अभिनंदनम विक्रम संवत 2078
भारतीय संस्कृति की कालगणना का हमारा अपना नववर्ष विक्रम संवत 2078 तथा नवसंवत्सर “आनंद” आगामी गुड़ी पड़वा पर्व से प्रारम्भ हो रहा है। पूर्णतः सूर्य व चंद्र आदि ग्रहों की गणना पर आधारित अपने नववर्ष का आइये अभिनन्दन करें, सूर्य को अर्ध्य देते हुए।
गुड़ी पड़वा को हिंदू नववर्ष की शुरुआत माना जाता है, यही कारण है कि हिंदू धर्म के सभी लोग इसे अलग-अलग तरह से पर्व के रूप में मनाते हैं। सामान्य तौर पर इस दिन हिंदू परिवारों में गुड़ी का पूजन कर इसे घर के द्वार पर लगाया जाता है और घर के दरवाजों पर आम के पत्तों से बना बंदनवार सजाया जाता है।
ऐसा माना जाता है कि यह बंदनवार घर में सुख-समृद्धि और खुशियां लाता है। गुड़ी पड़वा के दिन खास तौर से हिंदू परिवारों में पूरनपोली नामक मीठा व्यंजन बनाने की परंपरा है, जिसे घी और शक्कर के साथ खाया जाता है। मराठी परिवारों में इस दिन खास तौर से श्रीखंड बनाया जाता है और अन्य व्यंजनों व पूरी के साथ परोसा जाता है।
आंध्र में इस दिन प्रत्येक घर में पच्चड़ी प्रसाद बनाकर बांटा जाता है। गुड़ी पड़वा के दिन नीम की पत्तियां खाने का भी विधान है। इस दिन सुबह जल्दी उठकर नीम की कोपलें खाकर गुड़ खाया जाता है। इसे कड़वाहट को मिठास में बदलने का प्रतीक माना जाता है।
कैसे बना विक्रम संवत
विक्रम संवत की शुरुआत 57 ईसवी पूर्व में हुई थी। सम्राट विक्रमादित्य द्वारा शकों पर विजय प्राप्त करने की स्मृति में इस दिन आनंदोत्सव मनाया जाता था। सम्राट विक्रमादित्य ने इस संवत्सर की शुरुवात की थी, इसीलिए उनके नाम से ही इस संवत का नामकरण हुआ है।
इस नववर्ष के स्वागत उत्सव को भारत के विभिन्न प्रांतों में अलग-अलग नामों से मनाया जाता है-जैसे कि महाराष्ट्र में ‘गुड़ी पड़वा’, जम्मू-कश्मीर में ‘नवरेह’, सिंधियों में ‘चेटीचंद’, केरल में ‘विशु’, असम में ‘रोंगली बिहू’, आंध्र, तेलंगाना तथा कर्नाटक में ‘उगादी’ और मणिपुर में ‘साजिबू नोंग्मा पन्बा चैराओबा’। वर्तमान में उत्तर भारत में भी गुड़ी पड़वा पर्व मनाया जा रहा है।
सृष्टि आरम्भ का भी पर्व
चैत्र मास की शुक्ल प्रतिपदा को ही गुड़ी पड़वा कहते हैं। इस दिन से हिंदू नववर्ष का आरंभ होता है। गुड़ी का अर्थ है विजय पताका। कहा जाता है कि इसी दिन ब्रह्माजी ने सृष्टि का निर्माण किया था। इसी दिन से नया संवत्सर भी शुरू होता है। अत: इस तिथि को ‘नवसंवत्सर’ भी कहते हैं।
इसी दिन से चैत्र नवरात्रि का आरंभ भी होता है। चैत्र ही एक ऐसा महीना है, जिसमें वृक्ष तथा लताएं फलते-फूलते हैं। शुक्ल प्रतिपदा का दिन चंद्रमा की कला का प्रथम दिवस माना जाता है।
जीवन की मुख्य आधार वनस्पतियों को सोमरस चंद्रमा ही प्रदान करता है। अतः इसे औषधियों व वनस्पतियों का राजा भी कहा गया है और इसीलिए इस दिन को वर्षारंभ माना जाता है।
ऐसे करें नववर्ष का स्वागत
संवत्सर-चक्र के अनुसार सूर्य इस ऋतु में अपने राशि-चक्र की प्रथम राशि मेष में प्रवेश करता है। इस समय के दौरान जलवायु और सौर प्रभावों का एक महत्वपूर्ण संगम होता है। चैत्र नवरात्रि के दौरान उपवास करके शरीर को आगामी ग्रीष्म ऋतु के लिए तैयार किया जाता है। इस समय हमारे शरीर में नए रक्त का निर्माण और संचार होता है।
नवसंवत्सर के दिन नीम की कोमल पत्तियों और ऋतु काल के पुष्पों का मिश्रण बनाकर उसमें काली मिर्च, नमक, हींग, मिश्री, जीरा और अजवाइन मिलाकर खाने से रक्त विकार, चर्मरोग आदि शारीरिक व्याधियां होने की आशंका नहीं रहती है तथा वर्षभर हम स्वस्थ और रोग मुक्त रह सकते हैं।
नया संवत्सर प्रारंभ होने पर भगवान सूर्य की पूजा अर्ध्य देकर प्रार्थना के साथ करनी चाहिए। ‘‘हे भगवान! आपकी कृपा से मेरा वर्ष कल्याणमय हो, सभी विघ्न बाधाएं नष्ट हों’’।
दुर्गाजी की पूजा के साथ नूतन संवत की पूजा करें। घर को वंदनवार से सजाकर पूजा का मंगल कार्य करें। कलश स्थापना और नए मिट्टी के बरतन में जौ बोएं और अपने घर में पूजा स्थल में रखें।