क्यों नहीं हो पा रहा दिखावे पर नियंत्रण?
दिखावा वर्तमान में समाज की एक बहुत बड़ी समस्या बन चुकी है। शादी-विवाह ही नहीं अन्य कई अवसरों पर भी दिखावे में पानी की तरह बहा दिया जाता है। यदि यही पैसा समाजहित में खर्च हो तो समाज की योजनाओं को गति पकड़ने में समय नहीं लगेगा और कई परिवार भी अनावश्यक दिखावे के कारण ऋणग्रस्त होने से बचेंगे। इसी सोच को लेकर अभा माहेश्वरी समाज द्वारा सामाजिक आचार संहिता बताकर मांगलिक आयोजनों में व्यंजनों की निर्धारित संख्या व प्रीवेडिंग शूट पर प्रतिबन्ध आदि जैसे कदम उठाए गए। इन सब के बावजूद दिखावे पर कोई फर्क नहीं पड़ा। समाज का नेतृत्व करने वाले भी इस सामाजिक आचार संहिता का अपने यहाँ होने वाले आयोजनों में उलंघन करते देखे गये हैं। ऐसे में यह विचारणीय हो गया है कि “क्यों नहीं हो पा रहा है, दिखावे पर नियंत्रण?” क्या समाज के नेतृत्वकर्ता स्वयं इस पर अमल नहीं करते या समाज में जागृति लाने के जो प्रयास हुए वे अभी कम हैं। समाजहित के इस ज्वलंत विषय पर आपके विचार व सुझाव आमंत्रित हैं। आपके विचार समाज व समाज के संगठनों को कई राह दिखाएंगे। आईये जानें, इस स्तम्भ की प्रभारी मालेगांव निवासी सुमिता मूंदड़ा से उनके तथा समाज के प्रबुद्धजनों के विचार।
समाज में करें पैसा खर्च
-सुमिता मूंधड़ा,मालेगांव
दिखावे पर नियंत्रण – समाज-बंधुओं के हित को सर्वोपरि मानकर अखिल भारतवर्षीय माहेश्वरी महासभा द्वारा अनावश्यक खर्च और दिखावे पर नियंत्रण के लिए आचार संहिता जारी की गई। समाज की हर सभा , हर मीटिंग और सामाजिक कार्यक्रमों में इस पर चर्चा करके समाज-बंधुओ को आचार-संहिता पर अमल करने की गुजारिश भी की गई, पर फिर भी अधिकांश सम्पन्न समाज बंधु अपने आर्थिक स्तर और अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा के अनुसार ही शादी-ब्याह और अपने निजी कार्यक्रमों में दिखावा/अनावश्यक खर्च करते देखे जाते हैं। समाज की सबसे उच्चस्तरीय कार्यसमिति द्वारा बनाये गए नियम-कानून सभी समाज-बंधुओं के ऊपर समान रुप से लागू होते हैं। अब इसके उपरांत भी अगर कोई उन नियमों का उल्लंघन करे तो दंड भी सबके लिए समान रखना चाहिए। जो बढ़-चढ़कर खर्च करते हैं, उनके लिए आर्थिक-दंड कोई मायने नहीं रखता है, समाज बंधुओं द्वारा उनके कार्यक्रमों का बहिष्कार ही उनके लिए सबसे उचित दंड होगा । माफ करें , छोटे मुँह बड़ी बात…। रही बात पदाधिकारियों की तो अगर वह आचार-संहिता का उल्लंघन करें तो उन्हें पद पर बने रहने का हक ना हो, ऐसा कठोर दंड-विधान बनाया जाये।
ऐसा नहीं है कि आचार-संहिता का पालन करना हमारे लिए बड़ा कठिन कार्य है। आज बहुत से छोटे शहरों और गांवों में आचार-संहिता का पालन किया जा रहा है, जो हमारे बीच एक सराहनीय उदाहरण है। दिखावटी अनावश्यक खर्च करने के स्थान पर समाज के हित में कुछ नेक कार्य किये जायें तो पीढ़ियों तक हमारा नाम सपरिवार जीवंत रहेगा। हमारी खून-पसीने-मेहनत की कमाई जब हमारे निजी कार्यक्रमों में ढोल-धमाके-सजावट-लेन-देन के साथ-साथ जूठन में बहती है तो कहीं ना कहीं हमारे अंतर्मन को भी अवश्य दु:ख होता है। अगर हम और आप दूरदर्शिता से विचार करें तो आचार-संहिता का पालन करते हुए भी अपने स्तर के अनुरूप यथाशक्ति समाज में भेंट देकर जैसे अस्पताल/स्कूल/कॉलेज/धर्मशाला/भवन आदि बनवाकर अथवा विधवा और गरीब विवाह समारोह करवाकर अपनी पारिवारिक प्रतिष्ठा और मान-सम्मान को युगों-युगों तक यादगार बना सकते हैं।
