विशिष्ट माहेश्वरियों की विशेष पहचान
वास्तव में माहेश्वरी होना ही अपने आप में एक गर्व की अनुभूति है। वर्तमान में जातियों की लुप्त होती पहचान से देश ही नहीं बल्कि विश्व को व्यवसाय का पाठ पढ़ाने वाली माहेश्वी जाति भी अपनी पहचान खोने लगी है। आम माहेश्वरी खुद ही नहीं जानता की माहेश्वरी की वास्तविक पहचान क्या है? आईये जानें विशिष्ट माहेश्वरियों की विशिष्ट पहचान, जिन्हें देखते ही आप किसी भी माहेश्वरी को पहचान जाऐंगे।
स्वभाविक क्षत्रिय शौर्य:
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार भगवान शिव की कृपा से क्षत्रिय चौहान जाति के कर्म परिवर्तन से माहेश्वरी समाज की उत्पत्ति हुई है। वास्तव में मूल रूप से तो हमारे पूर्वज क्षत्रिय ही थे। इस बात की पुष्टि इससे भी होती है कि माहेश्वरी समाज की उत्पत्ति के बाद मोहता, टावरी आदि कई खांप के हमारे पूर्वजों ने राजशाही के समय सेनाओं का नेतृत्व किया और अपनी वीरता से युद्ध का स्वरूप बदलकर रख दिया। देश की स्वतंत्रता के लिये हुई सशस्त्र क्रांति में भी माहेश्वरी पीछे नहीं रहें।
क्या हैं ‘‘खांप’’ और ‘‘नख’’:
मुंधड़ा, लढ्ढा, टावरी आदि 77 खापें हैं। प्रत्येक खांप में उपखांप हैं, जिसे नख कहते है। इनकी संख्या लगभग 960 थीं। चूंकि इनका निर्माण व्यवसाय, निवासी क्षेत्र व प्रतिष्ठा के आधार पर किया गया। अतः इनकी संख्या बढ़ती गई।
कुछ वर्ष पूर्व तक लड़की के मामा,लड़के के मामा तथा खुद लड़का-लड़की की खांपे याने 4 खांप छोड़कर विवाह संबंध किये जाते थे। अब केवल अपनी ही खांप छोड़ी जाती है। आजकल उपखांपों की जानकारी न रहने से सगोत्र में विवाह होने की खबरें मिलती रही हैं।
धर्म व भाषा मात्र एक:
माहेश्वरी जाति हिन्दू धर्म का अभिन्न अंग है, सभी वैष्णव हैं। काल के प्रवाह में विभिन्न मतावलंबी जैसे रामानुज, रामस्नेही, वल्लभकुल, महानुभाव जैसे पंथ को भी मानने वाले हो गये हैं। किन्तु सभी का धर्म हिन्दू ही है। मारवाड़ी, मेवाड़ी, शेखावटी, हाड़ौती, बागड़ी, ढूंढाली आदि राजस्थानी परिवार की समृद्ध बोलियां हैं।
राजस्थान के मारवाड़ क्षेत्र से स्थलांतरीत होने पर विभिन्न प्रांत में उन्हें मारवाडियों के नाम से पहचाना जाने लगा। माहेश्वरी वंश के लोगों की बोली मारवाड़ी है व भाषा राजस्थानी है। जहां-जहां जाकर बसे वहां की स्थानीय भाषा को भी उन्होंने व्यवहार मे अपना लिया है।
नाम पर क्षेत्रवाद हावी:
माहेश्वरी समाज की उत्पत्ति खंडेला के लोहार्गल तीर्थ क्षेत्र, राजस्थान में सीकर के पास डीडवाना में हुई उन्हें डीडू माहेश्वरी कहा जाता हैै। फिर जहाँ-जहां से उत्पत्ति हुई या जाकर बस गये उन सुबों के नाम पर जैसे कोलवार, जैसलमेरी, बीकानेरी, बड़ी मारवाड़, पोकरण, फलोदी आदि के नाम से पहचाने जाने लगे इनके मध्य रोटी-बेटी का व्यवहार अपवाद स्वरूप ही होता था।
