Vichaar Kranti

ये ‘राजलक्ष्मी’ नहीं रहेगी

लक्ष्मी का अर्थ केवल धन-संपदा ही नहीं है, पद-प्रतिष्ठा भी है। यही राजलक्ष्मी कही जाती है। कोई व्यक्ति जब तक न्यायपूर्वक आचरण करता हुआ किसी समाज या संगठन का नेतृत्व करता है तब तक उसकी राजलक्ष्मी स्थिर रहती है लेकिन जैसे ही पदासीन व्यक्ति लोभ, कामना या अहंकार में पड़कर निरंकुश हो जाता है, लक्ष्मी उसे त्याग देती है।

महाभारत के शांतिपर्व में 223वें अध्याय से अगले पांच अध्यायों में बलि-इंद्र तथा इंद्र-लक्ष्मी संवादों में इसकी सुंदर कथा है। इसके अनुसार दैत्यराज बलि एक समय परम तेजस्वी थे। उनका प्रभाव देवताओं से भी अधिक था। तब वे यज्ञ करते थे और कर्तव्य भाव से प्रजापालन करते थे लेकिन समय के फेर से उन पर मोह छा गया। बलि ने सब लोगों को आदेश दिया कि ‘तुम सब मेरा ही यजन करो!’

यह अहंकार की पराकाष्ठा थी। परिणाम यह हुआ कि कभी जिन बलि के कुपित होने पर सारा जगत व्यथित हो उठता था उनका पतन हो गया। उनकी राजलक्ष्मी उन्हें त्याग कर देवराज इंद्र के पास आ गई। कथा कहती है तब उन्हें दुर्दशाग्रस्त देख एक दिन इंद्र ने उनका उपहास किया तब बलि ने समझाया कि….

मैवं शक्र पुनः कार्षी: शान्तो भवितुमर्हसि।
त्वामप्येवंविधं ज्ञात्वा क्षिप्रमन्यं गमिष्यति।।

‘इंद्र! फिर तुम ऐसा बर्ताव न करना। शांति धारण करो। ऐसा न हो कि तुम्हें भी मेरी स्थिति में जानकर यह लक्ष्मी शीघ्र ही किसी दूसरे के पास चली जाए।’

बलि ने इंद्र को चेताया कि व्यवहार ठीक रखें। इसलिए कि कुछ भी पाकर स्वयं को ही ‘सर्वशक्तिमान’ समझ लेने वालों को ‘राजलक्ष्मी’ त्याग देती है। पद पर बैठे हर व्यक्ति को नहीं भूलना चाहिए कि ‘परिर्वतन प्रकृति का शाश्वत नियम है।’ जो आज है, वह कल नहीं होगा। ठीक वैसे ही जैसे कभी दैत्यराज बलि के पास रहने वाली राजलक्ष्मी उन्हें त्यागकर देवराज इंद्र के पास आ गई थी।

जब इंद्र ने पूछा कि देवी! आप मेरे पास कब तक रहेंगी? तब लक्ष्मीजी ने उत्तर दिया, ‘जब तक तुम सत्यपरायण और कर्तव्यनिष्ट हो तब तक साथ हूँ। इसलिए कि जो पद के लोभ व मोह में पड़कर लोकहित बिसरा देता है तथा स्वयं को ही स्वयंभू समझने लगता है, उसे मै उसी तरह छोड़ देती हूँ जैसे राजा बलि को छोड़ दिया।


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Sri Maheshwari Times
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