प्रयागराज में आस्था का मेला- कुम्भ महापर्व 2025
विश्व के सबसे बड़े आयोजन कुम्भ महापर्व का आयोजन अधिकारिक रूप से आगामी 13 जनवरी 2025 से 26 फरवरी 2025 तक होगा। इस महाकुम्भ में सनातन संस्कृति के समस्त अखाड़ों के साधु-सन्यासी तो एकत्र होंगे ही साथ ही विश्व भर से श्रद्धालुओं का आगमन भी होगा। आईये देखें इसमें कब क्या होगा और क्या है इसका महत्व?
बारह वर्ष के अन्तराल से आने वाला कुम्भ पर्व धार्मिक आस्था का केंद्र बनता है। कुम्भ की यह विशेषता है कि इसमें बिना बुलाए, बिना किसी आमंत्रण और प्रचार-प्रसार के करोड़ों की संख्या में श्रद्धालु एकत्रित होकर आस्था की डुबकी लगाते हैं। यहॉं पर उन संत महात्माओं के दर्शन होते हैं जिनके अन्यत्र दर्शन दुर्लभ हैं। शाही सवारी के दौरान उड़ने वाली संतों की चरण रज के स्पर्श से भक्तों का जीवन धन्य हो जाता है। कुम्भ के दौरान दशनामी अखाड़ों की छटा और नागा साधुओं का सम्मेलन देखते ही बनता है।

शिवभक्त नागा साधुओं के 17 श्रृंगार होते हैं, जिनमें भभूत मलना सत्रहवां श्रृंगार है। केश, रुद्राक्ष की माला और शस्त्र धारण करना इनके लिए आवश्यक है। वर्षों की कठिन तपस्या में खरे उतरने पर कुम्भ के दौरान अखाड़े नागा साधु को दीक्षा देते हैं और उन्हें राजेश्वर की उपाधि दी जाती है। दीक्षा से पूर्व अपना पिंडदान नागा स्वयं करते हैं। नागा साधु आजीवन धर्म रक्षा की दीक्षा लेता है। ऐसा माना जाता है कि नागा के तौर पर उनको राजयोग मिलता है। इनका अंतिम लक्ष्य सांसारिक मोह-माया को छोड़कर मोक्ष प्राप्ति होता है। कुम्भ में ऐसे धर्म रक्षक नागाओं के दर्शन मात्र से श्रद्धालु अपने जीवन को धन्य मानते हैं।
आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित अखाड़े
अखाड़ों की परम्परा आदिगुरू शंकराचार्य ने विभिन्न सम्प्रदायों में बंटे साधु समाज को संगठित करने के लिए की थी। शंकराचार्य ने पश्चिम में द्वारिका पीठ, पूर्व में गोवर्धन पीठ, उत्तर में ज्योतिर्मठ और दक्षिण में शारदा पीठ की स्थापना की और देशभर के संन्यासियों को दस पद नाम देकर संगठित किया। यही दशनामी सन्यासी कहलाये। ये दस नाम हैं- तीर्थ, आश्रम, वन, अरण्य, गिरि, पर्वत, सागर, सरस्वती, भारती और पुरी।
शंकराचार्य ने इन सन्यासियों को देशभर में चारों पीठों से जोड़ा। इन्ही संन्यासियों का एक हिस्सा नागा हो गया। उसने आकाश को अपना वस्त्र मानकर शरीर पर भभूत मला और दिगम्बर स्वरूप में रहने लगे। कालांतर में संन्यासियों के अलग-अलग समूह बने जिन्हें अखाड़ा कहा गया। वर्तमान में 6 नागा अखाड़े हैं। आवाहन, अटल, महानिर्वाणी, आनंद, जूना और ब्रह्यचारियों का अग्नि अखाड़ा। ये सभी शैव मत के हैं।
बाद में वैष्णव मत के तीन- दिगम्बर, श्रीनिर्माेही, और श्रीनिर्वाणी अखाड़े बने। इसी प्रकार गुरु नानकदेव के पुत्र श्रीचन्द्र द्वारा स्थापित उदासीन सम्प्रदाय के भी दो अखाड़े- श्रीपंचायती बड़ा उदासीन अखाड़ा एवं श्रीपंचायती नया उदासीन अखाड़ा नाम से सक्रिय हैं। पिछली शताब्दी में सिक्ख साधुओं के निर्मल सम्प्रदाय के अधीन श्रीपंचायती निर्मल अखाड़ा भी अस्तित्व में आया। दशनामियों में कुछ गृहस्थ भी होते हैं जिन्हे ‘‘गोसाई’’ कहते हैं।
