आखिर हम क्यों दूर हो रहे हैं अपनी “मारवाड़ी बोली” से?
कहने के लिए तो मारवाड़ी बोली राजस्थान के मारवाड़ क्षेत्र की एक मात्र बोली है, लेकिन माहेश्वरी समाज के लिए यह मात्र एक बोली नहीं, बल्कि समाज की पहचान है। व्यवसायिक क्षेत्र में पंक्ति “एक मारवाड़ी सौ पर भरी” अत्यंत प्रसिद्ध है, फिर भी देखने में आ रहा है कि हमारी नयी पीढ़ी अपनी इस पहचान अपनी मारवाड़ी बोली से दूर होती जा रही है। आखिर क्यों बन रही है, यह स्थिति? इसके लिए कौन किंतने जिम्मेदार है, हम स्वयं, युवा पीढ़ी या हमारे समाज संगठन? समाजहित के इस अति महत्वपूर्ण विषय पर आपके विचार तथा सुझाव दोनों ही आमंत्रित है। आपके विचार समाज की लुप्त होती पहचान को संवारने में अहम भूमिका निभाऐंगे। आईये जानें, इस स्तम्भ की प्रभारी मालेगांव निवासी सुमिता मूंदड़ा से उनके तथा समाज के प्रभुद्धजनों के विचार। मारवाड़ी बोली
परिस्थितियां ही इसका कारण
-सुमिता मूंधड़ा, मालेगांव
कोई भी मनुष्य जानबूझकर कभी नहीं चाहेगा कि उसकी अपनी मातृभाषा से उसकी दूरी हो पर परिस्थितियों से विवश होकर उसे अपनी भाषा को धीरे-धीरे अलविदा कहना पड़ता है । घर से बाहर निकलते ही विशेषकर परदेश में हर कदम उसका सामना हिंदी भाषा या स्थानीय भाषा से होता है ; सब्जीमंडी हो या मॉल , दफ्तर हो या विद्यालय , दोस्तों की मंडली हो या पड़ोसी हर कोई हिंदी/स्थानीय भाषा में वार्तालाप करते हैं जिससे मारवाड़ी होते हुए भी उसे मारवाड़ी को बस्ते में रख देना पड़ता है । बस यहीं मारवाड़ी थोड़ा चूक जाता है कि बाहर नहीं तो कम से कम अपने घर-परिवार और बच्चों के साथ तो मारवाड़ी भाषा में बात करे । जब हम स्वयं अपनी भाषा का सम्मान करना भूल जाते हैं और उसको बोलने में शर्मिंदगी महसूस करते हैं तो अन्य गैर मारवाड़ी भाषी हमारी भाषा को ओछी समझेंगे ही ना ?
अपनी मातृभाषा का सम्मान हमें अपने घर से करना आरंभ करना होगा । देखा गया है कि घर के मारवाड़ी भाषी बड़े-बुजुर्ग शुद्ध हिंदी ना आते हुए भी अपने पोते-पोतियों के साथ हिंदी बोलने की कोशिश करते हैं और सीखते भी हैं ; हकीकत में होना तो यह चाहिए कि घर के बड़े-बुजुर्ग बच्चों के साथ मात्र मारवाड़ी ही बोले इससे बच्चे भी मारवाड़ी सीखने की कोशिश तो करेंगे । यही नहीं मारवाड़ी भाषा प्रचार-प्रसार के लिए समाज के कार्यक्रमों को मारवाड़ी भाषा में ही रखना चाहिए । अपनी मारवाड़ी भाषा में जो मिठास घुली होती है और जो सम्मानजनक शब्द होते हैं वह अन्य किसी भी भाषा में नहीं है ।
अपनी ‘मारवाड़ी’ पर ही हमें गर्व नहीं
-पूजा नबीरा काटोल, नागपुर
