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पितृ से मंगलकामना का पर्व- श्राद्धपक्ष

पाश्चात्यकरण के प्रभाव में कुछ लोग पितृ श्राद्ध से बचने के लिये कई तरह के तर्क देते हैं। लेकिन हकीकत देखें तो श्राद्ध पक्ष का 16 दिवसीय यह पितृ पर्व वास्तव में पितृ की शांति तथा उसके फलस्वरूप मंगलकामना प्राप्ति का पर्व है। इस वर्ष 10 सितम्बर से 25 सितम्बर का समय पितृ पक्ष का है। आईये शास्त्रों के आईने में देखें क्यों, कब और कैसे करें हम अपने पितरों का श्राद्ध?

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वस्तुतः श्राद्ध अपने पूर्वजों तथा माता-पिता, मातामही एवं पितामह का श्रद्धापूर्वक स्मरण करने का ही पर्व है। हिंदु शास्त्रों एवं अन्य धार्मिक ग्रंथों में माता-पिता के प्रति श्रद्धा के उपदेश भरे पड़े हैं। यह व्यावहारिक जगत का सत्य है। जिन माता-पिता ने प्रभु कृपा से यह शरीर दिया एवं अबोध व अवस्था से लेकर समझदार होने तक यथाशक्ति उचित शिक्षा एवं पालन पोषण का भार उठाया, यदि आप इसके लिए उन्हें उचित सम्मान भी जीवन में नहीं दे पाये तो स्पष्ट है, आपके पुत्र एवं प्रपौत्र भी आपकी वृद्धावस्था में यही प्रतिफल देंगे।

इससे अधिक आशा करना व्यर्थ ही है। सनातन धर्म की परंपराओं में भादौ महीने की पूर्णिमा से आश्विन माह की अमावस्या तक कुल 16 दिनों के श्राद्ध पक्ष में पूर्वजों को यादकर उनके सुख और शांति के लिए श्राद्ध कर्म कर उनसे स्वयं के जीवन के कष्टों को दूर करने की भी कामना की जाती है।

इन 16 दिनों तक सामान्यतः अपने पितृ की मृत्यु तिथि के अनुसार श्राद्ध कर्म किया जाता है। इसके साथ ही उन्हें प्रसन्न कर सम्पूर्ण परिवार के मंगल की कामना की जाती है। यह श्राद्ध कर्म प्राचीन काल से सतत रूप से चला आ रहा है।


शास्त्रों के आयने में श्राद्ध

सनातन धर्म की मान्यता है कि मानव शरीर पंच तत्वों-आग-पानी, पृथ्वी, वायु, आकाश आदि पांच तत्वों तथा कर्म इन्द्रियों हाथ-पैर आदि सहित 27 तत्वों से बना है। किंतु जब मृत्यु होती है तो शरीर पंचतत्व और कर्मेंन्द्रियों को छोड़ देता है। किंतु शेष 17 तत्वों से बना अदृश्य और सूक्ष्म शरीर इसी रूप में रहता है।

हिंदू शास्त्रों की मान्यता है कि सांसारिक मोह और लालसाओं के कारण यह सूक्ष्म शरीर कम से कम 1 साल तक मूल स्थान, घर और परिवार के आसपास ही रहता है। किंतु शरीर न होने से उसे किसी भी सुख का आनंद नहीं मिलता और इच्छा पूर्ति न होने के कारण वह अतृप्त रहता है।

यही कारण है मृत्यु के बाद वर्षभर और उसके बाद भी मृत परिजन को तृप्त करने और जन्म-मरण के बंधन से मुक्त करने के लिए श्राद्ध कर्म किया करते हैं। श्राद्ध द्वारा भोजन के साथ अन्य सुख, रस आदि सूक्ष्म रूप में मृत जीव आत्मा या अलग-अलग योनि में घूम रहे पूर्वजों को मिलते हैं और वह तृप्त हो जाते हैं। खासतौर पर पितृपक्ष काल में यह माना जाता है कि पूर्वज इस विशेष काल में अपने परिजनों से मिलने जरूर आते हैं।