सिर्फ बोलें नहीं सही प्रयास करें
-हरिप्रकाश राठी, जोधपुर
दिखावे पर नियंत्रण – राम-रावण युद्ध का वह दृश्य याद हो आया है, जब दंभी रावण राम को युद्ध करने के लिए ललकारता है। वह राम को कहता है कि तुम रावण के प्रभाव को नहीं जानते , मैंने युद्ध में अनेक महाबली सूरमाओं को ध्वस्त किया है। मेरे पराक्रम को तुम महादेव से जाकर पूछो जिन्हें प्रसन्न करने के लिए मैंने कैलाश पर्वत तक को उठालिया था। राम तब कहते हैं , ’रावण! संसार में तीन प्रकार के लोग होते है, एक कहहिं, कहहिं करहिं, अपर एक करहिं कहत न बांगहि ’ अर्थात् प्रथम जो मात्र कहते हैं, गाल बजाते हैं, डींगे हांकते हैं लेकिन करते कुछ भी नहीं, दूसरे कहते हैं एवं करते भी हैं एवं तीसरे कहते कुछ भी नहीं मात्र करके अपने आचरण से जगत में उदाहरण प्रतिष्ठित करते हैं। समाजसेवा एवं समाज सेवियों के प्रसंग में यह उक्ति सटीक उतरती है। आज समाज में दिखावा, शान शौकत, वैभव प्रदर्शन चरम पर पहुंच गया है एवं इसमें वे समाज सेवी भी शामिल हैं जो मंचों से समाज सुधार की बड़ी-बड़ी बाते करते हैं। यह प्रदर्शन सुरसा के मुख की तरह हर एक रीति-रिवाजों में बेलगाम बढ़ता जा रहा है। कहने को हमारा स्त्री-पुरूष अनुपात प्रतिकूल है, पर हम धरातल पर ऐसा कोई ठोस कार्य नहीं कर रहे जिससे इस अनुपात में सकारात्मक परिवर्तन हो। समारोह के खर्च ही नहीं, विवाह भोज के आइटम् सभी अहर्निश बढ़ते ही जा रहे हैं। आखिर ऐसे भौण्डे, अनुत्पादक प्रदर्शन किस मानसिकता/मनोविज्ञान से उपजते हैं ?
अपने यहां से करें शुरूआत
-सतीश लखोटिया, नागपुर
त्याग, सेवा, सदाचार को अपनाने वाले हम माहेश्वरी निश्चित रूप से इस भाव से विमुख हो रहे हैं। दिखावा हमारी नस-नस में बस चुका है, जो चाहने पर भी हम निकाल नही पा रहे हैं। बड़े बेटे या बिटिया की शादी या अन्य आयोजन में यदि हमने बढ़िया किया और छोटे या छोटी के आयोजन में कम किया तो समाज तो छोडो, घरवाले ही क्या सोचेंगे? यही सोच फिर दिखावे के अँधेरे कुंए मे हमे घकेलती है। इस सत्य को हम नजरअंदाज नही कर सकते। महासभा व पंचायतें तो अपने तरीके से इसकी रोकथाम के प्रस्ताव पारीत करती है, लेकिन जब तक उस गांव या शहर के समाजबंधु एकजुट होकर इन बातो का बहिष्कार नही करेंगे, तब तक यह क्रम अविरत जारी ही रहेगा । आज की युवा पीढ़ी मौजमस्ती के साथ जीवन जीना चाहती है, कमाओ और उड़ाओ यह सोच भी एक तरह से दिखावे को ही जन्म देती है। हर बात के लिये महासभा पंचायत को दोष देने के बजाय समाजसेवी, कलमकार के साथ युवाशक्ति स्वयं के घर से ही इसे बंद करने की दृढ़ता से कोशिश करेंगे, तभी हम इस पर रोक लगाने में कामयाब होंगे।
