं देशभर में 10 से 12 ऑफिस का संचालन कर रहा हूँ और इनके द्वारा 150 से अधिक कागज मिलों के प्रतिनिधि के रूप में सेवा दी जाती है। इस सफलता के शिखर पर पहुँचने के बाद भी मैं गर्व के साथ कहता हूँ कि इसका श्रेय मेरे अपनों को जाता है। मेरे विकट दौर में मुझे धर्मपत्नी तथा ससुरजी का जो सहयोग मिला, उसके बिना यह सफलता सम्भव नहीं थी। ससुरजी ने तो सदैव ही एक मार्गदर्शक की भूमिका निभाई। मैं मित्र श्री अगरवाल का भी आभारी हूँ। वर्तमान में मैं व्यावसायिक कारणों से यूएसए, यूरोप, खाड़ी देश, इंडोनेशिया, मलेशिया, सिंगापुर, श्रीलंका आदि स्थानों का भ्रमण कर चुका हूँ। वास्तव में आज भी इस व्यवसाय में मेरे परिवार का योगदान है। वर्तमान दौर में जहाँ भाई-भाई का नहीं होता वहाँ न सिर्फ हम भाई बल्कि पुत्र, भतीजे तथा जवाई भी मिलकर इस व्यवसाय को सम्भाल रहे हैं और वह भी पूरे सामंजस्य के साथ। हम सभी को यही शिक्षा देते हैं कि पैसा बहुत कुछ है लेकिन सब कुछ नहीं है। अत: रिश्ते सबसे ऊपर हैं।
क्यों नहीं लगाई स्वयं ने मिल
हमेशा से मेरी सोच स्पष्ट रही कि मैं स्वयं पेपर व्यवसाय में होने के बावजूद कभी पेपर मिल नहीं लगाऊँगा और आज भी मैं इसी पर दृढ़ हूँ। कई लोगों ने मुझसे पूछा कि इतनी सारी मिलों की एजेंसी हैं और लगभग 25 हजार टन कागज का व्यवसाय करते हो, फिर स्वयं की मिल प्रारम्भ क्यों नहीं की। मैं उन्हें एक ही बात कहता हूँ कि दूध पीना है, तो भैंस बांधने की जरूरत ही नहीं होती। हम चाहें तो सफेद गाय का दूध भी पी सकते हैं और काली भैंस का भी। यही स्थिति व्यवसाय में है, हम कई मिलों का कागज बेचते हैं। जिन्हें जो पसंद आजा है, वे वह खरीदते हैं। मेरा एक ही सिद्धांत है ईमानदारी से काम करो, कोई शॉर्टकट मत अपनाओ। गलत पैसा मत कमाओ। ईमानदारी से पैसा दो। जब गलत पैसा ले नहीं रहे हो, तो गलत दो भी मत।
बेटे ने सीमा पार पहुँचाया व्यवसाय
नई पीढ़ी कब तैयार हुई पता ही नहीं चला लेकिन उसने भी हमारे पारिवारिक व्यवसाय को पंख अवश्य लगा दिये। बेटे राहुल ने बी.कॉम कर फिर एफएमडी किया और स्वयं भी अपने पारिवारिक व्यवसाय में उतर गया और स्वयं बाम्बे शिफ्ट हो गया। हमारे एक मित्र विशाल धवन कनाडा शिफ्ट हो गये थे, लेकिन हमारा हमेशा अच्छा सम्पर्क बना रहे। उन्होंने कनाडा से पेपर इम्पोर्ट करने का ऑफर दिया। इस व्यवसाय को भी प्रारंभ कर दिया। कनाडा और अमेरिका गये तो वहाँ का व्यवसाय देखकर बहुत प्रसन्नता हुई। राहुल ने वहाँ बड़ी मेहनत व लगन से व्यवसाय का अच्छा विस्तार कर लिया था। कारण यह था कि हम जिस मिल का काम करते थे, उसी को इम्पोर्टेड पेपर भी देते थे। अब यूएसए, यूरोप तथा खाड़ी देशों से भी कागज इम्पोर्ट करते हैं।
सुधार घर से करें
लोग (नेता) कहते हैं देश सुधारो। मेरा मानना है पहले घर सुधारों अपने परिवार सदस्य को काम दो, अच्छे संस्कार, पैसा, प्लेटफार्म, इंफ्रास्ट्रक्चर दो कि पूर्ण क्षमता से काम हो तो बहुत कुछ संभव है। सभी संभव तो इस संसार में कुछ नहीं है, फिर पूर्णता की उम्मीद हम क्यों करें।
पारिवारिक व्यवसाय सौभाग्य
यदि पुत्र अपने पिता का व्यवसाय चाहता है तो उससे भाग्यशाली कोई हो ही नहीं सकता, क्योंकि उसमें होश, पिता का अनुभव, पैसा, उद्देश्य, ऊंच-नीच का प्रभाव व पुत्र का जोश, नई सोच शिक्षा, कम्प्यूटराइजेशन, उमंग, डिजिटलाईजेशन का संगम हो जावे तो सोने पे सुहागा होता है। उसमें तरक्की निश्चित है।
