Jeevan Prabandhan

भावुकता प्रतिक्रिया है तो संवेदनशीलता को दायित्व बोध मानें

किसी को भी सभी बातें जन्म से नहीं मिलती, उन्हें अर्जित करना पड़ती है। यह जितना सत्य संसार के मामले में है, उतना ही आध्यात्म के मामले में भी। नाम, दाम, धन, प्रतिष्ठा, आवश्यक नहीं कि पैदाइश से ही प्राप्त हो जाए। अपने-अपने ढंग से सभी को अर्जित करना पड़ती है।

ऐसे ही आध्यात्मिक संसार में एक तत्व है संवेदनशीलता जिसे साधना द्वारा प्राप्त करना पड़ता है। पारिवारिक मामले में इसका बड़ा महत्त्व है।

हर मनुष्य के भीतर संवेदनशीलता एक संभावना के रूप में रहती है। गौतम बुद्धा कहा करते थे कि भक्तों को संवेदना और भावुकता का अंतर समझ में आना चाहिए। माना जाता है कि भावुकता का संचालन मस्तिष्क या बुद्धि से होता है और संवेदनशीलता ह्रदय से संचालित होती है।

भावुक रहना साधारण व्यवहार है तो संवेदनशील होना एक असाधारण आचरण, जिसे अर्जित करना पड़ता है। भगवान कृष्ण के जीवन में भी अनेक ऐसे अवसर आए जब उन्होंने भावुकता और संवेदनशीलता को पृथक-पृथक स्थापित किया था।

कभी-कभी दूसरे का दुःख देख हम दुखी हो जाते हैं, हो सकता है आंसू भी आ जाए। यह भावुकता है। लेकिन जब आप उस दुःख को गहराई से महसूस कर उसके निदान में जुट जाते हैं, तब संवेदनशीलता का आरम्भ होता है।

भावुकता एक प्रतिक्रिया सी बन जाती है लेकिन संवेदनशीलता दायित्वबोध होता है, ग्यारह वर्ष की आयु में श्रीकृष्ण ने जब वृन्दावन छोड़ा था और पहली बार मथुरा जा रहे थे, तो सारा वातावरण भावुक था। माता-पिता, गोप-ग्वाल सब विछोह में डूब गए थे, पर श्रीकृष्ण सारे दृश्य को संवेदनशीलता से ले रहे थे।

कृष्ण का ब्रज छोड़ मथुरा जाने का अर्थ था- एक बड़ी ज़िम्मेदारी जिसमे व्यापक जनहित था जो मात्र ब्रजहित या ब्रजप्रेम से विशाल था। भावुकता और संवेदना की मिलीजुली प्रतिक्रिया है-जरा मुस्कुराइए!

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