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बच्चों पर जिम्मेदारियों का बोझ डालना उचित अथवा अनुचित?

आज से दो से तीन दशक पूर्व बच्चों के किशोरावस्था में प्रवेश करने के पूर्व ही दूरदर्शी माता-पिता अपने बच्चों पर जिम्मेदारियों का बोझ डाल देते थे। एक सोच है कि इसके फलस्वरूप युवावस्था तक आते-आते बच्चों की सोच और समझदारी में परिपक्वता झलकने लगती थी। पर आजकल हम अपने लाडलों के ऊपर उनकी आधी उमर बीत जाने पर भी जिम्मेदारी का बोझ डालना नहीं चाहते। इससे उनका मानसिक विकास सीमित हो जाता है। युवा होते बच्चों के ऊपर आवश्यकता से अधिक छत्रछाया उनको जिम्मेदारियों के प्रति अपाहिज बना देती है, जिसका खामियाजा उनके ही बच्चों को आजीवन भुगतना पड़ता है। यह बात आज किसी से भी छुपी हुई नहीं है।

आधुनिक दौर में यह विचारणीय हो गया है कि बच्चों को वय के हिसाब से जिम्मेदार बनाने के लिए उनपर जिम्मेदारियों को डालना उचित है अथवा अनुचित? आइये जानें इस स्तम्भ की प्रभारी सुमिता मूंदड़ा से उनके तथा समाज के प्रबुद्धजनों के विचार।


सर्वगुणसम्पन्न होने के लिए जिम्मेदार होना आवश्यक
सुमिता मूंधड़ा, मालेगांव

sumita mundra

आजकल माता-पिता अपने बच्चों को बहु-प्रतिभावान बनाने के लिए बचपन से ही उनपर अपनी आकांक्षाओं का बोझ डाल देते हैं और उसे पूरा करने में बच्चों के साथ स्वयं भी जी-जान से लग जाते हैं परन्तु उन पर वास्तविक जीवन की जिम्मेदारियों का बोझ नहीं डालना चाहते। इससे आज के बच्चे विभिन्न प्रतिस्पर्धाओं में तो अव्वल रहते हैं पर जीवन के व्यवहारिक ज्ञान में शून्य और सैद्धान्तिक ज्ञान के लिए गूगल पर निर्भरशील रहते हैं। जिससे वास्तविक जीवन में हमारे बच्चों को यदा-कदा धक्के खाना भी पड़ जाता है।

वास्तविक जीवन में व्यवहारिक ज्ञान की आवश्यकता होती है जो कि व्यक्तिगत अनुभव से और व्यक्तिगत अनुभव जिम्मेदारी निभाने से ही प्राप्त होता है। आजकल बच्चों को जीवन में व्यवहारिक ज्ञान को प्राप्त करने का समय ही नहीं होता है जिससे वो जीवन की हर छोटी से छोटी समस्या में भी घबरा जाते हैं। जब तक बड़ों का साया उनके ऊपर रहता है उनकी यह कमी स्वयं उनको भी नजर नहीं आती पर जब कोई विकट परिस्थिति आ जाती है तो हमारे परिपक्व बच्चे बगले झांकने लगते हैं। उनमें परिस्थितिनुसार निर्णय लेने की क्षमता और दृढ़ता का अभाव होता है।

हमारे बच्चे सर्वगुणसम्पन्न तभी बनेगें जब वो वास्तविक जीवन की भी हर जिम्मेदारी को बेहिचक निभा पायेंगे। अपने बच्चों की ढाल बनकर हम उन्हें अपाहिज बना रहे हैं जिससे उनके आने वाले जीवन में परेशानियां बढ़ सकती है। सभी माता-पिता को चाहिए कि उनकी क्षमता और आयु के अनुसार बच्चों को बचपन से ही आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में कदम बढ़ाएं, उन पर जिम्मेदारियां सौंपे, उनके फैसले और उनकी राय पर उनका मार्गदर्शन करें।

जीवन के दिन हमेशा एक समान नहीं रहते हैं; जीवन में हर परिस्थिति का सामना करने के लिए बच्चों को मानसिक और शारीरिक रूप से तैयार करने की जवाबदारी और जिम्मेदारी माता-पिता को बच्चों की परवरिश में निभानी चाहिए।


