स्वाभाव में विनम्रता आने पर अहंकार के खतरे कम हो जाते हैं
प्रशंसा वह मदिरा है जो कानों से पिलाई जाती है। होटों से पी गई मदिरा से सिर्फ पैर लड़खड़ाते हैं लेकिन कानों से उतरी मदिरा पूरे व्यक्तित्व को लड़खड़ा देती है। हमारे यहाँ परमात्मा या दैव पुरुषों को भोग लगाने की परंपरा है। यह बड़ी प्रतीकात्मक घटना है। इसी प्रकार जब हमारे कर्म का भोजन यानी प्रशंसा हमें प्राप्त हो तो उसे भी परमात्मा को भोग के लिए समर्पित करें तथा बाद में प्रसाद स्वरुप उसे ग्रहण करें। स्वाभाव में विनम्रता आने पर अहंकार के खतरे कम हो जाते हैं।
प्रशंसा का भोग भगवान को लगाने का काम हनुमानजी महाराज से सीखा जा सकता है। सीताजी की खोज और लंका दहन जैसे बड़े काम करने के बाद जब वे लौटे थे तो श्रीराम ने सबके सामने उनकी प्रशंसा में कहा था-
सुनु कपि तोहि समान उपकारि, नहीं कोई सुर, नर, मुनि तनुधारी। प्रति उपकार करउँ का तोरा, सनमुख होइ न सकत मन तोरा।
अर्थात हनुमान, तुम्हारे समान तो देवता, मुनि, मनुष्य भी नहीं हो सकते। अब मैं तुम्हारा उपकार कैसे चुकाऊँ। तुम्हारे समान तो मेरा मन भी नहीं हो सकता। ये अति प्रशंसा की पंक्तियाँ हैं जो किसी को भी अहंकार में डुबोने के लिए पर्याप्त हैं।
परन्तु हनुमानजी यह बात सुनकर भगवान के चरणों में गिर गए
सुनि प्रभु बचन बिलोकि मुख, गात हरषि हनुमंत। चरन परेउ प्रेमाकुल, त्राहि त्राहि भगवंत।
अर्थात श्रीराम के वचन सुन हनुमानजी रक्षा करें, रक्षा करें कहते हुए उनके पैरों में गिर गए। यह था अपनी प्रशंसा का भोग परमात्मा को लगा देना। प्रसाद का क़ायदा है कि सबसे पहले भगवान को, शेष समाज में बाटें फिर बचा हुआ ख़ुद ग्रहण करें।
यहाँ हनुमानजी ने भगवान के चरणों में गिरकर यह भी संकेत दिया कि प्रशंसा मिलने पर परमात्मा, माता-पिता, बड़ी उम्र के लोगों तथा समाज के सामने नतमस्तक हो जाएँ, विनम्र हो जाएँ।
प्रशंसा प्राप्त होने पर यदि विनम्रता आ जाए तो अहंकार आने के ख़तरे कम हो जाएंगे। अहंकार से बचने और विनम्रता प्रदर्शित करने का एक सरल तरीक़ा यह भी है कि ज़रा मुस्कुराइए….
प्रशंसा को प्रसाद की तरह समझा जाए। अगर किसी कार्य या आचरण के बदले प्रशंसा प्राप्त हो तो पहले उसे ईश्वर को समर्पित करें, फिर स्वयं ग्रहण की जाए। यह विनम्रता का लक्षण है और विनम्रता अहंकार को दूर भगाती है।