धर्म के विरुद्ध संघर्ष यानी संसार के विरुद्ध संघर्ष
धर्म क्या है इसको लेकर सदैव बहस होती रहती है। कार्लमार्क्स का यह संवाद बहुत लोकप्रिय है कि धर्म जनता के लिए अफीम यानी नशा है। मार्क्स ने इस सवाल को बहुत पहले उठाया था कि धर्म से उत्पन्न्न रिक्तता को कैसे भरा जाए।
मनुष्य धर्म की रचना करता है या धर्म मनुष्य की रचना करता है, यह बहस एक पुराना मुद्दा है। किसी ने धर्म को मनुष्य स्वचेतना कहा है, सवप्रतिष्ठा माना है, भटके हुए लोगों के लिये सदमार्ग माना है। धर्म के विरुद्ध संघर्ष यानी संसार के विरुद्ध संघर्ष
मनुष्य रहता है, राज्य और समाज में। जीता है किसी धर्म में और कई बार धर्म और राज्य समाज एक-दुसरे के लिए उलटे नज़र आते हैं। वे एक-दूसरे को शीर्षासन करते हुए देखते हैं लेकिन तमाम प्रगतियों के बाद अब यह तय हो गया है की धर्म के विरुद्ध संघर्ष का मतलब है, संसार के विरूद्ध संघर्ष।
संसार में अध्यात्म की जो सुगंध होती है, उस तक पहुंचने के लिए धर्म एक साफ़-सुथरी पगडंडी है। धर्म को संसार में उलझाएँ तो अनेक विवाद हैं लेकिन अध्यात्म से जोड़ें तो उससे भी अधिक समाधान हैं। जैसे: अध्यात्म से जुड़कर आश्रम का नाम दिया है- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम।
ब्रह्मचर्य आश्रम ज्ञान की उपासना को बताता है। गृहस्थाश्रम में प्रेम, सहयोग और त्याग के प्रयोग किए जाते हैं, वानप्रस्थ में परिवार की मर्यादित आसक्ति को छोड़कर सेवा की जाए इसका आग्रह होता है तथा संन्यास आश्रम का अर्थ है निर्माण। एक ऐसा जीवन जो सिर्फ परमात्मा के लिए होगा।
देखा जाए तो इन चारों ही आश्रमों का केंद्र परिवार तथा उसका प्रबंधन होता है।संन्यास भारतीय संस्कृति का मौलिक शब्द है। इसलिए धर्म को अध्यात्म से जोड़कर खूब लाभ उठाया जा सकता है और संसार में उलझा कर हानि भी प्राप्त की जा सकती है।
-पं विजयशंकर मेहता (जीवन प्रबंधन गुरु)
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