जिम्मेदारी अवश्य उठायें
पूजा नबीरा, काटोल

pooja nabira

बच्चों पर जिम्मेदारी का बोझ अवश्य होना चाहिये किन्तु हम यह भी समझें पहले का बचपन इतना अधिक कुंठित और बोझिल नहीं था। ना ही बचपन में किसी से तुलना होती थी और ना ही बचपन किताबों के बोझ से दबा था। माता-पिता तो ये भी नहीं जानते थे कि कौन सा बच्चा किस कक्षा में है। किंतु आज सारी आकांक्षाएँ बच्चों पर लदी हैं, अधिकांश किशोर बच्चे पूरे दिन स्कूल, ट्युशन, अन्य बहुत सी कक्षाएँ जैसे डान्स, म्यूजिक और भी जाने-कौन-कौन सी तरफ दौड़ाए जाते हैं।

सभी को हरफ़न मौला बच्चा चाहिये। सोसायटी में बखान और इज्जत के लिये उनको इतना व्यस्त कर दिया जाता है कि वे मशीन बन जाते हैं। निरंतर प्रतिस्पर्धा से जूझते मासूम बच्चे बचपन ही भूल गये हैं। कहीं वे पिछड़ ना जायें इसलिए घर,समाज, त्यौहार जैसी महत्वपूर्ण बातों की जिम्मेदारी भी बच्चों पर नहीं डाली जाती है। बल्कि स्मार्ट बनाने के चक्कर में उन्हें सभी इलेक्ट्रॉनिक उपकरण बचपन से ही दे दिये जाते हैं और वे उसी में उलझ जाते हैं। उनके पास सबकुछ आभासी है दोस्त से लेकर खेल तक आभासी दुनिया में ही है, यथार्थ से ना उनका परिचय हो पा रहा है, ना ही रिश्तों की गर्माहट को समझने का उनके पास वक्त है इसीलिए अत्यधिक प्रैक्टिकल जेनरेशन तैयार हो रही है।

बच्चों पर छोटी- छोटी जिम्मेदारी बचपन से ही डालना चाहिये। घर के हर सदस्य से आत्मीय सम्बन्ध तभी हो पायेंगे, जब वह उनके कार्यों में रूचि ले। उनके साथ समय बिताये, उनकी जरुरत को समझे और पूरा करे तभी वह आत्मियता एवं प्रेम का अनुभव कर हमेशा परिवार, समाज, घर के लिये संवेदनशील रह सकेगा। बचपन को बचपन रहने तो दीजिये साहब वरना हमें संवेदनशील बच्चे नहीं एक स्मार्ट गेजेट या भावना रहित रोबोट मिलेगा जो पैसा तो कमायेगा लेकिन उसमें अपनों के प्रति जिम्मेदारी का भाव नहीं होगा।


तय करें किस उम्र तक बच्चे
जुगलकिशोर सोमाणी, जयपुर

jugalkishore somani

सर्वप्रथम तो हमें यह तय करना होगा कि बच्चे किस उम्र तक ‘बच्चे’ रहते हैं? प्राणीमात्र का जीवन प्राकृतिक है। किसी पशु या पक्षी के नया जीव उत्पन्न होता है तो बड़े यत्न से ‘माँ’ उसका लालन-पालन करती है। किसी अनजान को अपने जीव के पास फटकने ही नहीं देती। पर जब वह ‘जीव’ अपने-आप खाने-पीने, चरने-चुगने योग्य हो जाता है – तो फिर वह ‘माँ’ उसकी तरफ देखती ही नहीं है। और हम! हमारे लाड-प्यार का दायरा तो रबड़ की तरह बढता ही जा रहा है।

अनुशासन की बात तो अब पोंगापंथी सी लगने लगी है। परिणाम तो समक्ष है। प्राकृतिक नियमानुसार जीव-विकास की बात हम मानने को तैयार नहीं। शिक्षा पाने की कोई सीमा नहीं है, जीवन भर शिक्षा मिलती रहती है। पर हर कार्य की सीमा-रेखा तो है। यदि एक ही काम में लगे रहे तो बहुआयामी जीवन कैसे बनेगा? यदि सारे काम विधिवत करें तो जीवन पर्यन्त अनुशासन बना रहता है।

बच्चों पर जीवन प्रणाली के सारे ‘बोझ’ समयानुसार लागू होने ही चाहिए। आज हम घर-घर में झांककर देख सकते हैं, उनका मूल्यांकन कर सकते हैं। वृद्धाश्रमों की बढ़ती संख्या के कारण हमें ही ढूँढने हैं। आज भी बहुत से बच्चे रोजगार (नौकरी या व्यवसाय) के साथ पढ़ाई भी कर रहे हैं। समय पर शादी हो गई, बेटियाँ अपनी ससुराल को सम्भालते हुए पढ़ भी रही हैं। पर हम देखा-देखी के चक्कर में भटकते जा रहे हैं। हमें हर कार्य को सही समय पर करना ही चाहिए।


