कैसे हुई महालक्ष्मी की उत्पत्ति
दीपावली महापर्व पर हम प्रतिवर्ष माता महालक्ष्मी की पूजन करते हैं। ऐसे में स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न मन में उत्पन्न हो ही जाता है कि आखिर महालक्ष्मी हैं कौन तथा उनकी उत्पत्ति कैसे हुई? युवा पीढ़ी की इसी जिज्ञासा का शास्त्रोक्त समाधान कर रहा है, यह आलेख।
विष्णु पुराण अनुसार समुद्र से उत्पन्न
लक्ष्मी को धन और ऐश्वर्य की देवी माना गया है। देवता के रूप में लक्ष्मी का उल्लेख प्राचीन वैदिक साहित्य में नहीं है। पुराणों के अनुसार समुद्र मंथन से १४ रत्न निकले थे। लक्ष्मी इनमें से एक हैं, जिन्हें विष्णु ने ग्रहण किया था। लक्ष्मी कभी विष्णु से अलग नहीं होती। उन्होंने स्वयं विष्णु को पति के रूप में चुना है और वे सदा उनके वक्षस्थल में निवास करती हैं। प्राचीन साहित्य में उल्लेख है कि विष्णु भक्तों को धन प्रदान करते हैं। धन और ऐश्वर्य से संबंध होने के कारण विष्णु समृद्धि की देवी लक्ष्मी के स्वामी हैं। ‘विष्णु पुराण’ में कहा गया है कि लक्ष्मी समृद्धि है और उसको धारण करने वाले विष्णु श्रीपति हैं। लक्ष्मी स्वर्ण वर्ण की, चार भुजाओं वाली, सदैव युवती एवं सुंदरी के रूप में विद्यमान रहने वाली देवी हैं जो धन की अधिष्ठात्री हैं। समृद्धि, संपत्ति, आयु, आरोग्य, परिवार, धन-धान्य की विपुलता आदि की प्राप्ति के लिए लक्ष्मी की उपासना की जाती है। पुराणों में वर्णित लक्ष्मी कमल पर विराजित हैं, उनके हाथों में कमल है और वे कमल-पुष्पों की माला धारण करती हैं। ऐरावती हाथी द्वारा स्वर्णपात्र में लाए गये जल से वे स्नान करती हैं। महाभारत में लक्ष्मी के ‘विष्णुपत्नी लक्ष्मी’ एवं ‘राजलक्ष्मी’ दो रूप बताये गये हैं। इनमें से पहली लक्ष्मी हमेशा विष्णु के साथ रहती हैं और राजलक्ष्मी पराक्रमी व्यक्ति का वरण करती है।
ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार श्रीकृष्ण से पुन: उत्पन्न
‘ब्रह्मवैवर्त पुराण’ में लक्ष्मी की पुन: उत्पत्ति की रोचक कथा प्राप्त होती है। सृष्टि के पहले रासमण्डल में स्थित श्रीकृष्ण के वाम भाग से लक्ष्मी की उत्पत्ति हुई थी। ये देवी परम सुन्दरी थी। उत्पन्न होते ही ये दो रूपों में विभक्त हो गयी। ये दोनों मूर्तियाँ अवस्था, आकार, भूषण, सुंदरता आदि सभी बातों में समान थी। एक मूर्ति का नाम लक्ष्मी और दूसरी मूर्ति का नाम राधा है। लक्ष्मी वाम (बायें) भाग से उत्पन्न हुई और राधिका दक्षिण (दाहिने) भाग से। इन दोनों मूर्तियों की अभिलाषा पूर्ण करने के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने अपने दाहिने भाग से दो भुजाओं वाला तथा बायें भाग से चार भुजा वाला रूप धारण किया। द्विभुज मूर्ति राधाकांत और चतुर्भुज मूर्ति नारायण हुई। श्रीकृष्ण तो राधा तथा गोप-गोपियों को लेकर वहीं रह गये और