किसी भी संस्कृति की पहचान उसकी बोली और भाषा से होती है… इसमें उसकी सहज मिठास और स्नेह झलकता है। अपनत्व और धरोहर की खुशबू से सराबोर मारवाड़ी भाषा हमारी पहचान ही नहीं बल्कि हमारे पूर्वजों की वो पूंजी है जिसकी सुगंध को अगली पीढ़ी तक पहुँचाना हमारा कर्तव्य है शिक्षा के बदलते स्वरूप ने हमारी इस मिठास की भाषा को लुप्त प्रायः कर दिया आज घर में भी छोटे बच्चों से अंग्रेजी में ही संवाद किए जाते हैं। मारवाड़ी बोलना पिछड़ेपन की निशानी समझी जाती है किन्तु हमारी पहचान से विलग होकर हमारी नई पीढ़ी आज खुद की जड़ों से कटती चली जा रही है। यदि आज हम इसे महत्व नहीं देंगे, तो आने वाली पीढ़ी इसे कभी नहीं समझेगी जिस तरह हमें अपने रीति रिवाज एवं अपने पहनावे पर गर्व है वैसे ही हमें अपनी मारवाड़ी भाषा को भी सार्वजनिक रूप से प्रयोग में नहीं हिचकिचाना चाहिए। भाषा का संरक्षण तभी हो सकेगा, जब घर में इसे प्रयोग किया जाए और इसकी मधुरता को कायम रख इसकी सुगंध को बरकरार रखा जाए। हिंदी की जगह मारवाड़ी में ही संवाद किया जाए जिससे हम अपनी संस्कृति से जुड़े रह सकेंगे। इस गौरवशाली समाज को अलग पहचान देने बाली इस भाषा को भी सम्मान दिला सकेंगे। इससे आने वाली पीढ़ी गर्व से इसे बोल और समझ सकेगी और अपनी पहचान पर गर्व कर सकेंगे।
माता-पिता ही दोषी
-भगवती शिवप्रसाद बिहानी, नाजिरा, आसाम
माहेश्वरी समाज व मारवाड़ी बोली का गहन रिश्ता है। आज हमारी भाषा समाज व परिवार व दोनों से ही लुप्त हो रही है। इसमें मेरे विचार से तो माता-पिता ही पूर्णतया दोषी हैं, क्योंकि आज के माता-पिता किसी घर आए अतिथि, या फिर हम कहीं बच्चे को लेकर जाए। हमारा बच्चा मारवाड़ी में किसी से बात कर लेता है, तो मां-बाप का चेहरा देखने लायक हो जाता है, अपने आप में शर्मिंदगी महसूस करते हैं। घर आने पर बच्चे की तो खैर नहीं होती है। पति-पत्नी एक-दूसरे को दोषी ठहराते हैं कि तुम्हारे कारण आज हमारा बच्चा हंसी का पात्र बना है। वो यह नहीं सोचते की अपनी भाषा बोलने में बुराई ही क्या है। हम अलग-अलग प्रांतों में रहते सबकी भाषा अपना लेते हैं पर अपनी भाषा के प्रति ऐसे विचार क्यों। आने वाली पीढ़ी और हम सब अपनी भाषा को अहमियत दें और हम सब के दिमाग में यही घर कर जाए कि माहेश्वरियों की आन, बान, शान व पहचान अपनी भाषा से ही है।
सामाजिक आयोजनों में भी महत्व नहीं
-सतीश लखोटिया, नागपुर
हमारे पूर्वज से लेकर 19वीं एवं 20वीं सदी तक हम हमारे घरों में यही बोली बोलकर अपनी परपंरा अपनी संस्कृति को जीवित रखकर मदमस्त होकर जी रहे थे। अचानक ही हमारे घरों में आहिस्ते से दस्तक दी, उच्च शिक्षा, एकल परिवार की सोच ने। शिक्षा पाना वाकई में बेहतरीन उम्दा काम है। उसके चलते घर-आंगन छोड़कर अपने आप में बदलाव लाने के साथ, हमारी बोली को न बोलना, घर में बुजुर्ग मारवाड़ी