जिम्मेदारी जीवन का यथार्थ
बिनोद बिहानी, फरीदाबाद

binod bihani

बड़ी विडम्बना है कि आज यह प्रश्न खड़ा हो गया कि बच्चों पर जिम्मेदारियों का बोझ डालना उचित है या अनुचित। जिम्मेदारियाँ जीवन का यथार्थ है, आदर्श व सफल जीवन का मुख्य सूत्र है, सत्य है। सत्य में अनुचित का स्थान कहां? क्या एक गैरजिम्मेदार मनुष्य जीवन के किसी क्षेत्र में सफल हो सकता है? जैसे कि मान्यता है बच्चे की प्रथम पाठशाला परिवार खासकर माता-पिता हैं। पर आजकल के माता-पिता अनुचित लाड प्यार में सफल जीवन का मुख्य सूत्र जिम्मेदारी का पाठ पढ़ाना ही भूलते जा रहे हैं।

आर्थिक सम्पन्नता के वशीभूत होकर बच्चे को हर सुविधा मुहैया करवा देते हैं। इससे बच्चे को जिम्मेदारी का बोध ही नहीं होता है। खाने की टेबल पर पानी रखना हो, अपनी प्लेट डीसवाशर में रखनी है, स्कूल ड्रेस पर आयरन करना, जूते पोलिश करना जैसे छोटे छोटे कामों के लिए सहयोगी रहता है। ये तो जिम्मेदारी सिखाने के पहले अध्याय हैं। अभी स्कूल से आया, ट्यूशन जायेगा, खेलने जाना है। इसके पास टाइम कहां है? जैसे वाक्य बच्चे को जिम्मेदारी लेने से और दूर कर देते हैं।

एकल परिवार, एक दो बच्चे या अन्य कई कारणों से बच्चे सामाजिक व पारिवारिक परिवेश से दूर हो रहें हैं। पहले रामायण, भागवत और संत भक्तों की कहानियां सुनाते थे। जिनमें जीवन जीने के सूत्र होते थे। अब तो बच्चे स्पाइडर-मैन, कोकोमेलन में उलझे रहते हैं। जिनमें आदर्शों या जिम्मेदारी के महत्व का कोई लेना-देना नहीं है।

अगर माता-पिता जिम्मेदारी को बोझ समझते हैं और उनका विश्लेषण उचित अथवा अनुचित से करते हैं तो सोचिए हमारी सोच व चर्चा का विषय कहां जा रहा है। मेरा मत तो यह है कि चर्चा यह होनी चाहिए कि बच्चों को ज़िम्मेदार कैसे बनाएं और इसमें अनुचित शब्द का कोई स्थान नहीं है।


बच्चों को जिम्मेदारी अवश्य सौंपें
प्रहलाद दास पारीक, जयपुर

prahlad das parik

पारिवारिक सामाजिक जिम्मेदारियों को सीखने वाले प्रशिक्षु बच्चे व उनके प्रशिक्षक परिजन होते हैं। मेरे मत में बच्चों को पारिवारिक सामाजिक जिम्मेदारियों को संभालने का अवसर दिया जाना उचित है। प्रारंभ में माना हम कोई भी सामान खरीदने जा रहे हैं तो बच्चों को साथ लेकर जाएं। बच्चों को पता रहे कि अमुक सामान किस जगह किफायती कीमत पर मिलता है, इसे कैसे पहचानें व सामान को नाम किस्म व कीमत से भी समझें।

हम परिवार में या मित्रों के यहाँ जाते हैं तो बच्चे साथ रहे व उनका घर, उनसे संबंध सबको जानें। यदि उन्हें सामाजिक परिवेश में शामिल नहीं करेंगे तो भावी जीवन में उन्हें कठिनाई होगी। अचानक काम मिलने पर वह कुछ भी ठीक नहीं कर पायेंगे। घरेलू रीति रिवाज, परंपराएं, त्योहार पर उन्हें हर बात में भागीदारी निभाने को आगे करें।

जहां एक ओर वह सामाजिक अनुशासन व्यवस्था को समझेंगे वहीं दूसरी ओर परिवार और माता – पिता को अपने कार्य में सहयोगी भी होंगे। जहां परिवार में बच्चों को जिम्मेदारी नहीं सौंपते, वहां बच्चे हो सकता है अकादमिक जगत में ठीक हो किंतु व्यवहार में शून्य होंगे। उनसे यही सुनने को मिलेगा हमने कभी यह काम नहीं किया, हमें मां बाबूजी ने कभी काम करने ही नहीं दिया। अतः बच्चों को जिम्मेदारी सौंपी जाए।


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