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“दान-धर्म को प्रतिष्ठा-प्रदर्शन बनाना”- उचित अथवा अनुचित?

कहावत है दान-धर्म कुछ ऐसे किया जाए कि अगर एक हाथ दान-धर्म करे तो दूसरे हाथ को भी इसका भान ना हो ; पर आम दिन की तो बात छोड़िए जनाब आज कोविड जैसी वैश्विक महामारी के दौर में जरूरतमंदों का दान-धर्म देकर उसका ढिंढोरा पीटकर उनकी जरूरतों का मजाक बनाया जा रहा है।

अधिकांश दानदाता दान को कई-कई गुना अधिक दान-धर्म बताकर वाह-वाही लूट रहे हैं। इसके कारण जरूरतमंद समाज-बंधु स्वयं को निम्न समझकर अपनों से ही कतराने लगे हैं। आवश्यकता होने पर भी अपने स्वाभिमान को बचाने के लिए अपनी लाचारी छुपाकर भूखे-पेट सोने को मजबूर हैं। काम-धंधों के मंद-बंद पड़ने के कारण बढ़ती बेरोजगारी से उनकी रही-सही पूंजी भी साफ हो रही है। उनकी शारीरिक, मानसिक और आर्थिक स्थिति नाजुक है।

क्या ऐसे समय में दान-धर्म को सोशल मीडिया के जरिये भूनाना सही है अथवा यही सही समय है समाज में अपनी प्रतिष्ठा-प्रदर्शन का? आइये जानें इस स्तम्भ की प्रभारी सुमिता मूंदड़ा से उनके तथा समाज के प्रबुद्धजनों के विचार।


दान-धर्म निःस्वार्थ भाव से किया जाए
सुमिता मूंधड़ा, मालेगांव

कहावत है कि दान-धर्म कुछ ऐसे किया जाए कि अगर एक हाथ दान-धर्म करे तो दूसरे हाथ को भी इसका भान ना हो; पर आम दिन की तो बात छोड़िए जनाब आज कोविड जैसी वैश्विक महामारी के दौर में जरूरतमंदों को दान देकर उसका ढिंढोरा पीटकर उनकी जरूरतों का मजाक बनाया जा रहा है।

सुमिता मूंधड़ा

अधिकांश दानदाता दान को कई-कई गुना अधिक दान-धर्म बताकर वाह-वाही लूट रहे हैं। इसके कारण जरूरतमंद समाज-बंधु स्वयं को निम्न समझकर अपनों से ही कतराने लगे हैं। आवश्यकता होने पर भी अपने स्वाभिमान को बचाने के लिए अपनी लाचारी छुपाकर भूखे-पेट सोने को मजबूर हैं। काम-धंधों के मंद-बंद पड़ने के कारण बढ़ती बेरोजगारी से उनकी रही-सही पूंजी भी साफ हो रही है।

उनकी शारीरिक, मानसिक और आर्थिक स्थिति नाजुक है। ऐसे समय में अपनी सामाजिक-साख को बढ़ाने के लिए दान-धर्म को सोशल मीडिया में परोसना उचित नहीं है। इस प्रचार-प्रसार का एक सकारात्मक पहलू यह जरूर है कि यह दान-धर्म औरों के लिए प्रेरणा का भी स्रोत बन जाता है, एक-दूसरे को देखकर भी लोग जरूरतमंदों की तरफ सहायता का हाथ बढ़ाते हैं।

दूसरों के लिए प्रेरणा अवश्य बनें पर कुछ इस तरह की दान लेनेवाले का अहम और स्वाभिमान आहत ना हो। अगर दान-धर्म को सोशल मीडिया में जाहिर करें भी तो दान लेनेवाले का परिचय और तस्वीर को स्वयं तक सीमित रखें। दान का पूर्ण फल भी तभी प्राप्त होता है जब दान नि:स्वार्थ भाव से किया जाए।


मदद लेने वाले के नाम का उल्लेख करना हमारी सभ्यता के खिलाफ
कमल गांधी, कोलकाता

दोनों पहलू पर बात करूंगा एक पहलू यह है कि चूंकि व्यक्ति दान देता है, सहयोग करता है, तो उसको अपने व्यक्तिगत प्रचार व प्रसिद्धि के लिए यह नहीं करना चाहिए। ये शिष्टता और सभ्यता के खिलाफ है। लेकिन जो लोग ये समझते हैं कि इससे लोगों को प्रेरणा मिलेगी और लोग आगे आएंगे, तो उनका यह पहलू भी तर्कसंगत है। इसको भी अस्वीकार नहीं कर सकते।

