पीड़ा को विस्मृत करें, सृजन के संकल्प को स्मृति में रखें
दुर्घटनाएँ सभी की ज़िन्दगी में होती रहती है। आदमी बड़ा हो या छोटा, जीवन में कभी न कभी हादसों से गुज़रना ही पड़ता है। सभी महान व्यक्ति जीवन में विपरीत हालात का सामना कर चुकें हैं लेकिन यदि दृष्टि आध्यात्मिक हो तो हादसे से हुए विनाश में भी सृजन किया जा सकता है। सृजन की यही वृत्ति हमें दुख, पीड़ा, कष्ट, परेशानी और निराशा से उबार लेगी।
श्रीराम ने सीता अपहरण जैसे विपरीत हालात देखे थे तो श्री कृष्ण ने अपने बचपन में दुर्घटनाओं की लम्बी श्रृंखला देखी थी। वृंदावन के वन में आग लग जाना, पिता नंदबाबा पर राक्षसों के आक्रमण आदि। महावीर ने अपनों से दुर्घटनाएँ झेली तो मोहम्मद ने इस्लाम को हादसों के बीच गुज़ारकर सलामत स्थापित किया था। कौन बचा है कुदरत की मार से।
हादसे तो होते ही हैं, सवाल है की उनका सामना कैसे किया जाए। भागवत में कहा है याद करने पर बीता हुआ सुख भी दुख देता है तो फिर दुख तो दुख देगा ही। जीवन में हुई दुर्घटनाओं के बाद उसकी पीड़ा को जितना जल्दी विस्मृत कर देंगे उतनी ही शीघ्रता से नया सृजन कर पाएंगे। इसलिए पीड़ा को विस्मृत करें और सृजन के संकल्प को स्मृति में रखें।
राम-कृष्ण से लेकरअब तक जितने भी महान लोग हुए हैं उन्होंने जीवन के विपरीत हालत में पीड़ा को भी सुख में बदलने की कला सिखाई। आध्यात्म ने कहा है अपने साक्षी हो जाओ। इसी साक्षी भाव को जागरण, ध्यान, मुक्ति कहा गया है, जो भीरु होते हैं वे भगवान् को उपलब्ध नहीं होते। भगवान् ने कहा, “मैंने जो जीवन दिया है उसे विपरीत परिस्थितियों में आपने कैसे गुज़ारा, मैं उसका भी हिसाब रखता हूँ।”
इसलिए जब संकट आए तो बाहर की व्यवस्थाएँ तो हमें अपने कर्म से जुटानी हैं लेकिन अंतर्मन की व्यवस्थाओं को अध्यात्म से सुनियोजित करना है। परिणामतः भीतर से हम शांत होंगे और बाहर बेहतर नवसृजन कर पाएंगे।
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