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हमउम्र बच्चों की तुलना करना कितना उचित/अनुचित?

आज की घड़ी में बच्चों की प्रतिभा माता-पिता के लिए स्टेटस सिंबल बन गई है। अपने बच्चे के हम उम्र की प्रगति देखने/सुनने के साथ ही माता-पिता अपने बच्चे की तुलना उसके साथ करने लगते हैं; यह जानते हुए भी कि हर बच्चे में अलग-अलग प्रतिभा होती है, हर बच्चा सर्वगुणसम्पन्न नहीं हो सकता। जिस बच्चे के साथ माता-पिता अपने बच्चे की तुलना कर रहे होते हैं वह बच्चा भी किसी ना किसी क्षेत्र में जरूर पीछे होगा। प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से माता-पिता अपने बच्चे को कटघरे में खड़ा कर देते हैं और अपने बच्चे को मानसिक पीड़ा देते हैं, जिसका गहरा असर बच्चे के अंतर्मन पर पड़ता है। कई माता-पिता का इसके पीछे तर्क होता है कि इससे प्रतिस्पर्धा उत्पन्न होती है।

ऐसे में यह विचारणीय हो गया है कि अपने बच्चे के हुनर को पहचान कर उसको आगे बढ़ने का अवसर देने के स्थान पर बच्चे को प्रतियोगी बनाये रखना कितना उचित/अनुचित है? आइये जानें इस स्तम्भ की प्रभारी सुमिता मूंदड़ा से उनके तथा समाज के प्रबुद्धजनों के विचार।


दूसरों के सामने कभी न करें तुलना
सुमिता मूंधड़ा, मालेगांव

sumita mundra

बच्चों को उत्साहित करने और समझाने के लिए कभी-कभार अकेले में किसी का उदाहरण देना उचित है पर दूसरों के सामने अथवा बार-बार अपने बच्चे की दूसरे बच्चों से तुलना करने से बच्चों में हीन भावना पनपने लगती है जिसके परिणाम दुखदायी हो सकते हैं। बार-बार अपने बच्चे को परिवार और दोस्तों के बीच अपराधी की तरह कटघरे में खड़े करके बच्चे पर अन्याय करते हैं।

कमी और खूबी हर इंसान में होती है। हर कोई सर्वगुणसम्पन्न नहीं होता। माता-पिता में भी कुछ न कुछ कमी तो होगी ही, ऐसे में अगर बच्चा दूसरे माता-पिता के साथ हमारी तुलना कर दें तो हम बड़े होकर भी अपना आपा खो बैठते हैं। तो बच्चे के नाजुक मन पर हमारी तुलनात्मक बातों का क्या प्रभाव होता होगा, हमें विचार अवश्य करना चाहिए।

माता-पिता से अधिक बच्चे की अच्छी और बुरी आदत को कोई और नहीं जानता है। बच्चे की बुरी आदतों को समय रहते सुधारने के साथ अपने बच्चे की खूबियों को परखकर उसे बढ़ावा देना भी माता-पिता की नैतिक जिम्मेदारी है। विशेष व्यक्तित्व को बच्चे का मार्गदर्शक अवश्य बनाएं, हमउम्र बच्चों को नहीं।

जब तक आप अपने बच्चे की कमियों को दूसरों के समक्ष नहीं खोलेंगे, दूसरों को आपके बच्चे पर ऊँगली उठाने का अवसर नहीं मिलेगा, जो बच्चे को मानसिक कष्ट देता है। अत: अपने बच्चे की खूबियों को उजागर करें, उन पर अपनी अपेक्षाओं और आकांक्षाओं का बोझ न लादकर उनके निजी व्यक्तित्व और अस्तित्व को पनपने दें।


बच्चों क़ी तुलना वास्तव में अन्याय
पूजा नबीरा, काटोल

pooja nabira

सृष्टी ने सभी को अलग-अलग रूप, रंग और गुण से अलंकृत किया है। पेड़, पौधे, पशु, पक्षी भी अपनी अलग विशेषता रखते हैं। मछली जल क़ी रानी तो शेर जंगल का राजा है। सबकी श्रेष्ठता के मापदंड अलग हैं इसी प्रकार प्रत्येक मनुष्य अपने विशिष्ट गुणों को लिये ही पैदा होता है। सबकी अपनी-अपनी क्षमता है, गुण हैं किन्तु आधुनिक समय में हम सिर्फ परसेंट को प्राथमिकता देकर बच्चों क़ी तुलना करते हैं।

बच्चे के ऊपर अपनी इच्छा को लाद कर हम उनसे वह कराना चाहते हैं जो हम ना कर सके। अपार गुणों को समेटे बच्चा नंबरों पर आँका जाता है। सिर्फ इतनी सी बात समझिये कि शेर, मछली, हाथी, बन्दर, भालू को हमारी शिक्षा पद्धति में पढ़ाया जाये और बस एक ही लक्ष्य दिया जाये जो पेड़ पर चढ़ेगा वह सफल बाक़ी असफल, तो क्या यह न्याय होगा? तुलना बच्चे को हीन भावना से भर देती है वे जिंदगी से पलायन क़ी बात तक सोच लेते हैं।

उसके मौलिक गुणों का सम्मान ना कर के हम उन्हें कुंठित कर रहे हैं। अतः तुलना के जहर से बच्चों को बचाना आवश्यक है। हम सारी सुविधा देकर उन्हें हमारी सोच के अनुसार चलने को विवश करते हैं जो उनके वास्तविक अस्तित्व को ख़त्म कर देता है। अतः हर हाल में तुलना से बचें।