नारायण लक्ष्मी को लेकर वैकुंठ चले गए। वैकुंठ में ही उनका रहना निश्चित हुआ। लक्ष्मी नारायण को अपने वश में करके सब रमणियों में प्रधान हो गईं। ये देवी लक्ष्मी, स्वर्ग में इंद्र की संपत्तिरूपिणी स्वर्ग लक्ष्मी के रूप में, पाताल और मृत्युलोक के राजाओं के पास राजलक्ष्मी के रूप में, गृहस्थों के यहां गृहलक्ष्मी के रूप में, चंद्र, सूर्य, अलंकार, रत्न, फल, महारानी, अन्न, वस्त्र, देव प्रतिमा, मंगल, घर, हीरा, चंदन, नूतन, मेघ आदि में शोभारूप से विद्यमान रहती हैं। देवी लक्ष्मी ही शोभा का आधार है। जिस स्थान पर लक्ष्मी नहीं है, वह स्थान शोभा शून्य है।
कहां रहता है लक्ष्मी का निवास
लक्ष्मी-प्रह्लाद संवाद : असुरराज प्रह्लाद ने एक ब्राह्मण को अपना शील प्रदान किया, जिस कारण क्रमानुसार उसका तेज, धर्म, सत्य, व्रत, बल एवम अंत में उसकी लक्ष्मी उसे छोड़कर चले गए। तत्पश्चात लक्ष्मी ने प्रह्लाद को साक्षात दर्शन देकर कहा ‘तेज, धर्म, सत्य, व्रत, बल एवं शील आदि मानवीय गुणों में मेरा निवास रहता है, जिनमें शील अथवा चरित्र मुझे सबसे अधिक प्रिय है। इसी कारण श्रेष्ठ आचरण करने वाले पुरुष के यहां रहना मैं सबसे अधिक पसंद करती हूं।’
लक्ष्मी-इंद्र संवाद : असुरराज प्रह्लाद के समान उसके पौत्र बलि का भी लक्ष्मी ने त्याग किया। बलि का त्याग करने के कारणों को इंद्र से बताते हुए लक्ष्मी ने कहा, ‘पृथ्वी के सारे निवास स्थानों में से भूमि (वित्त), जल (तीर्थादि), अग्नि (यज्ञादि) एवं विद्या (ज्ञान) ये चार स्थान मुझे अत्यधिक प्रिय हैं।’ लक्ष्मी ने आगे कहा, ‘चोरी, वासना, अपवित्रता एवं अशांति से मैं अत्यधिक घृणा करती हूं, जिनके कारण क्रमशः भूमि, जल, अग्नि एवं विद्या में स्थित प्रिय निवास स्थानों का मैं त्याग कर देती हूं।’’ दैत्यराज बलि ने उच्छिाष्ट भक्षण (जूठा भोजन) किया एवं देव ब्राह्मणों का विरोध किया, इसी कारण अत्यंत प्रिय होते हुए भी लक्ष्मी ने उसका त्याग कर दिया।
लक्ष्मी-रुक्मिणी संवाद : लक्ष्मी के निवास स्थान से संबंधित एक प्रश्न युधिष्ठिर ने भीष्म से पूछा था जिसका जवाब देते समय भीष्म ने लक्ष्मी एवं रुक्मिणी के बीच हुए एक संवाद की जानकारी युधिष्ठिर को दी। इस कथा के अनुसार लक्ष्मी ने रुक्मिणी से कहा था-‘सृष्टि के सारे लोगों में प्रगल्भ, भाषण कुशल, दक्ष, निरलस (जो आलसी न हो), आस्तिक, अक्रोधन, कृतज्ञ, जितेंद्रिय, वृद्धजनों की सेवा करने वाले (वृद्ध सेवक), सत्यनिष्ठ, शांत स्वभाव वाले एवं सदाचारी लोग मुझे सबसे अधिक प्रिय हैं, जिनके यहां रहना मुझे प्रिय है। निर्लज्ज, कलहप्रिय, निंद्राप्रिय, मलिन, अशांत एवं असावधान लोगों का मैं अतीव तिरस्कार करती हूं, जिस कारण ऐसे लोगों का मैं त्याग करती हूं। महाभारत में अन्यत्र प्राप्त उल्लेख के अनुसार गायों एवं गोबर में भी लक्ष्मी का निवास रहता है।