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सदैव व्यापार व वाणिज्य के केंद्र रहे माहेश्वरी

वास्तव में माहेश्वरी क्या हैं? माहेश्वरी समाज का महत्व क्या है? यह जानने के लिये इतिहास के स्वर्णिम पन्नों को पलटना होगा। इतिहास के इसी आईने में माहेश्वरी समाज का महत्व बता रहे हैं, महेश बैंक के चेयरमेन व समाज चिंतक रमेश कुमार बंग।

देश भर में माहेश्वरी समाज द्वारा ज्येष्ठ शुक्ल नवमी को अपना जात्योत्पत्ति पर्व ‘श्री महेश नवमी’ उत्साह एवं श्रद्धापूर्वक मनाया जाता है। माहेश्वरी समाज के उत्पत्ति सिद्धांतानुसार ऋषियों के श्राप से ग्रस्त 72 क्षत्रिय उमरावों को इसी दिन भगवान महेश ने श्राप मुक्त किया और उन्हें क्षत्रिय धर्म त्याग कर वैश्य धर्म अंगीकार करने का आदेश दिया। इन 72 उमरावों की सन्तति भगवान महेश के नाम पर माहेश्वरी कहलायी।

माहेश्वरी जाति की उत्पत्ति कब हुई यह ठीक-ठीक बता पाना संभव नहीं है क्योंकि हमारे देश में प्राचीन काल से प्रामाणिक इतिहास लेखन की प्रवृत्ति का नितांत अभाव रहा है। जो भी इतिहास लिखा गया वह केवल पथ-प्रदर्शन के उद्देश्य से ही लिखा गया। ऐसे में जातीय उत्पत्ति के सिद्धांत और काल-खंड की साक्ष्य सहित सटीक उद्घोषणा कर पाना किसी के लिए भी संभव नहीं है लेकिन इतना सत्य है कि देश में विभिन्न जातियों की उत्पत्ति परवर्ती वैदिक काल में हुई। राष्ट्रीय आवश्यकतानुसार समय-समय पर चतुष्वर्ण से ही विभिन्न जातियों का उद्भव हुआ और माहेश्वरी जाति भी उन्हीं में से एक है।

यहाँ एक बात ध्यान देने योग्य है कि माहेश्वरी जाति की उत्पत्ति उस काल खंड में हुई जब विश्व धार्मिक संक्रमण और उन्माद के दौर से गुज़र रहा था, जिसमें व्यापार करना अत्यंत साहसिक कार्य था। ऐसे में भगवान महेश की प्रेरणा से साहसी क्षत्रियों ने वैश्य धर्म अंगीकार कर नष्टप्राय व्यापार और वाणिज्य को गति प्रदान करने का प्रयास किया और सफलता के नवीन कीर्तिमान स्थापित किये। मध्ययुगीन राजपुताना की शायद ही ऐसी कोई रियासत रही होगी जिसके आर्थिक केन्द्र में माहेश्वरी न रहे हों।


विदेशी सत्ता के दौरान भी प्रभाव

मुग़लों के पराभव और अंग्रेज, फ़्रांसिसी, पुर्तगालियों के देश में बढ़ते वर्चस्व के समय माहेश्वरी व्यापारियों ने अपनी दूरदृष्टि का परिचय देते हुए देश के विभिन्न स्थानों पर अनेक कष्टों को सहन करते हुए अपने व्यापारिक केन्द्र स्थापित करना प्रारंभ कर दिये। आज माहेश्वरी जाति न्यूनाधिक मात्रा में देश के लगभग प्रत्येक भाग में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही है। देश में माहेश्वरी समाज का जनसंख्या के अनुपात से प्रभाव कहीं अधिक है। इस पर माहेश्वरी समाज गर्व कर सकता है।

माहेश्वरी समाज की सबसे बड़ी समस्या भी इस दौरान उभरकर सामने आयी, वह थी सामाजिक एकता की समस्या। इसका सबसे प्रमुख कारण माहेश्वरी समाज का इतर समाजों की भाँति एक ही स्थान पर केंद्रित न होना था। 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में जब देश धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक पुनर्जागरण के दौर से गुज़र रहा था, विभिन्न जातीय समाज अपनी एकता को सुनिश्चित करने के लिए प्रयत्नशील थे, माहेश्वरी समाज ने भी सामाजिक एकता के लिए प्रयास प्रारंभ किये।

फलस्वरूप देश के विभिन्न भागों में माहेश्वरी महापंचायत अस्तित्व में आयी, जिन्होंने सामाजिक एकता के साथ सामाजिक कुरीतियों के उन्मूलन का शंखनाद किया। परिणाम स्वरूप मध्ययुगीन सामाजिक कुरीतियों का उन्मुलन हुआ और समाज संगठन के रास्ते पर चल पड़ा। वर्तमान में अखिल भारतवर्षीय माहेश्वरी महासभा इन्ही महापंचायतों का संगठित रूप है।


एकता का पर्व भी है महेश नवमी

माहेश्वरी समाज को संगठित करने में ‘श्री महेश नवमी पर्व’ का सर्वाधिक योगदान है। साफ़ शब्दों में कहा जाए तो यह पर्व माहेश्वरी समाज का वह जीवन रसायन है जिसने माहेश्वरी शब्द को अमरत्व प्रदान किया है। यह पर्व माहेश्वरी समाज के जातीय स्वाभिमान, अदम्य साहस, कार्यकुशलता, राष्ट्रनिष्ठा, संघर्षशीलता और गौरवमयी इतिहास का प्रतीक है। भगवान शिव को आराध्य मानने वाला यह समाज त्याग, समर्पण, सदाचार, उच्च मानवीय मूल्यों, परस्पर सद्भाव और जनकल्याण की भावना रखने वाले समाज के रूप में जाना जाता है।

भगवान शिव का सम्पूर्ण मानवीयता का भाव इस समाज की शिराओं में रक्त बन कर प्रवाहित होता है। महेश नवमी पर्व एक ओर जहाँ सम्पूर्ण समाज को एकता के सूत्र में पिरो देता है, वहीं दूसरी ओर समाज को आत्म-मंथन करने का अवसर भी प्रदान करता है। यही वह पर्व है जब प्रत्येक माहेश्वरीजन समाज, देश और विश्व को दिये गये अपने अवदानों का पवित्र भाव से मूल्यांकन करता है और अपने भावी योगदान का संकल्प लेता है। इस पर्व का ही प्रभाव है कि यह समाज अर्थ का सही उपयोग करने में अपना सानी नहीं रखता।


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