Mat Sammat

हमारा सामाजिक होना उचित अथवा अनुचित?

हमारा अपने समाजबंधुओं से जुड़े रहना अतिआवश्यक माना जाता है। हमेशा से मान्यता रही है कि समाज में अपनी पहचान बनाना भी उतना ही जरूरी है, जितना परिवार में। हमारी पहचान भी समाज से जुड़ने पर बढ़ती है जो एक लंबे समय के लिए किए गए निवेश के समान है। लेकिन वर्तमान मे सोच बदलती जा रही है। आज की पढ़ी-लिखी युवा पीढ़ी की दुनिया सिर्फ अपने परिवार और कार्यक्षेत्र के इर्द-गिर्द घुमती रहती है। अपनी जीवनशैली में इतने उलझ गए हैं कि हमें अपने पड़ोसी के नाम-काम की जानकारी भी नहीं होती है। सोशल मीडिया दोस्तों की सूची में बढ़ोतरी होना ही हमारे लिए स्टेटस की बात होती है, पर अपने ही समाज के लोगों के साथ उठना-बैठना कोई मायने नहीं रखता है। उन्हे ये सब उन्नति में बाधक लगते हैं।

आज की पीढ़ी की यह सोच कितनी उचित है? क्या समाज का हमारे जीवन में कोई अस्तित्व नहीं? अत: इस पर विचार करना समसामयिक हो गया है। उपरोक्त विषय ऐसा चिंतनीय है, जिस पर समाज व्यवस्था का भविष्य निर्भर है। आइये जानें इस स्तम्भ की प्रभारी सुमिता मूंदड़ा से उनके तथा समाज के प्रबुद्धजनों के विचार।


हमारे परिवार की समाज से पहचान
सुमिता मूंधड़ा, मालेगांव

समाज से जुड़े रहना हमारे लिए अतिआवश्यक है। जिस प्रकार परिवार से हमारी पहचान होती है, उसी प्रकार समाज से हमारे परिवार की पहचान होती है। हमारे रीति-रिवाज, संस्कृति-संस्कार समाज के कारण ही सुरक्षित और संरक्षित होते हैं। अपनी खुशी में हम चाहे समाजबंधुओं को शामिल करें या ना करें पर हम पर अगर कोई विपत्ति आई हो तो बिना बताये ही समाजबंधु हमारे साथ खड़े हो जाते हैं।

समाजबंधुओं से जुड़ना हमारी आवश्यकता है, मजबूरी नहीं। कभी-कभी जो कार्य हमारे लिए मुश्किल होता है, वह सामाजिक संपर्क के कारण चुटकी में हल हो जाता है। यह सामाजिक संपर्क एक लंबे समय के लिए किए गए निवेश के समान है जो हमारी पढ़ाई-कैरियर, सगाई-ब्याह ही नहीं हमारे बुढ़ापे के एकाकीपन में भी बहुत उपयोगी साबित होता है। मानती हूँ कि जीवन अतिव्यस्त होता जा रहा है, परिवार के सदस्य एक छत के नीचे रहकर भी आपस में बात करने का समय नहीं निकाल पाते, ऐसे में बाहर वालों से संपर्क रखना मुश्किल हो सकता है, पर नामुमकिन नहीं है।

एक कदम समाजबंधुओं की तरफ बढ़ाकर तो देखें, सौ कदम आपके साथ चलेंगे। आभासी दुनियां की तुलना में वास्तविक दुनिया से संबंध बनाये रखना श्रेयस्कर रहेगा। समाज से जुड़कर हमारी सोच और विचारधारा के साथ-साथ हमारा अस्तित्व भी निखरता चला जायेगा। हमारे सामाजिक ना होने से समाज को कोई कमी महसूस नहीं होगी पर एक वक्त के बाद हमें और हमारे परिवार को समाज की कमी अवश्य महसूस होगी।


