सुख की भी अपनी पीड़ा होती है और पीड़ा का भी सुख होता है
दुख कोई नहीं चाहता इसलिए सुख के पीछे हर कोई भागता है। दुख मिलता है तो पीड़ा होती है, लेकिन सुख मिलने पर सुकून मिल ही जाए यह भी जरुरी नहीं। सुख की भी अपनी पीड़ा होती है और आध्यात्म समझाता है कि पीड़ा का भी अपना सुख होता है।
महाभारत के एक पात्र को समझा जाए जिनका नाम है ‘भीष्म’। इनका सारा जीवन सुख की पीड़ा और पीड़ा के सुख के बीच में बीता। दोनों ही स्थितियों में इस व्यक्ति ने भगवान की भक्ति नहीं छोड़ी। ऊपर से भीष्म जितने सांसारिक दिखते थे, भीतर से उतने ही आध्यात्मिक थे।
वे राजगद्दी से जुड़े हुए नज़र आते थे लेकिन उनकी दृष्टि परम पद पर टिकी हुई थी। स्वयं राजा थे, कई राजाओं को बनाने और बिगाड़ने वाले थे। वे यह जानते थे कि- वो एक शख्स जो तुझसे पहले तख्तनशीं था, उसको भी अपने खुदा होने का उतना ही यकीन था।
न तख़्त रहते हैं न ताज। बड़े-बड़े राजा आम आदमी की तरह दुनिया से चले जाते हैं। भीष्म का अपना बड़ा परिवार, कुनबा या कुटुंब था, सारे सुख थे उनके पास, पर उतनी ही पीड़ा भी थी। वे दुर्योधन को नियंत्रण में नहीं रख पाए। कुरुवंश की नई पीढ़ी उन्ही के सामने अमर्यादित हो गई। यह सुख की पीड़ा है।
इसी में से उन्होंने पीड़ा का सुख भी उठाया। यह दृश्य आज भी कुछ परिवारों का हो सकता है लेकिन भीष्म ने हमें अपने चरित्र से बताया है कि मनुष्य छिपा हुआ परमात्मा है। एक तरह से परमात्मा का बीज है, मनुष्य। परमात्मा खिला हुआ रूप है और मनुष्य अधखिला परमात्मा।
हर एक के भीतर परमात्मा है बस, “मैं” का भाव हटाओ कि ईश्वर प्रकट हो जाएगा। सुख की पीड़ा तो उन्होंने बहुत देखी थी। जब अंतिम समय वे शरशैया पर थे तो उनकी मृत्यु की गवाही देने श्रीकृष्ण स्वयं उपस्थित हुए थे।
यह पीड़ा का सुख था। किसी भी परिवार के मुखिया के लिए भीष्म का जीवन अपने आप में एक सबक है, एक शिक्षा है, एक प्रबंधक है। चाहे तो हम भी इस सुख को उठा सकते हैं। बस इतना कीजिये, जरा मुस्कुराइए।