अब ऐसा कुछ नहीं है। तथापि भाषा, रीति रिवाजों में अन्तर स्पष्ट नजर आता है। अब दिसावर में बराड़ी, खानदेशी, मेवाड़ी, गुजराती, युपी जैसे प्रदेशों के नाम से पहचाने जाने लगे हैं। इन पर स्थानीय भाषा, खानपान आदि का गहरा प्रभाव पड़ा हैं। कहीं-कहीं तो इनकी स्वतंत्र पहचान ही सहज नहीं रही।
खान-पान मूल रूप से राजस्थानी:
राजस्थानी मूल के होने से लगभग सभी माहेश्वरी समाजजनों का खान-पान राजस्थानी ही है। यह ऊंचे दर्जे का शाकाहारी तथा शुद्ध देशी घी-दूध से बने पकवानों का है। दाल-बाटी-चुरमा, बाजरे की रोटी-छाछ से बनी राबड़ी, मूली के पत्ते की सब्जी, केर-सांगरी-काचरी, मोठ जैसी सुकी सब्जियां, खिचड़ी-बड़ी का साग उनके पकवान हैं।
घेवर, फैनी, मूंग मोगर का हलवा, बीकानेर की सेव, ब्यावर की तिल पपड़ी आदि राजस्थान की ही देन है। राजस्थान में विशेष प्रसंगों पर अफीम की गोली का प्रचलन भी परंपरा में रहा है।
पर्व त्यौहारों पर राजस्थानी प्रभाव:
प्रायः सभी हिन्दू तीज त्यौहार ब़ड़े उत्साह और आनंद के साथ पवित्र भावना से मनाते हैं। स्थान-स्थान, जात-जात के प्रभाव में नाम में तथा पद्धति में अंतर होता रहता है। माहेश्वरी समाज में प्रति दिन कोई ना कोई तीज, त्यौहार, पर्व,उत्सव, बड़ी आस्था और विश्वास के साथ मनाया जाता है। महाराष्ट्रीयन समाज में मंगला गौरी का जितना महत्व है, उतना ही माहेश्वरी समाज में गणगौर और श्रावणी तीज का।
घर की साफ -सफाई, पर्वो पर विविध वृक्षों की पूजा की प्रथा केवल माहेश्वरी समाज में ही दिखाई देती है। रंगोली और मांडने घर परिसर की शोभा बढ़ाते हैं। मेंहदी तो अविभाज्य घटक बनकर न केवल माहेश्वरी समाज में बल्कि देश और विदेश में भी आकर्षण का केन्द्र है।
मानव सेवा में सबसे आगे:
सार्वजनिक कार्यो में माहेश्वरी जाति ने जिस उदारता के साथ अपनी सम्पति को खर्च किया है, वह आश्चर्यजनक है। देहली से रामेश्वरम् तक धर्मशालाएं बनी हैं, शिक्षा संस्थाओं का तो पूरे देश में जाल सा बिछ गया है, चिकित्सा क्षेत्र में अग्रणी हैं। मंदिर, गौशाला निर्माण और देखभाल कार्य, छात्रवृत्तियां, असहाय के लिये अन्न, छत्र, दुर्बलों को आर्थिकों सहायता, नैसर्गिक विपदा में मदद के लिये दौड़कर जाने वाला समाज है।
कुएं, बावड़ी, प्याऊ का कार्य तो हजारों वर्षों से चल रहा है। जहां-जहां माहेश्वरी जाकर बसे हैं, वहां-वहां अधिकांश स्थानों पर माहेश्वरी भवन या महेश भवन हैं। अब छात्रावासों तथा तीर्थ क्षेत्र में समाज सदनों को आधुनिक बनाया जा रहा है। इसका बड़ी संख्या में अन्य समाज के भी सदस्य लाभ उठाते है।
Subscribe us on YouTube