संतुलन बनाए रखें
अनुश्री मोहता, खामगांव

सामाजिक होना अच्छी बात है। परंतु स्मरण रहे कि समाज की शुरुआत घर से होती है। हम समाज बंधुओं से जरूर जुड़े रहें किंतु हमारी प्राथमिकता हमारा परिवार हो। मनुष्य जैसे सामाजिक प्राणी है वैसे कौटुंबिक प्राणी भी है और परिवार का सदस्य होने के नाते उसके कुछ कर्तव्य होते हैं। परिवारजनों की इच्छायें ना सही पर आवश्यकताएं अवश्य पूरी होनी चाहिए।

यहां मदर टेरेसा का एक कथन विचारणीय एवं अनुकरणीय है – ‘विश्व शांति के लिए अगर आप कुछ करना चाहते हैं तो घर जाए और अपने परिवार से प्यार करें!’ कहीं ऐसा ना हो कि हम सामाजिक कार्यभार क्षमता से अधिक बढ़ा लें और परिवारजनों पर रोष उतारें। आजकल सामाजिक होने के नाम पर एक महिला की प्रतिमाह 4-5 किटी पार्टीज होती है, जिसमें घंटो व्यतीत होते है व घरों में अव्यवस्था की स्थिति बन जाती है।

इस तरह घर-परिवार की उपेक्षा कर समाज में उठना बैठना व्यर्थ है। हां आकस्मिक स्थिति में हम समाज की मदद के लिए अवश्य जाए। ऐसे वक्त में आप परिवार को अपने साथ खड़ा पाएंगे। यूँ संतुलन साधते हुए बेशक हम समाज में समय निवेश करें। इससे हमारी समाज में जान पहचान रहेगी जो हमें एवं समाज दोनों को उन्नति की ओर ले जाएगी।


युवा पीढ़ी को समाज का महत्व बताना जरूरी
कपिल करवा संगरिया, बीकानेर

एक तरह की सोच, आचार विचार, परंपराओं, मान्यताओं वाले परिवार के समूह को समाज कहा जाता है। यह अपनों को सुरक्षा देने के भाव से बनाया गया समूह है जिसको बरकरार रखने का दायित्व हम सभी का है। समाज से युवाओं की दूरी में एकाकी परिवार, भागदौड़ की जीवन शैली व कहीं ना कहीं दूसरों से हमें क्या लेना, सेवा कार्य से दूरी, मोबाइल सहित अनेक कारण है जिसने सबको आस-पड़ोस व समाज ही नहीं खुद के घर से भी दूर कर दिया है।

एक घर में बैठे अनेक सदस्य आपस में वार्तालाप के स्थान पर मोबाइल में व्यस्त रहते हैं, यह उसी बदलाव का प्रभाव है। समाज का महत्व तो हम समय समय पर श्री माहेश्वरी टाइम्स सहित अनेक सामाजिक पत्रिकाओं में पढ़ते भी रहते है कि मार्ग में कोई विपदा आ गई तो कैसे अनजान समाज संगठन के बंधुओं द्वारा सहायता की गई, यह हर कोई जानता ही है। अब मुख्य बात हमारे तीज त्यौहार पर्व उत्सव को आगे की पीढ़ी तक बनाए रखा जाए, इसके लिए समाज का भाव जीवित रखना होगा।

इसके लिए सबको मिलकर समाज के लिए टाइम निकालने का प्रयास करना होगा। समय का नियोजन प्रथम आवश्कता है। प्रत्येक सप्ताह में कुछ समय समाज के लिए निकाला जाए और नए बदलाव के अनुरूप समाज के लोगों को कैसे सुविधा हम दे सके इस पर विचार किया जाना चाहिए।

इसके लिए समाज के बंधुओं को भी आगे बढ़कर कार्य करने वाले समाज के अग्रणी बंधुओं को हतोत्साहित करने के स्थान पर प्रोत्सान देने का कार्य करना होगा। जिससे अपने रूटीन के कार्य के साथ समाज का चिंतन करने वाले लोग भी अपनेपन की खुशी महसूस कर सके व अधिक ऊर्जा के साथ कार्य कर सके।