में बोलेतो हिंदी में जबाव देना, एकल परिवार में ही अपनी खुशियां ढूंढना, दादा-दादी के पास न बैठकर, टीवी पर आनेवाले आधुनिक दादा-दादी से सम्मोहित होना निश्चित रूप से हमारी अपनी बोली से दूर होने के कारण हैं। कई घरों में मारवाड़ी भाषा यानी क्या, यह भी एक यच्छ प्रश्न है? उसका एक कारण अंतरजातीय विवाह भी है, इसे हम नकार नहीं सकते। यदि सच कहूं तो मेरी दादी, बड़ी मां, मां के गोलोक जाने के पश्चात यदा-कदा मैं स्वयं ही मारवाड़ी का प्रयोग करता हूं तो बच्चे कहां से सीखेंगे। कहां से बोलेंगे, इसका हल मेरी सोच के हिसाब से एक ही है। समाज के नेता या सेवक भी मंचों पर मारवाड़ी में बात करें। अधिवेशन,परिचय सम्मेलन के साथ मंच संचालन भी मारवाड़ी में यदि करेंगे। तो यह बोली प्रभावशाली रूप से हर सदस्य तक पहुंचने में कारगार सिद्ध होंगी।
नया सिखने में पीछे छूटे मारवाड़ी
-सुनीता मल, गोंदिया (भंडारा)
यह बिल्कुल सही है, हम अपनी बोली मारवाड़ी से बहुत दूर होते जा रहे हैं। इसका कारण है कि हम जहां जाते हैं उस प्रदेश में दूध में शक्कर की तरह घुल जाते हैं। वहां का व्यवहार रहन-सहन और बोली सीखते-सीखते हम कब अपनी भाषा को भूल जाते हैं इस ओर हमारा ध्यान ही नहीं जाता। हिंदी भाषी प्रदेशों में तो मारवाड़ी पूर्णतः विलुप्त हो गई है। बाहर अन्य भाषा का प्रयोग हो यह तो ठीक है जब घर में अन्य भाषा का प्रयोग शुरू हो जाता है तो बच्चे मारवाड़ी नहीं सीख पाते। इस कारण फरवरी मारवाड़ी का प्रयोग बंद हो जाता है। यदि घर में एक बहू भी अन्य भाषा आती है तो धीरे-धीरे उस परिवार से भी मारवाड़ी विलुप्त हो जाती है। ऐसे उदाहरण राजस्थान में भी देखे गए हैं। यह सब सामाजिक उन्नति के लिए बहुत घातक है। बोली मनुष्य के व्यक्तित्व का परिचायक होती है। उस प्रदेश के गुणों को दर्शाती है, इसीलिए ‘एक मारवाड़ी सब पर भारी’ कहा जाता था पर अब हम जो कि अपनी भाषा से दूर हो गए हैं, तो हमारा रुतबा अंशाधिक ही सही कम हो गया है।
हमें ही अपनी भाषा पर गर्व नहीं
-अनीता ईश्वरदयाल मंत्री, अमरावती
समाज की भाषा उस अंचल की रीढ़ होती है। भाषा सिर्फ अभिव्यक्ति का साधन ही नहीं होती बल्कि उसमें इतिहास और मानव विकास क्रम के कई रहस्य छिपे होते हैं। मारवाड़ी भाषा में संस्कृति ही सर्वस्व है। इंसान की पहचान पहले कपड़े से होती थी, लेकिन आज के समय में सबका पहनावा एक से होने से आदमी की पहचान सिर्फ भाषा से ही होती है। वर्तमान समय में माता-पिता अपने बच्चों को बचपन से अपनी मारवाड़ी भाषा में बात करना नहीं सिखाती। उन्हें अपनी भाषा में बात करना अपने आप को मूर्ख साबित करने जैसा लगता है। आज के माता-पिता बच्चों को सिर्फऔर सिर्फ पढ़ाई करने को कहते