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Vichaar Kranti

अहंकारी का अन्त

अहंकार अनियंत्रित बना देता है। सबके साथ समभाव और परस्पर सहयोग रामत्व है और अहंकारी एवं केवल एकाधिकार की जिद रावणत्व।

मानवता के इतिहास में रावण से भी बड़ा दुष्ट और अहंकारी हिरण्यकशिपु हुआ है। इस दैत्यराज का नाम आपने होलिका और प्रह्लाद की कथा में सुना होगा। भक्त प्रह्लाद का यह अभक्त पिता परम् पराक्रमी और वरदान से सम्पन्न होने के बावजूद मारा गया।

इसलिए कि साहब अहंकार किसी का नहीं चलता। जिसने अपने आपको ही सब कुछ माना और बाकी को कुछ नहीं, बस जल्द ही खत्म हो जाता है। विश्वास न हो तो श्रीमदभागवत महापुराण के सातवें स्कंध में दैत्यपति हिरण्यकशिपु की कथा पढ़िए। विष्णु के हाथों अपने भाई हिरण्याक्ष की मौत के बाद बदला लेने के लिए हिरण्यकशिपु ने मन्दरांचल की एक घाटी में जाकर दारुण तप से ब्रह्मा को प्रसन्न कर लिया।

उसने ब्रह्मा से वर मांगा कि उनके बनाए किसी प्राणी मनुष्य हो या पशु, देवता हो या दैत्य, प्राणी हो या अप्राणी किसी से भी मेरी मृत्यु न हो। इतना ही नहीं, दिन में, रात में, अस्त्र से, शस्त्र से, पृथ्वी में या आकाश में भी मेरी मृत्यु न हो। युद्ध में कोई मेरा सामना न कर सके। मैं समस्त प्राणियों का एकछत्र सम्राट होऊँ और वह हो गया।

उसके तप के आगे ब्रह्मा सिवाय तथास्तु के कुछ न कह सकें। फिर क्या था, हिरण्यकशिपु ने हाहाकार मचा दिया। अंततः विष्णु ‘नृसिंह’ बन प्रगटे और अहंकारी को मार दिया, जो मारे न मर सकता था, जब वह मर गया तब आप-हम क्या है।

विवेक चौरसिया


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