समाज अर्थात् व्यक्तित्व विकास
शोभना सारडा माहेश्वरी, गंगटोक

अपने विषय का नाम मै बदल कर देना चाहूँगी समाज यानी व्यक्तित्व विकास। जी हाँ मेरा व्यक्तिगत मानना है कि जीवन की गाड़ी को चलाने के लिए जो अनुभव, अनुशासन, निर्भिकता, नेतृत्व क्षमता, सबको साथ लेकर चलना हो या बोलने का कौशल सब कुछ हमें समाज में जुड़कर मिलते है। यहां तक कि अकेलेपन और नीरसता को हटा कर समाज संगठनों/संस्थाओं से हमें दोस्त रुपी कई सखियों का संग और साथ ही हर दिन अनुभव से भरे लोगो का मार्गदर्शन मिलता है।

समाज हमारे सामाजिकता से भरे जीवन पथ पर उदासी को दूर कर जीवन पथ पर आगे बढ़ने की प्रेरणा है। संगठन से मिले रिश्ते अटूट होते हैं। जीवन के साथ भी, जीवन के बाद भीड़। हां सबसे बड़ी बात हमें आजकल जो राजनीतिक तरीके से जोड़ तोड़ कर रहे हैं और सामाजिक संस्थाओ को क्लबों की तरह संचालित कर रहे हैं उन सब से दूर रहकर हमें निरंतर अपना योगदान देना चाहिए।

अगर हमारे युवा समाज से दूर रहकर सुधार की उम्मीद करेंगे मुश्किल है परन्तु युवा सामाजिक संस्थाओं से जुड़कर कर अन्दर घुसकर कुछ स्वार्थी लोगों के कारण हो रही सामाजिक बुराइयों को हटाने की कोशिश करें, ऐसा मेरा व्यक्तिगत विचार है, क्योंकि युवा पीढ़ी का योगदान महत्वपूर्ण है फिर वो परिवार में व्यापार में हो या सामाजिक परिवेशों में, शुद्ध समाज के लिए युवाओं को जरुर जुड़ना चाहिए।


सामाजिकता ही पशुओं से भिन्न
ज्योति सोनी, नागपुर

हमारा समाजिक होना सर्वथा उचित है,मनुष्य सामाजिक प्राणी है जो हमे वन्यप्राणियों से अलग करती है। जितनी जरूरत उसे परिवार की होती है, उतनी ही समाज की, जिसके घेरे में रहकर वह अपनी मर्यादाओं को समझता है। भिन्न-भिन्न लोगो से मिलकर उसका सामाजिक दायरा भी बढ़ता है जो उसके व्यवसाय और व्यवहार को भी प्रभावित करता हैं।

आज की युवा पीढ़ी अच्छी कमाई और अच्छी जीवन शैली के चक्कर मे घर परिवार से दूर बस जाती है और वहाँ की संस्कृति अपनाती है। बचपन से ही बच्चों को समाज में उनके अस्तित्व का महत्व समझायें, जिससे वे कोई भी कार्य अच्छा, बुरा करने के पहले उसके परिणामों का निष्कर्ष समझ सकें। महानगरों में दूरियां होने से अलग-अलग नामो से संगठन, मण्डल की स्थापना की जाती है, युवा पीढ़ी भी इन सबमे सक्रियता से भाग लेती है।

इसलिए जरूरी है हर पीढ़ी को उनके विकास में सहायक होकर उनके फैसलों में सहायता करनी चाहिए। तभी निश्चित रूप से, आज जिस समाज का ढांचा हमने खड़ा किया है, उसमें आज की पीढ़ी अपना अस्तित्व नए रूप में जरूर प्रस्तुत करेगी। समय के अनुसार परिवर्तन की मांग तो संसार और समाज का नियम है, जिसे हर पीढ़ी को अपनाना होगा, तभी सुंदर समाज की संकल्पना साकार होगी।



Related Articles

Back to top button