पंच महायज्ञों में से एक है पितृ श्राद्ध

शास्त्रों में किसी भी व्यक्ति के लिए 5 कर्म-धर्म अर्थात पंचमहायज्ञ जरूरी बताए गए हैं। ये भूतयज्ञ, मनुष्य यज्ञ, पितृयज्ञ, देवयज्ञ व ब्रह्मयज्ञ के रूप में जाने जाते हैं। इनमें सारे जीवों के लिए अन्न-जल-दान ‘भूतयज्ञ’, घर आए अतिथि की सेवा ‘मनुष्य यज्ञ’, स्वाध्याय व ज्ञान का प्रचार-प्रसार ‘ब्रह्मयज्ञ’ और पितरों के लिए तर्पण व श्राद्ध करना ‘पितृयज्ञ’ कहलाता है। इनको महायज्ञ कहा गया है और इनसे किसी तरह का दोष नहीं लगता।

किंतु पितृयज्ञ से ही पितृऋण से छुटकारा मिलता है। पितृदोष से मुक्ति के लिए श्राद्ध जरूरी बताया गया है। हिंदू धर्मग्रंथों में कई तरह के श्राद्ध अवसर विशेष पर करने का महत्व बताया गया है। इनमें खासतौर पर तिथि और पार्वण श्राद्ध का विशेष महत्व है। तिथि श्राद्ध हर साल उस तिथि पर किया जाता है, जिस तिथि पर किसी व्यक्ति की मृत्यु हुई हो।

पार्वण श्राद्ध हर साल पितृपक्ष में ही किए जाते हैं। इसे महालया या श्राद्ध पक्ष भी पुकारा जाता है। हर साल भादौ महीने की पूर्णिमा और आश्विन माह के कृष्ण पक्ष के 15 दिन सहित 16 दिन की अवधि श्राद्ध पक्ष कहलाती है।


क्यों जरूरी है पितृ श्राद्ध

स्कंदपुराण में लिखा है कि मृत्यु तिथि पर श्राद्ध न करने वाले व्यक्ति को उसके पितृगण श्राप देकर पितृलोक चले जाते हैं। ऐसे व्यक्ति के परिवार को पितृदोष लगता है और वहाँ रोग, शोक, दरिद्रता, दुःख व दुर्भाग्य का सामना करना पड़ता है। ब्रह्म और ब्रह्मवैवर्तपुराण में लिखा है कि धन बचाने की लालसा से श्राद्ध न करने वाले का पितृगण रक्त पीते हैं। वहीं सक्षम होने पर श्राद्ध न करने वाला रोगी और वंशहीन हो जाता है।

इसी तरह विष्णु स्मृति के मुताबिक श्राद्ध न करने वाला नरक को प्राप्त होता है। वायुपुराण के मुताबिक पितरों के लिए किए जाने वाले श्राद्ध, देवताओं की प्रसन्नता के लिए किए जाने वाले यज्ञ आदि धर्म-कर्मों से भी ज्यादा शुभ फल देते हैं। श्रद्धा से किये श्राद्ध से कई पीढ़ियों के पितृगण प्रसन्न होकर व्यक्ति को आयु, धन-धान्य, संतान और विद्या से संपन्न होने का आशीर्वाद देते हैं। गरुड़ पुराण के मुताबिक इस पक्ष में श्राद्ध से पितरों को स्वर्ग मिलता है।

यहीं नहीं जिनका श्राद्ध किया जाता है, उनको प्रेत योनि नहीं मिलती है और वे पितर बन जाते हैं। ये पितर तृप्त हो संतान के मनचाहे काम पूरे कर धर्मराज के मंदिर में पहुंच बड़ा ही सुख-सम्मान पाते हैं। गुरुड़ पुराण में यह भी बताया गया है कि श्राद्ध करना पवित्र कार्य है क्योंकि मृत्यु होने पर धर्मराजपुर में जाने के चार रास्ते हैं-पूर्व, पश्चिम, उत्तर व दक्षिण। पितरों का श्राद्ध करने वाले को स्वयं धर्मराज अपनी सभा में पश्चिम द्वार से ले जाते हैं और स्वयं खड़े होकर उनका स्वागत करते हैं।


कब करें किनका श्राद्ध

पक्ष में मृत्यु तिथि के मुताबिक किसी भी व्यक्ति को पितरों के लिए जल का तर्पण व श्राद्ध करना चाहिए। तिथि न मालूम होने या तिथि विशेष पर श्राद्ध चूकने पर इसी पक्ष में आने वाली सर्वपितृ अमावस्या या महालया पर पूर्वजों के लिए श्राद्ध, दान व तर्पण करना चाहिये। किसी भी दिवंगत परिजन का प्रथम श्राद्ध मृत्यु के वर्ष से तृतीय वर्ष में श्राद्धारम्भ पूर्णिमा को ही पूरे धार्मिक नियमों के साथ किया जाता है।

