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बचपन से ही दें संस्कारों की घुट्टी

बच्चों की स्थिति पौधों से भी नाज़ुक है। यदि हम भविष्य में अच्छे फल चाहते हैं, तो न सिर्फ बच्चों की अच्छी देखभाल बचपन से ही करनी पड़ेगी, बल्कि उन्हें संस्कारों की घुट्टी भी देना पड़ेगी। अन्यथा यही उक्ति चरितार्थ होगी “बोया पेड़ बबूल का, आम कहाँ से होय”

‘बालसंगोपन’ याने बच्चों को खाना खिलाना, उनके कपड़े बदलना, उनकी बीमार अवस्था पहचानकर उन्हें डॉक्टर के पास ले जाना, उनका ध्यान रखना कि उन्हें बुरी आदतें न लगे, उनको अच्छे से अच्छे स्कूल में शिक्षा मुहैया कराना वगैरा-वगैरा। पर वास्तव में इतना संकुचित या सीमित अर्थ ‘संगोपन’ का नहीं कर सकते।

बाल संगोपन में उन्हें स्वस्थ, सुविचारी, सुंसंकृत, संस्कारी एवं सुखी बनाना यह भी शामिल है। हम बच्चों का संगोपन अच्छे से करेंगे, तो समाज व राष्ट्र के हित में यह अच्छी बात है। बच्चे हमारे देश का भविष्य हैं। समाज व राष्ट्र नाम के भवन की नींव ही ये हमारे बच्चे हैं।

यदि इस भवन का निर्माण करते वक़्त नींव ही कच्ची हो तो भवन पक्का नहीं बनेगा और पूर्ण होते ही-बड़ा होते ही वह ढह जाएगा।


बचपन से ही पढ़ाएं संस्कार का पाठ

हमें बच्चों को बचपन से ही अच्छे संस्कार देने चाहिये। इस विषय का एक घटना से विवरण करते हैं:

बम्बई के एक बड़े पुलिस अफसर अपनी पत्नी के साथ रहते हैं। उनका एक बेटा है जो 20 साल का है। बेटे के बुरी आदतों का शिकार होने के कारण अफसर की पत्नी अपनी नौकरी छोड़कर बेटे के साथ समय बिताती है और उसका ध्यान रखती है।

फिर भी बेटे की बुरी आदतें बढ़ती ही जा रही थी, तो एक दोनों पति-पत्नी उसे समझाने बैठे। बेटा तपाक से बोला- माँ, आज आप मुझे समझा रही हैं, मेरे लिए आपने नौकरी भी छोड़ दी, क्योंकि आप मेरा ध्यान रखेंगी, मुझे संस्कार देंगी, पर अब वक़्त निकल चुका है।

जिस वक़्त तथा जिस उम्र में आपको मुझे यह सब सिखाना व बताना था, तब आपके पास वक़्त नहीं था। तब आप अपने नौकरी व काम में व्यस्त थीं। उस समय मुझे आपके साथ की ज्यादा ज़रूरत थी।


माता-पिता भी हुए भ्रमित

आज जिधर भी नजर डालते हैं तो यही स्थिति स्वयं दिखाई पड़ रही है। यह विषय बिलकुल सामान्य समझा जाता है। स्वयं स्त्री ही बाल संगोपन को एक सामान्य और गौण विषय समझ रही हैं। पढ़ी-लिखी होने के बावजूद वह अपने आप को नौकरी, मंडल किटी पार्टीज, फिल्म एवं टीवी इन सब में व्यस्त रखती हैं।

संस्कारों की घुट्टी

अपनी व्यस्तता के कारण खाना बनाना वह रोटी वाली को और बच्चा संभालना आया को सौंपती है। इसी कारण बच्चों को न तो ममता भरा खाना मिलता है और न ही उसका प्यार। ऐसी स्थिति में बच्चे के मानसिक एवं शारीरिक दोनों विकास अच्छे से नहीं हो पाते। संयुक्त कुटुंब पद्धति अब लुप्त हो गयी है। इसमें पहले दादा, दादी और अन्य सदस्य चाचा, चाची, बुआ, ताई-ताऊजी आदि सब साथ में रहते थे।

उस वक़्त बच्चा बड़ों का अनुकरण, करके उनसे कहानी के रूप में पूर्ण घटनाक्रम एक सीख के रूप में बच्चा सुनता था तो उसे अपने आप संस्कार प्राप्त हो जाते थे। बच्चा सबका ममता भरा व्यवहार पाकर और अच्छी देखभाल पाकर ही स्वस्थ व प्रसन्न रहता था।


अर्थ प्रधान प्रवृत्ति बनीं बाधक

आज पैसा ही सर्वस्व है, यह वृत्ति बढ़ रही है। वास्तविकता देखें तो आज की जिंदगी में पैसे की अहम भूमिका है, पर उसे एक सीमा तक होना चाहिए। पैसा कमाने का मार्ग भी सही होना चाहिए। पैसे के लिये मची इस हड़बड़ी में हम अपनी प्राथमिक जिम्मेदारी यानी बच्चों का संगोपन इस विषय को पूर्ण रूप से दुर्लक्ष कर रहे हैं।

संस्कारों की घुट्टी

चाहे पैसा कमाकर आपने बहुत बड़ी धनराशि जमा कर ली है, लेकिन उससे आपको आत्मिक समाधान या सुख उतना नहीं मिलेगा जितना आपके संस्कारित बच्चे, समाज और देश को देने के बाद मिलेगा।

आपने भले ही बैंक में बहुत जमापूंजी इक्कठा कर रखी हो, पर असल में आपके सुसंस्कारित बच्चे ही आपकी जिंदगी की सबसे बड़ी जमापूंजी है। यदि हमको अपने बच्चों को सुविचारी, सुसंस्कृत व सक्षम बनाना है तो पहले अपने आपको बदलना होगा।


Via
Sri Maheshwari Times

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