मुझे आज पता लगे कि कोविड के समय में मेरे पड़ोसी के परिचित ये काम कर रहे हैं, तो मुझे भी प्रेरणा मिल सकती है, यह तभी सम्भव है जब मुझे पता चले।

कमल गांधी

आज के दौर में ऐसे लोग मिलना बहुुत मुश्किल है, जो गुप्त दान करें। इसे आज के समय में स्वीकार कर लेना चाहिए। जो दान या सहयोग करेंगे वे लोग अपना नाम धर्मशालाओं, भवनों में लिखवाते ही हैं। इससे संतोष मिलता है और उसको मैं बहुत गलत नहीं मानता। लेकिन हम गुप्तदान दे दें, सहयोग कर दें और अपना नाम भी नहीं आने दें, इतनी बड़ी ऊंचाई तक पहुंचने के लिए जो मानसिकता चाहिये वह आज के वातावरण में संभव नहीं है।

क्योंकि वह जानता है कि मैं जो भी सहयोग जिस संस्था को करूंगा, वहां के पदाधिकारी भी उसका श्रेय लेंगे और वो लोग हमको श्रेय नहीं देगे इसलिए वह चाहता है कि उनका नाम आना चाहिए। उदाहरण के लिए महासभा भी है। मुझे ऐसा लगा दोनों पहलू में कि जिसको सहयोग दिया जाता है, उसके नाम का उल्लेख नहीं होना चाहिए बल्कि उसे गुप्त ही रखा जाना चाहिए।

इसी में हमारी सभ्यता है क्योंकि उसके नाम को प्रस्तुत करना वह उसका अपमान ही है। इससे उसके मन में हीन भावना पैदा होगी, हम लोग इसके पक्षधर बिल्कुल भी नहीं है। ये होना भी नहीं चाहिए।

देने वाले अपना नाम कर देवें ये एक बात अलग है लेकिन लेने वाले का नाम सबके सामने उजागर करेंगे, तो उसका अपमान होगा। इससे आप जो कर रहे हैं, उसका मूल्य घट जाएगा। ये बहुत निम्न स्तर का काम होगा। ये शोभा देने लायक नहीं है।


लोक मान्यता अनल सम कर तप कानन दाहू
हरिप्रकाश राठी, जोधपुर

अभी कुछ वर्ष पूर्व की बात है जब एक क्लब में गरीब, असहाय विधवाओं को सिलाई मशीनें बांटी जा रही थी, पदाधिकारी इनके साथ फोटो खिंचवा रहे थे तो मैंने चलती सभा में ही इस बात का विरोध किया कि इस तरह किसी के स्वाभिमान को रौंद कर सहायता देना दान के मूल महत्व को समाप्त कर देना जैसा है। बेहतर यही होगा कि ये मशीनें आप इनके घर जाकर दें एवं इनका नाम तक जगजाहिर न हो।

हरिप्रकाश राठी

इसका असर यह हुआ कि ठीक वही किया गया जो मैंने कहा, इतना ही नहीं आगे भी ऐसे सहयोगों के लिए यह परिपाटी बना दी गई। आखिर हम दान का प्रदर्शन कर, अखबारों में तस्वीरें छपवा कर क्या प्राप्त करना चाहते हैं? प्रदर्शन दान के महत्व को ही समाप्त कर देता है।

ईश्वर ने अगर हमें धन दिया है तो यह हमें उसकी बख्सी हुई नेमत है। ऐसे में उसकी कृपा को हम इस तरह से दें कि लेने वाले को कोई कष्ट न हो, उसे गर्दन नीचे न झुकानी पड़े। ऐसा करने से लेने वाले का स्वाभिमान तो बचेगा ही, आपकी आत्मा भी प्रमुदित, पुष्ट होगी। आज कोरोनाकाल में भी हमारे अनेक भाईयों पर गाज गिरी है।

लॉकडाऊन से व्यापार बंद हो गए फिर कई घरों में कोरोना हो जाने से स्थिति कोढ़ में खाज वाली बन गई। ऐसे में हमारे समर्थ भाई गुपचुप उन्हें मदद करें, उन्हें हौंसला दें। इससे वे आपको ढेरों दुआएं देंगे और ये दुआएं ही आपकी अपनी विपत्तियों में कवच बन कर आपकी रक्षा करेंगी।

समय किस का सगा रहा है? उसका मिज़ाज़ बदलते देर नहीं लगती। प्रसंगवश मुझे तुलसी याद हो आए हैं, जो मानस के उत्तरकाण्ड में क्या खूब लिखते हैं-लोकमान्यता अनल सम कर तप कानन दाहू अर्थात् प्रदर्शन की चाह उस अग्नि की तरह है जो हमारे सम्पूर्ण तप को दग्ध कर देती है।


