कितना उचित या अनुचित ? समाज संगठनों से जुड़े रहना।
जिस समाज में हम रहते हैं, अपने सुख-दुःख बांटते हैं, हमे उन समाजजनो के साथ घुल मिलकर रहना चाहिए। इसी सोच के कारण परस्पर हित की भावना से सामाजिक संगठनों की स्थापना हुई। धीरे-धीरे इस संगठनों में वर्चस्व की लड़ाई तथा सामाजिक राजनीति इतनी हावी होती चली गई कि लोग पद-प्रतिष्ठा के लिए एक दूसरे को नीचा भी दिखाने में नहीं चुकते। ऐसी स्थितियों के कारण भी युवा वर्ग समाज संगठन से दूरी बनाकर रख रहा हैं।
ऐसे में यह विचारणीय हो गया हैं कि समाज संगठनों से जुड़े रहना कितना उचित हैं या अनुचित ? क्या हम संगठन में उत्पन्न हुई इन विद्रुपताओं के कारण संगठन से दूर हो जाए अथवा कुछ ऐसा करे, जिससे संगठन और भी मज़बूत बने। ऐसे में इस विषय पर सामाजिक चिंतन अनिवार्य हैं। आइये जाने इस स्तम्भ कि प्रभारी सुमिता मूंधड़ा जी से उनके तथा समाज के प्रबुद्धजनों के विचार।
सामाजिक संगठनों से जुड़ना आवश्यक
सुमिता मूंधड़ा, मालेगांव
जिस समाज में हम रहते हैं, अपने सुख-दुख बांटते हैं, हमें उन समाज बंधुओं और संगठनों से जुड़कर रहना चाहिए। आधुनिक भागदौड़ भरी जीवनशैली में अगर हम राष्ट्रीय सामाजिक संगठनों से ना भी जुड़ पाएं तो कम से कम स्थानीय संगठनों से तो जुड़े रहना ही चाहिए। समाज-बंधुओं के साथ हम अपनी खुशियां बांटकर बढ़ा सकते हैं।
आड़े समय में अगर हमारा परिवार पास ना भी रहे तो स्थानीय समाज बंधु-बांधव हमारे साथ परिवार-सम खड़े रहते हैं। आपसी संपर्क से हम अपनी छोटी-बड़ी समस्याओं को हल कर सकते हैं। अपने बच्चों के वैवाहिक रिश्तों को जोड़ने और आवश्यक जानकारी प्राप्त करने में सामाजिक संगठन व समाजजन हितकारी होते हैे। हमारा सामाजिक संपर्क हमारे व्यापार-व्यवसाय में भी काम आता है। कभी-कभी तो स्थानीय संगठनों की सिफारिशों से हमारे अटके काम भी झटके में पूरे हो जाते हैं।
संगठन में शक्ति होती है, अगर किसी समाज-बंधु के साथ कोई अन्याय या दुर्व्यवहार हो तो पूरा समाज अन्याय के खिलाफ एकाकार हो जाता है। कहीं-कहीं पर सामाजिक संगठन में होने वाली राजनीति और मतभेद के कारण नव पीढ़ी सामाजिक संगठनों की अपेक्षा दोस्तों पर अधिक भरोसा करने लगी है। नवपीढ़ी को समाज से जोड़ने और संगठनों पर भरोसा बढ़ाने की दिशा में अनुभवी कार्यकर्ताओं को विचार करना चाहिए।
सामूहिक शक्ति का रूप है संगठन
पूजा काकानी, इंदौर
‘एक अकेला चना कभी भाड़ नहीं फोड़ सकता’, इसीलिए हम सभी एक दूसरे के बिना अधूरे हैं और अकेले रहकर हमारी शक्ति का कोई अस्तित्व नहीं।’ संगठन में शक्ति होती है’ चाहे वह सामाजिक हो या अन्य कोई भी। एकता के साथ हर नामुमकिन कार्य मुमकिन हो जाता है। अगर हम मिलकर रहेंगे तो हमें कोई भी हिला भी नहीं सकेगा। समाज में संगठित रहें कर कठिन से कठिन कार्य भी हम सरल कर सकते हैं। समाज में एकता से हमारा अस्तित्व कायम रहता है, विभाजन से हमारा पतन होता है।
इसीलिए समाज में संगठित होइए, नही तो ना तो संस्था बचेगी और ना ही समाज। ‘संघे शक्ति कलियुगे’। सामाजिक संगठन व्यक्तियों का ऐसा संगठन है जिसके सम्मिलित उद्देश्य होते हैं। सदस्यों के बीच कार्य का बंटवारा होता है, सामाजिक संगठन के कुछ निश्चित नियम होते हैं जिनके आधार पर व्यक्ति, सभी व्यक्ति अपनी भूमिका का निर्वाह करते हैं। समाज का निर्माण करने वाली अनेक इकाइयां होती है। उन्हें निश्चित पद तथा कार्य सोपे जाते हैं।
इसीलिए एक मानव के लिए इससे जुड़े रहना बहुत ही उचित एवं उपयोगी है। इतना ही नहीं सामाजिक संगठन के अंतर्गत एक समाज या सामाजिक संरचना को एक ‘क्रियाशील संगठन’ के रूप में देखते हैं। संगठन, घड़ी की सुइयों जैसा होना चाहिए भले ही एक फास्ट हो, भले ही एक स्लो हो, भले ही एक छोटा हो, भले ही एक बड़ा हो, लेकिन किसी की 12 बजानी हो, तो सभी एक साथ हो जाऐं, कामयाबी तो पक्की है।
नकारात्मक सोच को करें दूर
महेश कुमार मारू,मालेगाँव