परस्पर दिखावे की प्रतिस्पर्धा
-राजश्री -सुरेश राठी
आधुनिकता की दौड़ में शामिल हम समाजवासियों में अपने पद, प्रतिष्ठा, वर्चस्व को दिखाने की होड़ सी लगी है। विवाह या अन्य आयोजन यह हमारे समाज में हमारा उच्च स्तर होने के प्रदर्शन का सर्वोत्तम जरिया बन चुका है। व्यक्ति की सोच जब तक स्वयं के स्वार्थ तक ही सीमित होगी तब तक समाजहित में बने नियमों का कोई महत्व नहीं रहेगा। सामाजिक कार्यकर्ता स्वयं नियमों का उल्लंघन करते हैं। समाज की घटती जनसंख्या भी दिखावे को बढ़ावा दे रही है। एक या दो संतति रहने से अभिभावक कोई आयोजन सादगी से संपन्न ही नहीं कर रहे और करोड़ों रूपया दिखावे के चलते खर्च हो रहा है। समाज का कुछ प्रतिशत उच्चशिक्षित रहने से बच्चों के पैकेज अच्छे होते हैं। इसलिए अभिभावकों को बच्चों के भविष्य हेतु धनसंचय करने की लालसा कम हो गई। सगाई-संबंध जोड़ते समय परिवार बाह्य आडंबर की ओर आकर्षित हो रहे हैं। सभी उच्च वर्ग में रिश्ता तय करने की चाहत रखते हैं। फलस्वरूप आर्थिक रूप से सक्षम ना होने पर भी दिखावे के मायावी जाल में फंसते चले जाते हैं।
जब तक सामाजिक स्तर (महासभा) पर समयानुसार नियम बनाकर लागू नही किये जायेंगे तब तक सुधार लागू होना मुश्किल है ।
केवल बोलने से ,लिखनेसे,बातें करने से ,यह हल नही होगा आगे बढना है कृती मे लाने के लिए सामाजिक सेवा के सभी अभिभावकोंको आगे बढना है
कोई भी व्यक्ति कठिन परिश्रम से निरन्तर प्रयास कर इसलिए ही तो धन अर्जित करता है कि अपने परिवार के लिए उन्नत जीवन की व्यवस्था कर सके। और यथोचित अवसरों पर वह अपने जीवन के विशिष्ट उत्सवों को अधिकाधिक धूमधाम से मनाने की इच्छा भी रखता है। अपने अर्जित धन को अपने उत्साह के अनुरूप व्यय करने को समाज ने दिखावे का नाम केवल इसलिए दे दिया है, क्योंकि इससे किसी अन्य को या तो असहजता का अनुभव होता है या ईर्ष्या का। कोई अपने सामर्थ्य के अनुसार खर्च करे तो किसी को भी बुरा क्यों लगना चाहिए? क्या इसलिए कि आप उसकी बराबरी करने में असमर्थ हैं। यदि हैं, तो स्वीकार कीजिए अथवा अधिक परिश्रम कीजिए। यदि सामर्थ्यवान की देखा देखी में कोई ऋण लेकर व्यय करे, तो ये उसकी अपनी भूल है। इसका दोष किसी अन्य को क्यों दिया जाए? यदि कोई किसी को क्षमता से अधिक व्यय करने के लिए विवश करे तो ये निस्सन्देह पाप है। अपनी चादर जितने ही पैर पसारने चाहिए, लेकिन किसी की बड़ी चादर देख कर उसे काटने का प्रयास भी नहीं करना चाहिए। अपना धन व्यय करना यदि इसलिए अनुचित है कि कोई अन्य उतना नहीं कर पाएगा, तो जीवन में धन अर्जित करने का प्रयोजन ही क्या है? समाजवाद की आड़ में ये तो आय और व्यय को हतोत्साहित करने वाला और अर्थव्यवस्था को नीचे धकेलने वाला विचार है। सुझाव तो ये होना चाहिए कि अपनी क्षमता के अनुसार स्वेच्छा से भरपूर व्यय भी किया जाए और उतने ही मुक्त हृदय से धर्म, समाज और निर्धनों की सेवा में भी लगाया जाए। लक्ष्मी जी की पूजा हम कंजूसी के लिए नहीं करते हैं। माता सभी को प्रचुर मात्रा में कमाने और शुभ कार्यों के लिए व्यय करने की क्षमता दे।