बच्चों में करें संस्कारों का रोपण
अतः उसे ऐसे संस्कार व परस्पर चाहत पैदा करे कि तेरा मेरा ना करे। यह अंसभव नहीं बस कठिन जरूर है। आज भी हमारे यहां प्रथम ‘जय श्री गणेश’ से संबोधित करते हैं। हमारे मुसलमान भाई, ग्राहक व मिलनेवाले भी यही करते है। यह हमारे आराध्य देव के प्रति समर्थन है। अच्छी भावना व आत्मीयता से बात करते हैं जो हमारे वार्तालाप को सरल व सुगम बनाता है।
सभी को लें साथ
आज भी हमारे यहां गणेश जी का पर्व पूरे 9 दिन बड़े उत्साह व धूमधाम से मनाया जाता है। उसमें सभी घर के सदस्य भाई, बहन, भतीजी, भाभी आते हैं व प्रथम (स्थापना के बाद) शनिवार को सभी एकत्र होते हैं। इसमें नागपुर के सभी व्यवसायी, परिचित, मित्र, रिश्तेदार सहित 1000 लोगों का सामूहिक पूजा एवं प्रसादी होता है। आज पूर्ण नागपुर में प्रसाद होता है, जो पिछले 25 वर्षों हमारे यहाँ से चलता आ रहा है। श्री गणेश जी की परमकृपा से ही हमारा यह व्यवसाय, परिवार, पैसा, प्रतिष्ठा फलफूल रहे है। आज इसे देखकर नागपुर में 15 जगह गणेश जी की स्थापना व प्रसादी का कार्यक्रम होता हैं।
तन-मन स्वस्थ जरूरी
यदि हमने आधे मन से काम किया शार्ट कट से पैसा कमाया और काम किया तो फल भी आधे व कच्चे मिलेंगे। आज भी हमारे यहां हर सदस्य सुबह प्राणायाम, ध्यान, व्यायाम आदि 30 मिनिट से 90 मिनिट तक करते ही हैं। सुबह 15 मिनट से 90 मिनट पूजा-ध्यान करते हैं, जो हमारे तन, मन को एकाग्रता लाता है। हमारा वास्तविक लक्ष्य है इज्जत से पैसा कमाना व घर में शांति, स्वस्थ रहना, सिर्फ पैसा कमाना नहीं। यही हम तन, मन,धन से काम शिद्दत (लगन) से करे तो हमें अपार सफलता मिल सकती है।
परिवार की भविष्य निधि
बच्चों के संस्कार, सेहत, पारिवारिक, समाज का भी ख्याल रखें। यह उनकी भविष्य निधि है। निरंतरता उसी धंधे, व्यवसाय में हमें अनुभव व ऊंच-नीच जोखिम का ध्यान दिलाती है तथा निर्णय लेने में सहायता करती है। इसमें समय के साथ हमारे पास अनुभव, पैसा, जानकारी, पारिवारिक संलग्नता, घर के लोगों की काम व रिस्क लेने की एबिलिटी आदि का पता चलता है। उस अनुसार हम पारिवारिक सदस्यों को काम दे सकते हैं। ऐसा कराकर व्यवसाय को बढ़ाया जा सकता है।
कोई भी काम बुरा नहीं
मेरे मत से कोई भी काम अच्छा या बुरा नहीं होता। करने वाला अच्छा या बुरा होता है। हर काम को सेटल होने में एक समय देना पड़ता है। यह प्राकृतिक नियम है। बच्चा भी 9 माह के बाद आता है। बड़ा होने में शिशु, बालक, किशोर, यौवन, प्रौढ़, बुढ़ापा, वैसे ही पौधे बीज, अंकुर, पौधा वृक्ष तना फल, फूल आदि प्रक्रिया से गुजरते हैं। इसमें हमारा कुछ नहीं चलता तो धंधे व्यवसाय में कैसे संभव है? सोचें।
कृतज्ञता रखें
आज के भौतिक युग में इंसान इतना स्वार्थी हो गया कि एक दूसरे का गला काटने पर उतारु हो गया है। किसी ने यदि हमारे लिये किया तो उसकी कृतज्ञता, उपकार, सद्भावना हम व्यक्त कर ही नहीं सकते व भूल जाते हैं। जैसे ही हमारा समय आता है हम भूल जाते हैं व उसकी मजबूरी का फायदा उठाकर अपना उल्लू सीधा करते हैं। जैसे प्रकृति ने हमें क्या नहीं दिया हवा, पानी, अनाज, ठंडा, गरम, सूर्य की रोशनी, अन्न, धान्य किसी का कोई चार्ज है। उपकार है? नहीं नहीं क्योंकि हम इसमें गारेटेंड होते हैं इस लिये मोल नहीं करते।