क्या सही क्या गलत ये चिंतनीय
विकास चांडक, जोधपुर

हम किसी समाज की संतान से पहले भारतीय हैं। भारत परोपकार, त्याग, तप का गर्भ है, विश्व कल्याण का भाव प्रथम पंक्ति में संझों ‘सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे संतु विरामया’ के प्रादुर्भाव से हमारे वजूद में शामिल है।

महामारी आज से नही सैंकड़ों वर्षों से अलग अलग रूप में हमारे दरवाजों पर अपना भिन्न-भिन्न रूप लेकर आयी। उस समय भी प्लेग, भूखमरी का स्वरूप यही था और उसकी क्षति भी मानव को आज की तरह ही होती थी। मेरी पुस्तक ‘अनदेखी’ में इन दोनों महामारियों से जुड़े किस्से शामिल हैं, जो आज की परिस्थिति के अनुरूप ही लगते हैं। केवल अंतर इतना ही है कि उस समय किसी भी मानव में महत्वाकांक्षा का भाव उदारवादिता व परोपकार के भाव की तुलना में न के बराबर था।

विकास चांडक

हो सकता है तकनीक, विज्ञान, विकास के प्रभाव से मनुष्य इस सत्य को स्वीकारने से कतराए परंतु हमारे भीतर के देवता से हम मुंह नही फेर पाएंगे। हां प्रोत्साहन तो इस युग में बढ़-चढ़ कर अपना स्थान प्राप्त कर चुका है, हमे हतोत्साह का भय नहीं, किन्तु सहायता प्राप्त करने वाले अपने आपको ऋणी अवश्य महसूस करता है और सहायता का प्रचार उस ऋण को भूलने नहीं देता।

अब यह प्रचार, यह दृश्य व दान सही है या गलत कहना संभव नहीं। यह हमारे लिए विचारणीय अवश्य है। हमारे विचार व मूल को दर्शाने का दर्पण भी है। मेरा मानना ओर समझना यह है कि हम स्वयं के भीतर से दूरी बना हर कार्य व कल्याण भाव को स्पर्धा बना ही चुके है।

अगर हमें यह उचित लगता है तो सोचना चाहिए, किसी के विचार से भेद होना गलत नहीं परंतु स्वयं के भीतर से भेद होना पीड़ादायक अवश्य है।


शर्मिन्दगी से बड़ी जिंदगी है
प्रो. डॉ. पंकज माहेश्वरी, उज्जैन

वर्तमान कोरोना काल में हमारे समाज में कई परिवार ऐसे हैं जो घोर आर्थिक संकट से जूझ रहे हैं। उनके आय के साधन बंद हो गये हैं, परिवार के लिए दो समय का खाना जुटाना भी समस्या बन गया है। ऐसी विकट परिस्थिति में समाज के साधन सम्पन्न लोगों से अपेक्षा की जाती है कि वे मदद के लिए आगे आएं।

डॉ. पंकज माहेश्वरी

यह सुखद बात है कि कई लोग आगे आकर सहायता भी दे रहे हैं। सहायता करने वालों में दो तरह की सोच के लोग हैं। एक तो वे जो बिना किसी शोर-शराबे के गुप्त रूप से मदद करते हैं लेकिन ऐसे लोगों की संख्या नगण्य है। दूसरी तरह की सोच वाले लोग तो अपने सम्मान, प्रतिष्ठा वृद्धि के लिए दान या सहायता करने के साथ अपना नाम भी चाहते हैं।

अब प्रश्न यह है कि क्या उचित है क्या अनुचित है? हमारे धर्मग्रंथों में तो लिखा है कि गुप्त रूप से दिया गया दान या सहायता ही फलदायी होती है। फिर भी जो अधिकांश लोग दान देने के साथ – साथ अपना नाम भी चाहते हैं तो इसमें क्या अनुचित है? ऐसा करने से अन्य लोग भी दान देने के लिए प्रेरित होते हैं।

मनोवैज्ञानिक मत के अनुसार जब आप किसी की सहायता करते हैं तो आपके भीतर मनोतृप्ति वाले हारमोन स्त्रावित होने लगते हैं जो आपके अंदर सुख का संचार करते हैं। यदि सहायता पाने वाले कुछ लोग शर्मिन्दगी महसूस भी करते हैं तो उसे नजरअंदाज कर देना चाहिए क्योंकि शर्मिन्दगी से बड़ी जिंदगी है।

सहायता के अभाव में यदि कुछ लेग अपने जीवन से हाथ धो बैठते हैं तो इससे बुरी बात क्या होगी?



Via
Sri Maheshwari Times

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