धर्मरक्षा सभी का प्रमुख उद्देश्य
कुम्भ स्नान के लिए श्रीपंचायती निरंजनी अखाड़ा, श्रीपंचायती आनंद अखाड़ा, श्रीपंचायती दशनाम जूना अखाड़ा, श्रीपंचायती आवाहन अखाड़ा, श्रीपंचायती अग्नि अखाड़ा, श्रीपंचायती महानिर्वाणी अखाड़ा, श्रीपंचायती अटल अखाड़ा और अन्य सभी अखाड़े वर्षों से भाग ले रहे हैं, जो कुम्भ के दौरान आकर्षण का केंद्र बनते हैं। दशनामी सन्यासियों का उद्देश्य धर्म प्रचार के अतिरिक्त धर्म रक्षा का भी रहा है।

‘‘जूना अखाड़ा’’ (काशी) के इष्टदेव कालभैरव अथवा कभी-कभी दत्तात्रेय भी समझे जाते हैं और ‘‘आवाहन’’ जैसे एकाध अन्य अखाड़े भी उसी से संबंधित हैं। इसी प्रकार ‘‘निरंजनी अखाड़ा’’ (प्रयाग) के इष्टदेव कार्तिकेय प्रसिद्ध हैं और इनकी भी ‘‘आनंद’’ जैसी कई शाखाएं पाई जाती हैं।
‘‘महानिर्वाणी अखाड़ा’’ (झारखण्ड़) के इष्टदेव कपिल मुनि हैं, इनके साथ ‘‘अटल’’ जैसे एकाध अन्य अखाड़ों का भी संबंध है। कुम्भ के अवसर पर ये सभी अखाड़े आपस में मिलते हैं और लोकतांत्रिक पद्धति से अपने पदाधिकारियों का चुनाव करते हैं। इनके प्रमुख महंत को ‘महामंडलेश्वर’ और ‘मंडलेश्वर’ के नाम से जाना जाता है, जिनके नेतृत्व में ये विशिष्ट धार्मिक पर्वों के समय एक साथ स्नान करते हैं। अखाड़ों के बीच तमाम विवादों को समाप्त करने के लिए सन् 1954 में अखाड़ा परिषद् का गठन हुआ जिसकी व्यवस्थाओं को अब सभी अखाड़े मान्यता देते हैं।
पौराणिक व ज्योतिषिय आधार
कुम्भ महापर्व का आध्यात्मिक माहात्म्य: समुद्र मंथन से प्राप्त अमृत कलश को देवताओं की अनुमति से इन्द्रपुत्र जयंत राक्षसों से दूर लेकर भागा तो राक्षसों और देवताओं के मध्य अमृत प्राप्ति के लिए बारह वर्ष तक घमासान युद्ध हुआ। युद्ध के दौरान छीना झपटी में जयंत के हाथों से अमृत कुम्भ से छलकी बूंदें हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक में गिरीं इसलिए इन स्थानों पर कुम्भ और सिंहस्थ महापर्व होता है।
ज्योतिषीय आधार: युद्ध के दौरान अमृत कलश की रक्षा करने में सूर्य, चन्द्रमा और गुरू ने विशेष योगदान किया था। इस अमृत कलश को देवासुर संग्राम के दिनों में सूर्य ने फूटने से बचाया, गुरू (बृहस्पति) ने इसकी देखभाल की और चन्द्रमा ने राक्षसों को इससे वंचित रखने का काम किया। यही कारण है कि इन तीनों की विशेष राशियों में स्थिति के समय चार स्थलों पर कुम्भ पर्व मनाए जाते हैं।
ज्योतिषीय गणना से कुम्भ पर्व: सूर्य, चन्द्रमा और गुरू द्वारा विशेष योग के निर्मित होने पर कुम्भ पर्व निम्न चार स्थानों पर आयोजित होता है:-
प्रयाग-माघ मास की मौनी अमावस्या को मकर राशि में सूर्य-चन्द्र तथा वृष राशि में बृहस्पति हो तो त्रिवेणी के तट पर प्रयागराज में।
हरिद्वार- कुम्भ राशि में बृहस्पति तथा मेष राशि में (उच्चगत) सूर्य हो, तो गंगा के तट पर।
नासिक- सिंह राशि के बृहस्पति तथा सिंह राशि में ही सूर्य हो, तो गोदावरी के तट पर।
उज्जैन– सिंह राषि के बृहस्पति तथा मेष राशि में (उच्चगत) सूर्य हो तो शिप्रा के तट पर सिंहस्थ पर्व।