Jeevan Prabandhan

निःस्वार्थ होना चाहिए भाईचारा

भाईचारा एक पवित्र दायित्व है। इसे निभाने के लिए नैतिकता की ताकत लगती है। विभीषण ने अपने जीवन में दो भाई देखे थे- एक अपना सगा भाई रावण और दुसरे लक्ष्मण व भरत के भाई श्रीराम। यहीं उन्हें भाईचारे का अंतर समझ में आ गया था।

उन्होंने अपने भाई रावण को समझाते हुए कहा था कि वह देवी सीता श्रीराम को वापस लौटा दें। भाई की बात मानना तो दूर रावण ने लात मारकर उसे लंका से ही निकाल दिया। परन्तु विभीषण ने (लात खाने पर भी) बार बार उनके चरण ही पकड़े। आखिर में विभीषण ने श्रीराम की शरण ली।

श्रीराम ने शरणागत वत्सलता की रघुकुल रीत निभाई और विभीषण के सिर पर कृपा का हाथ रख दिया। श्री राम के मित्र वानर राज सुग्रीव इस निर्णय से सहमत नहीं थे। उन्होंने संदेह जाहिर करते हुए कहा था- भेद हमार लेन सठ आवा, राखिअ बांधि मोहि अस भावा।

हे रघुवीर, विभीषण पर विश्वास करना ठीक नहीं है। आखिर वह शत्रु का भाई है। संभव है हमारा भेद लेने आया हो इसलिए इसे बांधकर रखना उचित होगा। सुग्रीव अपनी असहमति की स्पष्ट राय दे चुके थे।

श्रीराम ने उनका भी मान रखने के लिए कहा था सखा नीति तुम्ह नेकि मम पन सरनागत भयहारी। हे मित्र सुग्रीव, तुमने नीति तो अच्छी बताई है लेकिन मेरा प्रण है शरणागत के भय को दूर करने का।

इस प्रकार श्री राम ने विभीषण को न सिर्फ स्वीकार किया बल्कि समुद्र से जल मंगाकर विभीषण से कहा था जदपि सखा तब इच्छा नाही, मोर दरसु अमोघ जग माही। अस कहि राम तिलक तेहि सारा, सुमन बृष्टि नभ भई अपारा।

हे सखा, यद्यपि तुम्हारी इच्छा नहीं है पर जग में मेरा दर्शन निष्फल नहीं जाता, ऐसा कहकर श्रीराम ने उनका राजतिलक कर दिया। श्रीराम ने बताया कि भाईचारा निःस्वार्थ होना चाहिए। निःस्वार्थ रहने का एक तरीका है जरा मुस्कराइए…।

पं विजयशंकर मेहता
(जीवन प्रबंधन गुरु)

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Sri Maheshwari Times

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