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स्नेह के रंगों में भिगोने का पर्व- Holi

होली (Holi) का जिक्र होते ही हमारे मन-मस्तिष्क में अजीब प्रसन्नता व उत्साह भर उठता है, इस कल्पना के साथ कि हम अपने मित्रों को इस दिन स्नेह के रंग से सराबोर करेंगे। वाकई में यह पर्व न सिर्फ वर्तमान में दुनिया के कई देशों में मनाया जा रहा है बल्कि पौराणिक काल से यह किसी न किसी रूप में अवश्य ही मौजूद रहा है।

सभी के उत्साह के कारण होली एक अंतराष्ट्रीय, सामाजिक व धार्मिक त्यौहार माना जाता है। यह बच्चे, बड़े, नर-नारी सभी द्वारा जातिभेद भुलाकर, द्वेषभाव भुलाकर प्रेम व भाईचारे से मनाने का पर्व है। यह मित्रता, एकता, आनंदोल्लास, सद्मिलन व सद्भावना का प्रतीक है। फाल्गुन पूर्णिमा के दिन सम्पूर्ण भारत वर्ष में होलिका दहन का विधान है।

बस वर्तमान दौर में पानी की बचत व केमिकल के दुष्प्रभाव से बचने के कारण इसमें कुछ परिवर्तन दिखाई दे रहा है। हर कोई पानी में घुलने वाले की बजाए सूखे रंग से होली खेलना चाहते हैं। यह वक्त की मांग है। ‘‘जल है, तो कल है।’’ अत: आइये इस पर्व पर लें, जल संरक्षण की भी शपथ। वर्तमान में इस पर्व की विशेषता यह भी है कि इसका आयोजन अब देश की सरहदों से पार कई अन्य देशों में भी हो रहा है।


ब्राह्मणों द्वारा सभी दुष्टों तथा रोगो को शांत करने का वसोर्धारा होम भी इसी दिन किया जाता है। इसलिये इसे होलिका भी कहा जाता है। एक मान्यता मे इस पर्व का सम्बंध ‘काम दहन’ से भी है। भगवान श्री शिवजी ने अपनी क्रोधाग्नि से कामदेव को भस्मकर दिया था, तभी से इस त्यौहार का प्रचलन हुआ। प्रचलित मान्यताओं के अनुसार यह त्यौहार हिरण्यकश्यप की बहन होलिका और पुत्र प्रहलाद की स्मृति में भी मनाया जाता है।

कहा जाता है, हिरण्यकश्यप की बहन राक्षसी होलिका वरदान के प्रभाव से नित्य अग्निस्नान किया करती थी और जलती नहीं थी। हिरण्यकश्यप का पुत्र प्रहलाद विष्णुभक्त था। हिरण्यकश्यप ने उसे मारने के लिये कई उपाय किये परंतु प्रहलाद को कुछ भी नहीं हुआ। इसलिये अपने पुत्र प्रहलाद को अपनी बहन की गोद में देकर अग्निस्नान करने को कहा।

जिस दिन होलिका प्रहलाद को गोद में लेकर अग्निस्नान करने वाली थी, उसी दिन सभी लोगों ने अग्नि प्रज्जवलित करके अग्निदेव से प्रहलाद की रक्षा के लिये प्रार्थना की। अग्नि देवता ने प्रार्थना स्वीकार करके होलिका के अग्निस्नान के समय प्रहलाद को तो बचा लिया और होलिका उस अग्नि में भस्म हो गयी। अत: फाल्गुन पूर्णिमा को भक्त प्रहलाद की स्मृति में और असुरों के विनाश की खुशी में यह पर्व मनाया जाता है।


भविष्य पुराण में महाराज युधिष्ठर ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा- भगवान, फाल्गुन पूर्णिमा को उत्सव क्यों माना जाता है?’ तो उन्होंने बताया – सत्ययुग में एक दानवीर, शूरवीर-सर्वगुण संपन्न रघु नामक राजा थे।एक दिन नगर के लोग राजद्वार पर एकत्रित होकर ‘त्राहि-त्राहि’ पुकारने लगे। पूछने पर बताया कि ‘ठोठा’ नामक एक राक्षसी प्रतिदिन हमारे बालकों को कष्ट देती है और उस पर किसी मंत्र-तंत्र, औषधी आदि का प्रभाव भी नहीं पड़ता। यह सुनकर राजा ने पुरोहित महर्षि वशिष्ठ मुनि से उस राक्षसी के विषय में पूछा। तब वशिष्ठ मुनि ने बताया कि माली नामक एक दैत्य है, उसकी एक पुत्री है, जिसका नाम है ठोठा। उसने उग्र तपस्या करके शिवजी को प्रसन्न कर वरदान लिया है कि देवता, दैत्य, मनुष्य आदि मुझे न मार सकें और शस्त्र-अस्त्र से भी मेरा वध न हो।

शीतकाल, उष्णकाल, वर्षाकाल में, भीतर अथवा बाहर कहीं पर भी मुझे किसी से भय न हो। इन्होंने बताया कि केवल ‘अडाड’ मंत्र के उच्चारण से ही वह शांत हो सकती है। इससे पीछा छुड़ाने का उपाय भी वशिष्ठ मुनि ने बताया कि फाल्गुन मास की पूर्णिमा को सभी निडर होकर नाच गा कर उत्सव मनायें और बालक लकड़ियों की बनी हुई तलवार लेकर युद्ध के लिये दौड़ें और उत्सव मनायें।

सुखी लकड़ी, सुखे उपले, सुखे पत्तों आदि के अधिक से अधिक ढेर लगायें। उस ढेर में रक्षोध्न मंत्र से अग्नि लगाकर हवन करें। इस प्रकार रक्षा मंत्रों से हवन करने से उस दुष्ट राक्षसी का निवारण हो सकेगा। जब राज्य में ऐसा उत्सव मनाया गया, तो इससे उस राक्षसी का विनाश हुआ। तबसे इस लोक में ठोठा का उत्सव प्रसिद्ध हुआ।


होली का आरम्भ ज्ञात हो पाना बड़ा ही कठिन है किंतु वेदों व पुराणों में भी उल्लेख आता है। अतः इसे वैदिक कालीन पर्व माना जा सकता है। वैदिक काल में इसे ‘नवान्नेष्ठि यज्ञ’ पर्व भी कहा जाता था। इस हवन में खेतों की फसल का नया अन्न यज्ञ में हवन करके प्रसाद लेने की परम्परा भी है। उस अन्न को ‘होला’ कहते हैं। इसी से पर्व का नाम होलिकोत्सव पड़ा।

अत: वास्तव में देखा जाए तो यह एक वैदिक पर्व है या कहें एक वैदिक महायज्ञ। यही कारण है कि इस पर्व पर होली में गेहूं की बालियाँ सेके जाने का विधान आज भी है।


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