हैं। उन्हें रीति-रिवाजों का मतलब बताती नहीं बताते। केवल अपने लिए ही जीना मानव जीवन का निकृष्टतम दुरुपयोग है। मानव जीवन मिला है, अच्छे कर्मों का फलस्वरूप, भगवान ने माहेश्वरी समाज में पैदा किया इसलिए अपनी किस्मत पर गर्व करें। अपनी समाज की पहचान चिरकाल रहेगी, हम नहीं। भाषा के नष्ट होने के साथ ही संस्कृति, तकनीक और उसमे अर्जित बेशकीमती परंपरागत ज्ञान भी तहस-नहस हो जाता है।
कहीं नहीं सिखाई जाती यह भाषा
-डॉ. सूरज माहेश्वरी, जोधपुर
पहले घर-घर में मारवाड़ी बोली जाती थी। परंतु अब घरों में भी मारवाड़ी बोली का प्रयोग कम होता जा रहा है। किसी ने घर में, स्कूल में सिखाया नहीं तो युवा पीढ़ी क्या करेगी? आजके जमाने के साथ चलने के लिये अंग्रेजी या हिंग्लिश का सहारा लेना पड़ता है। व्हाट्सप, फेसबुक, सोशल मीडिया पर मारवाड़ी को भूलकर अंग्रेजी में लिखना ज्यादा सुविधाजनक लगने लगता है। परिवर्तन के नियम में हम बहते जा रहे हैं। मारवाड़ी बोली की उपेक्षा होती जा रही है। परंतु पंछी आकाश में कितनी भी ऊंची उड़ान भर लें, लौटकर उसे अपने घर आना ही पड़ता है। इसलिए जरूरी है, पाठ्यक्रम में, व्यवहार में, चर्चा में, शुभेच्छा में, मारवाड़ी बोली जाए। ‘पोषक वातावरण’ हमें ही बनाना है ताकि अन्य भाषाओं को आत्मसात करते हुए हम अमृत से भी मीठी मारवाड़ी बोली से जुड़े रहें। इससे भाषा के प्रति मोह और सम्मान आजीवन बना रहेगा।
आधुनिकता की होड़ में परंपराओं और रिवाजों से दूरी
-शालिनी चितलांग्या, राजनांदगांव
‘माहेश्वरी हैं हम’ हमें गौरवान्वित करने वाला कथन है। ऐसा इसीलिए है कि हमारे रीति-रिवाज, रहन-सहन, भोजन, पहनावा और उससे भी ऊपरी हमारी मीठी मारवाड़ी बोली, जब इन सबका समावेश होता है तो ‘हम मारवाड़ी’ भीड़ में अपनी अलग पहचान के लिए जाने जाते हैं। किन्तु आज जहां मातृभाषा तक को परे कर लोग अंग्रेजी भाषा एवं पाश्चात्य संस्कृति की ओर भाग रहे हैं, वहां हमारी क्षेत्रीय बोली की धरोहर कौन संभालेगा? जी हां, ये दायित्व है हमारी नई युवा पीढ़ी और हमारे घर के बड़ों के बीच के तालमेल का। हमारे त्योहारों की मधुर मीठी कहानियां जब मारवाड़ी में हमारे घर के बड़े बच्चों के सामने बोलते हैं तो वो एक पल ही सही पर हमारी मजबूत नींव को दर्शाता है। मारवाड़ी बोली का आकर्षण ही ऐसा है कि यदि उसे घर के बच्चों के सामने बोला जाए और बच्चों से भी बुलवाया जाए, तो उन्हें खुद ही मारवाड़ी बोली का आकर्षण महसूस होगा। घर के बड़ों को आवश्यक है कि वो युवा पीढ़ी को बचपन से ही मारवाड़ी बाली सीखाएं, मारवाड़ी में बात करें और उनसे करवाएं। इस तरह अगर मारवाड़ी बोली आम बोलचाल की भाषा में आ गई तो हमें कभी-भी अपनी पहचान से दूर नहीं होना पड़ेगा।