पूजा का रूप है बढ़े-बूढ़ों की सेवा
घर परिवार में बढ़े-बूढ़ों के रहने से एक अदृश्य शुभ शक्ति बनी रहती है। इस बात की अनुभूति अनेक लोगों को अपने जीवन में होती रही है।
भारतीय संस्कृति के धर्म ग्रंथों ने वृद्धजनों को देवतुल्य माना और उससे भी आगे ले जाकर परमात्मा का स्वरुप भी बना दिया है। बढ़े-बूढ़ों की सेवा पूजा का ही रूप है। ऐसा मानने वाले लोग भी कभी-कभी जब एक छत के नीचे बढ़े-बूढ़ों के साथ रहते हैं तो एक अलग किस्म की परेशानी भी महसूस करते हैं।
वृद्ध लोगों के अनुभवों का अहंकार आड़े आ ही जाता है। परिवार छोटे हो चले हैं और दिक्कतें बड़ी होती जा रही हैं। घर में भी दृष्टिकोण व्यावसायिक हो रहा है। समय की कमी सबके पास है। ऐसे में दो पीढ़ी के बीच झंझट होना स्वाभाविक हो जाता है।
वृद्ध व्यक्ति में भी कमज़ोरियाँ होती हैं। शरीर साथ नहीं देता तो गलतियां भी करते रहते हैं। इधर, नई पीढ़ी को सिखाया जाता है कि उन्हें देवतुल्य मानकर सेवा करें और उधर इस गुज़रती पीढ़ी के आचरण में भी दोष आना स्वाभाविक है।
जब ऐसा हो तो मध्य मार्ग निकालना ही पड़ेगा। इस समय घरों में जो बुजुर्ग लोग हैं और ठीक उनके बाद की जो नई पीढ़ी है वह तो फिर भी सेवा कर लेगी लेकिन वर्तमान की यह पीढ़ी जब भविष्य में बूढी होगी तो इनके बच्चे क्या इनकी सेवा कर पाएंगे?
यह सवाल अभी से वर्तमान पीढ़ी के भीतर अंगड़ाई लेने लगा है। माँ की छाती और पिता के हाथ की छाया का जो आनंद उनके पास है क्या ये आने वाली पीढ़ी के नए बच्चों को दे रहे हैं।
यदि यह ट्रांसफर ठीक ढंग से हो गया तो भविष्य में बुजुर्गों का सेवाभाव बना रहेगा और इसलिए हमने परमात्मा में माता और पिता का स्वरुप देखा है। उन्हें याद करके हमें जन्म देने वालों का इसी भाव से हम मान करें।