एक दूसरे के पीछे दौड़
ज्योति माहेश्वरी, कोटा

आज के प्रतिस्पर्धा के युग में सभी एक दूसरे के पीछे दौड़ रहे है। इसका सबसे बड़ा खामियाजा हमारे बच्चों को भुगतना पड़ रहा है। प्रत्येक माता-पिता अपने बच्चे को इंजीनियर, डॉक्टर बनाने में लगे हैं। चाहे बच्चे की ये करने की क्षमता या इच्छा हो ही ना। हमारे बच्चे कही सोसायटी में पीछे न रह जायें, या लोग क्या कहेंगे कि बच्चे ने कोई कॉम्पिटिशन परीक्षा ही नहीं दी, ऐसी सोच के साथ बच्चों को अनावश्यक तनावपूर्ण माहौल में हम भेज देते है।

जब एक हाथ की पाँचो उंगलिया एक नही हो सकती है तो बच्चों की क्षमता एक कैसे हो सकती है। आज के हालात तो ये है कि कैरियर बनाने के नाम पर बच्चों को बहुत कम उम्र में ही घर से दूर भेजा जा रहा है। यही कारण है कि आये दिन बच्चों के आत्महत्या के समाचार हमें सुनने को मिलते है। आज की पीढ़ी में सहनशीलता वैसे ही कम है, उस पर तनाव और दबाव के कारण छोटी बात पर ही गलत राह की ओर अग्रसर हो जाते है।

माता-पिता को ही अपनी सोच को बदलना होगा। बच्चे खुशी और लगन से जो राह चुनें उसके लिए उसे प्रेरित करे ना कि अपनी इच्छाओं को उन पर थोपें। मन से किये हुए कार्य मे हम सफलता की सीढ़ी आसानी से चढ़ जाते है। उम्र से पहले कैरियर का दबाव न बनाये। बच्चों के हुनर को तुलना के तराजू में ना तोलें। आज की पीढ़ी को मानसिक रूप से सुदृढ बनाये।तुलनात्मक सोच से हम पाएंगे तो कुछ नहीं पर हो सकता है, हम अपने बच्चों से दूर हो जाये।


तुलना का तरीका सही हो
डॉ. राधेश्याम लाहोटी, नोखा बीकानेर

हमउम्र बच्चों की तुलना करना सामाजिक, मानसिक और शारीरिक विकास की प्रक्रिया को समझने का एक तरीका हो सकता है, लेकिन इसे करने का तरीका और प्रयोग महत्वपूर्ण है। बच्चों की तुलना करते समय संदर्भ महत्वपूर्ण होता है।

यदि आप उनकी तुलना स्कूली या विकासात्मक मापदंडों के आधार पर कर रहे हैं, तो यह उचित हो सकता है। लेकिन, यदि आप उनकी तुलना मानसिक, आध्यात्मिक या अन्य असामान्य पैमानों पर कर रहे हैं, तो यह अनुचित हो सकता है। हर बच्चा अद्वितीय होता है और समानताओं और विषमताओं का ध्यान रखना महत्वपूर्ण है। बच्चों की तुलना करते समय, उनकी सामरिक, बौद्धिक, सामाजिक और भावनात्मक विशेषताओं को ध्यान में रखें, और निष्पक्ष रूप से विचार करें।

बच्चों को सही मापदंडों पर मुकाबला करने और उनके स्वतंत्र मार्ग को समझने का समर्थन करना चाहिए। अन्यथा बच्चों की तुलना उनके आत्मविश्वास, स्वास्थ्य और समर्थन को प्रभावित कर सकती है। यदि तुलना न्यायसंगत और प्रोत्साहनजनक होती है, तो इससे उनके विकास को बढ़ावा मिल सकता है। वहीं यदि तुलना अनुचित या न्यायसंगत नहीं है, तो यह उनके स्वाभाविक विकास को रोक सकती है।


मित्र की तरह समझाऐं
नीरा मल्ल, पुरुलिया

सिर्फ बच्चों के माता-पिता ही ना बने, उनके अच्छे मित्र (बेस्ट फ्रेंड) भी बनकर रहें। बच्चों की तुलना करना अनुचित के साथ ही बच्चो के लिए घातक भी हो सकता है। सभी माता-पिता कब दूसरे बच्चों से उनकी तुलना करने लगते है, उन्हें भी नहीं मालूम पड़ता है। बाद में यह आदत बन जाती है और दूसरी ओर बच्चा रोज रोज दूसरे की तारीफ सुन सुन कर सामने वाले बच्चे से इर्ष्या और नफरत करने लगता है।

माता-पिता की सभी बातों को जिसमें काम की भी जानकारी होती है, उसको भी अनसुना करते है। फिर झगड़ा मारपीट तक की नोबत आ जाती है। परिणाम स्वरूप बच्चे बागी हो जाते है या असामाजिक तत्वों के शिकार हो जाते है और दूसरो में प्यार प्रेम खोजते हैं। इससे कोई तीसरा व्यक्ति भी फायदा उठा सकता है।

जब तक माता-पिता को यह समझ आए तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। फिर पछताने के सिवा उनके पास कुछ नहीं होता है। बचपन से ही बच्चें को अहमियत देवें। उसकी सभी अच्छी बातें, एक्टिविटी, पढ़ाई की तारीफ करें। अगर आपको कहीं कोई गलत लग रहा है, तो दूसरे से तुलना ना करके मित्र बनकर किसी कहानी को आधार बनाकर प्यार से समझाएं।


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