भगवान महेश की कृपा से उत्पन्न माहेश्वरी
माहेश्वरी समाज की उत्पत्ति कब और कैसे हुई, यह प्रश्न अत्यंत कठिन व शोध का विषय है। वैसे हमेशा से एक पौराणिक कथा को माहेश्वरी समाज की उत्पत्ति से जोड़ा जाता है। अतः यह ही सर्वमान्य है। हमारी नव पीढ़ी की जानकारी के लिए पुनः प्रस्तुत है, माहेश्वरी समाज की यह उत्पत्ति की पौराणिक कहानी।
खंडेलपुर जिसे खंडेलानगर और खंडिल्ल के नाम से भी उल्लेखित किया जाता था, नामक राज्य में सूर्यवंशी क्षत्रिय राजा खड्गलसेन राज्य करता था। इसके राज्य में सारी प्रजा सुख और शांति से रहती थी। खड्गलसेन इस बात को लेकर चिंतित रहता था कि पुत्र नहीं होने पर उत्तराधिकारी कौन होगा? राजा ने मंत्रियों से मंत्रणा कर के धोसीगिरी से ऋषियों को ससम्मान आमंत्रित कर पुत्रेष्ठी यज्ञ कराया।
यज्ञ से प्राप्त हवि को राजा और महारानी को प्रसादस्वरूप में भक्षण करने के लिए देते हुए ऋषियों ने आशीर्वाद दिया और साथ-साथ यह भी कहा कि तुम्हारा पुत्र बहुत पराक्रमी और चक्रवर्ती होगा, पर उसे 16 साल की उम्र तक उत्तर दिशा की ओर न जाने देना, अन्यथा आपकी अकाल मृत्यु होगी। कुछ समयोपरांत महारानी ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम सुजानसेन रखा। वह राजकाज, विद्या और शस्त्र विद्या में आगे बढ़ने लगा तथा समय आने पर सुजानसेन का विवाह चंद्रावती के साथ हुआ।
ऋषि शाप से बने पाषाण
देवयोग से एक जैन मुनि खंडेलपुर आए। कुंवर सुजान उनसे बहुत प्रभावित हुआ। उसने अनेक जैन मंदिर बनवाए और जैन धर्म का प्रचार-प्रसार शुरू कर दिया। जैनमत के प्रचार-प्रसार की धुन में वह भगवान विष्णु, शिव और देवी भगवती को मानने वाले को ही नहीं बल्कि ऋषि-मुनियों को भी प्रताड़ित करने लगा, उन पर अत्याचार करने लगा। ऋषियों द्वारा कही बात के कारण सुजानसेन को उत्तर दिशा में जाने नहीं दिया जाता था लेकिन एक दिन राजकुंवर सुजान 72 उमरावों को लेकर हठपूर्वक जंगल में उत्तर दिशा की ओर ही गया।
उत्तर दिशा में सूर्य कूंड के पास महर्षि पाराशर की अगुवाई में सारस्वत, ग्वाला, गौतम, शृंगी और दाधीच ऋषि यज्ञ कर रहे थे। यह देख वह आगबबूला हो गया और क्रोधित होकर बोला, इस दिशा में ऋषि-मुनि शिव की भक्ति करते हैं, यज्ञ करते हैं, इसलिए पिताजी मुझे इधर आने से रोकते थे। उसने क्रोध में आकर उमरावों को आदेश दिया कि इसी समय यज्ञ का विध्वंस कर दो।
आज्ञा पालन के लिए आगे बढ़े उमरावों को देखकर ऋषि भी क्रोध में आ गए और उन्होंने श्राप दिया कि सब निष्प्राण हो जाओ। श्राप देते ही राजकुंवर सहित 72 उमराव निष्प्राण, पत्थरवत हो गए। यह समाचार राजा खड्गलसेन ने सुना तो अपने प्राण तज दिए। राजा के साथ उनकी 8 रानियाँ सती हो गईं।
भगवान महेश की कृपा से जीवनदान
राजकुंवर की कुंवरानी चंद्रावती 72 उमरावों की पत्नियों के सहित रुदन करती हुईं उन ऋषियों के चरणों में गिर पड़ी और क्षमायाचना करने लगी। तब ऋषियों ने उपाय बताया कि देवी पार्वती के कहने पर भगवान महेश्वर ही इनमें प्राणशक्ति प्रवाहित करेंगे। अतः निकट ही एक गुफा है, वहाँ जाकर भगवान महेश के अष्टाक्षर मंत्र ‘ॐ नमो महेश्वराय’ का जाप करो। राजकुंवरानी सारी स्त्रियों सहित गुफा में गई और मंत्र तपस्या में लीन हो गई।
तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान महेश देवी पार्वती के साथ आये। पार्वती ने इन जड़त्व मूर्तियों को देखा। उनके दर्शन होते ही सारी स्त्रियाँ देवी पार्वती के चरणों में गिर पड़ी। देवी पार्वती ने उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान महेश से अनुरोध कर सुजानकुंवर तथा सभी 72 उमरावों को श्राप मुक्त कर दिया।
इसके साथ ही उन्होंने सभी से उनके शस्त्र लेकर सूर्यकुंड में डलवाये और उन्हें वैश्य कर्म प्रदान किया। सुजानकुंवर को इस अपराध का मुख्य दोषी होने के कारण जागा का काम दिया और शेष 72 उमरावों से 72 माहेश्वरी खांपों की उत्पत्ति हुईं। श्राप देने वाले ऋषियों को इन सभी के गुरु का सम्मान प्रदान किया।
जागाओं के मत में मतभेद
जागा अपने रिकॉर्ड के अनुसार माहेश्वरी समाज की उत्पत्ति 5 हजार वर्ष से भी पूर्व महाभारतकालीन मानते हैं, लेकिन उनका मत है कि 72 उमराव व सुजानकुंवर की श्राप मुक्ति की घटना महेश नवमी नहीं बल्कि सत्तु तीज को हुई थी। वे इसके समर्थन में उत्पत्ति से जुड़ी पंक्ति सुनाते हैं-‘प्रथम सन् 9 का समय शुभ मोहरत तिथि तीज भादवे जन्म्यो माहेश्वरी बादा खंडेली बीज।’
उनके मतानुसार 12 वर्षों से पाषाण बने 72 उमराव व राजा सुजानकुंवर को भगवान महेश ने सत्तु तीज के दिन श्राप मुक्त कर उनकी भूख की व्याकुलता शांत करने के लिए उन्हें सत्तु भोजन के रूप में प्रदान किया था। इसके बाद वे महेश नवमी के दिन डिडवाना जाकर बसे और उन्होंने वहां से अपने वैश्य धर्म की शुरुआत की थी। अतः वास्तव में महेश नवमी माहेश्वरी समाज के वैश्य धर्म स्वीकार करने का दिवस है।
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