सामाजिक संगठनों में जो भी विषमतायें प्रादुर्भूत हुईं हैं, उनका उत्तरदायित्व मात्र कार्यकर्ताओं, पदाधिकारियों का नहीं, वरन सभी सामाजिक घटकों का है। नीतियां निर्धारित की जाती हैं। उनका अनुपालन करना एवं करवाना बहुत आवश्यक होता है। इसमें समाज का सहयोग यदि उचित मिलता है, तो उसके अनुकूल परिणाम भी दृष्टिगोचर होते हैं और नीतियों का संचालन उपयुक्त पद्धति से न हो, और कारणवश समाज उन नीतियों के लाभों से वंचित रह जाय, तब प्रशासकों के विरोध में स्वर गूंजने लगते हैं, जो कि कुंठा को जन्म देते हैं।
तब आरोप प्रत्यारोप, एक दूसरे को नीचा दिखाने की हीन भावनायें जागृत करने की मानसिकता प्रबल हो जाती है, जो कि न तो समाज के लिये, न अधिकारियों के लिये और न ही संगठनों के लिये शुभ होती है। परिणामत: इन सभी घटनाक्रमों का युवा पीढी पर नकारात्मक असर होकर, उनका सामाजिक संगठनों से जुड़ने का रुझान कम होने लगता है।
किसी भी समाज के लिये संगठनों से दूरी, वह भी विशेष कर युवा पीढी की उचित नहीं है। सभ्य और संस्कार युक्त समाज में संगठन रीढ की हड्डी होते हैं। इसलिये संगठनों में आई कुरीतियों को समाप्त कर युवा पीढ़ी में संगठनों के प्रति नकारात्मक सोच को समाप्त करना वर्तमान पीढ़ी का उत्तरदायित्व है।
आत्म मंथन जरूरी
पूजा नबीरा, काटोल नागपुर
सामाजिक संगठन समाज की भलाई के लिये गठित हुए और एक वैचारिक क्रांति का उत्तरदायित्व लिए इनका विस्तार किया गया। एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी सामजिक संगठनों पर थी कि समाज को दिशा निर्देश करें व संगठित कर समस्याओं का समाधान भी करें। यद्यपि इन्हें निरर्थक नहीं कहा जा सकता किन्तु यह सभी जानते हैं, इन पर उन्हीं का प्रभुत्व हुआ जो अत्यंत सक्षम एवम धनाढ्य हैं। सामाजिक स्तर पर भी पक्षपात एवं भाई भतीजावाद कण-कण में व्याप्त है।
सामाजिक प्रतिष्ठा एवं पहुँच होने पर ही पदों का वितरण सम्भव है। साथ ही विकास के मुद्दे से अधिक अनर्गल बातों पर बहस एवं चर्चा होती रही है। किन्तु समाज को संगठित कर सभी को आपस में जोड़ने का कार्य सामाजिक संगठन द्वारा किया गया है। इस पर कोई प्रश्न चिन्ह नहीं है। बस व्यक्तिगत स्वार्थ इस पर हावी न हो। सभी एक दूसरे की भावनाओं का समुचित सम्मान करें एवं सकारात्मक विचारों की श्रृंंखला सदैव जागृति की अलख जगाकर आत्म मन्थन करवाती रहे, यही सामाजिक संगठनों का उद्देश्य होना चाहिये।
युवाओं की समग्र सोच समाज कल्याण के लिए आवश्यक
मनीषा राठी, उज्जैन
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज के सदस्य सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए सामाजिक संगठनों की स्थापना करते हैं। इन सामाजिक संगठनों से जुड़कर व्यक्ति को एक नयी पहचान मिलती है। किंतु व्यक्तिगत स्वार्थ से परे निस्वार्थ भावना से सेवा करना संगठन की प्राथमिकता हो तो ऐसे संगठन वास्तव में एक आदर्श स्थापित कर सकते हैं। ऐसा तभी सम्भव है जब संगठन का नेतृत्व सुदृढ़ हाथों में हो और उसका स्वरूप प्रजातांत्रिक हो। निर्णयों में पारदर्शिता का समावेश हो।
जमीनी कार्यकर्ता को भी उतना ही सम्मान मिले जो शीर्ष पदस्थ व्यक्ति को। हालाँकि यह भी संभव नहीं है कि किसी विषय पर सभी व्यक्तियों का मत एक जैसा ही हो। प्रत्येक व्यक्ति किसी विषय या समस्या को अपने नजरिये से ही देखता है और इसी आधार पर उसका समाधान भी खोजता है। लेकिन जब बात संगठन की आती है तब मनुष्य को वही करना चाहिए जिससे ज्यादा से ज्यादा लोगों का भला हो। वर्तमान समय में देखा जाए तो सामाजिक संगठनों में पूँजीवाद के विस्तारण को नकारा नही जा सकता।
ये वो दौर है जहाँ समाज सेवा के नाम पर सत्ता पाने की और प्रसिद्धि पाने की होड़ सी लगी है। हर सिक्के के दो पहलू होते है। अतः युवा प्रबुद्ध वर्ग को इन सब बातों को नजरअन्दाज करते हुए समाज हित को सर्वोपरि मानते हुए अपने जोश की आहुति समाज कल्याण के यज्ञ में अवश्य देनी चाहिए। आज युवाओं के पास जोश के साथ अलग-अलग दृष्टिकोण और काम करने की अलग-अलग शैली है जिनका विलक्षण संयोग समाज में नयी क्रांति ला सकता है।