जिन व्यक्तियों की सामान्य एवं स्वाभाविक मृत्यु चतुर्दशी को हुई हो, उनका श्राद्ध चतुर्दशी तिथि को कदापि नहीं करना चाहिए, बल्कि पितृपक्ष की त्रयोदशी अथवा अमावस्या के दिन करना चाहिए। जिन व्यक्तियों की अपमृत्यु हुई हो अर्थात् किसी प्रकार की दुर्घटना, सर्पदंश, विष, शस्त्राघात, हत्या, आत्महत्या या अन्य किसी प्रकार की अस्वाभाविक मौत हुई हो, तो उनका श्राद्ध मृत्यु तिथि वाले दिन कदापि नहीं करना चाहिए।

अपमृत्यु वाले व्यक्तियों का श्राद्ध केवल चतुर्दशी तिथि को ही करना चाहिए, चाहे उनकी मृत्यु किसी भी तिथि को क्यों न हुई हो। सौभाग्यवती स्त्रियों अर्थात पति के जीवित रहते हुए मरने वाली सुहागिन स्त्रियों का श्राद्ध भी केवल पितृपक्ष की नवमी तिथि को ही करना चाहिए।

संन्यासियों का श्राद्ध केवल पितृपक्ष की द्वादशी को ही किया जाता है, चाहे उनकी मृत्यु किसी भी तिथि को हुई हो। नाना तथा नानी का श्राद्ध भी केवल आश्विन शुक्ल प्रतिपदा को ही करना चाहिये, चाहे उनकी मृत्यु किसी भी तिथि में हुई हो।


कैसे करें श्राद्ध

यथासंभव श्राद्ध अपने घर पर ही किया जाना चाहिए। संभव न हो तो यह किसी भी तीर्थ या जलाशय के किनारे भी किया जा सकता है। दक्षिणायन में चूंकि पितरों का प्रभाव ज्यादा होता है। इसलिए श्राद्धकर्म के लिए हरसंभव स्थिति में दक्षिण की तरफ झुकी हुई जमीन का उपयोग ही करना चाहिए।

शास्त्रों के मुताबिक पितृगणों को ऐसी जगह भाती है, जो पवित्र हो और जहां लोगों का ज्यादा आना-जाना होता है। नदी का किनारा भी पितरों की पसंद है। ऐसी जगह पर गोबर से जमीन को लीपकर श्राद्ध करना चाहिए। काले तिल और कुश तर्पण श्राद्धकर्म में जरूरी है।

ऐसा माना जाता है कि ये भगवान विष्णु के शरीर से निकले हैं और पितरों को भी भगवान विष्णु का ही स्वरूप माना गया है। अतः इनके बिना पितरों को जल भी नहीं मिलता। श्राद्ध के एक दिन पहले श्राद्ध करने वाला विनम्रता के साथ साफ मन से विद्वान ब्राह्मणों को भोजन के लिए आमंत्रण दे, क्योंकि ब्रह्मपुराण के मुताबिक ब्राह्मणों की देह में पितृगण वायु के रूप में मौजूद होते हैं।


कौन है श्राद्ध का अधिकारी

श्राद्ध का पहला अधिकार पुत्र का होता है। पुत्र न होने पर पुत्री का पुत्र यानी नाती श्राद्ध करे। जिनके कई पुत्र हों तो वहां सबसे बड़ा पुत्र श्राद्ध करें। पुत्र के उपस्थित न होने पर पोता और पोता भी नहीं होने पर परपोता श्राद्ध कर सकता है। पुत्र व पोते की अनुपस्थिति में विधवा औरत को भी श्राद्ध का हक है।

मगर पुत्र के न होने पर पति, पत्नी का श्राद्ध कर सकता है। इसी तरह पुत्र होने पर उसे ही माता का श्राद्ध करना चाहिए, पति को नहीं। पुत्र, पोते या दामाद के न होने पर भाई का पुत्र भी श्राद्ध कर सकता है। यहां तक की दत्तक पुत्र या किसी उत्तराधिकारी को भी श्राद्ध करने का हक है।


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