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कर्म और भाग्य की युति से बनता है राजयोग

ज्योतिष शास्त्र में कर्म की प्रधानता को स्वीकारा गया है। जन्म कुण्डली के माध्यम से भाग्य और कर्म क्षेत्र का आंकलन किया जा सकता है। किसी व्यक्ति की जन्मकुण्डली में उत्तम भाग्य का संकेत हो परन्तु वह उसकी प्राप्ति हेतु कर्म नहीं करे तो भाग्योदय संभव नहीं होगा। अर्थात भाग्य और कर्म के योग से ही राजयोग की प्राप्ति संभव है।


राजयोग जन्म कुण्डली में बनने वाला एक ऐसा सर्वोत्तम योग है जिसके प्रभाव से व्यक्ति विशेष भाग्यशाली बनता है तथा ऐसे राजयोग आयु, पदवी, धन, भाग्य, प्रतिष्ठा, सुख, संतोष आदि को बढ़ाने वाले होते हैं। प्रबलतम राजयोग का निर्माण जन्म कुण्डली के कर्म व भाग्य (नवम-दशम) भाव के स्वामी ग्रहों की युति से होता है।

जन्म कुण्डली का नवम भाव सभी त्रिकोणों में और दशम भाव सभी केन्द्रों में बली होता है। दशम भाव ही कर्म भाव है जो सबसे बलवान होने के कारण ज्योतिष शास्त्र में कर्म की प्रधानता को प्रमाणित करता है। फलित ज्योतिष के प्रमुख ग्रन्थ लघुपाराशरी में नवम-दशम भाव के स्वामी ग्रहों द्वारा निर्मित श्रेष्ठतम राजयोग के संबंध में कहा गया है कि

‘निवसेतां व्यत्ययेन तावुभौ धर्मकर्मणौः। एकत्रान्यतरो वापि वसेच्चेद्योगकारकौः।।’

अर्थात भाग्येश और कर्मेश की युति होने पर चार प्रकार से राजयोग का निर्माण हो सकता है।

  1. नवमेश और दशमेश आपस में स्थान बदलकर एक दूसरे के भाव में बैठे हों। जैसे वृश्चिक लग्न में नवमेश चन्द्रमा दशम भाव में और दशमश सूर्य नवम भाव में बैठे हों।
  2. नवमेश और दशमेश युति करके एक साथ नवम अथवा दशम भावमें बैठे हों।
  3. यदि केवल नवमेश दशम में हो या केवल दशमेश नवम भाव में हो तो भी राजयोग बनेगा परन्तु यह अल्पबली होगा।
  4. नवमेश दशमेश में दृष्टि संबंध हो।

कैसे बनता है राजयोग

लघु पाराशरी के श्लोक 14 के अनुसार

‘‘केन्द्रत्रिकोणपतयः सम्बन्धेन परस्परम्। इतरैरप्रसक्ताश्चेद् विशेषफलदायकाः।।’’

जन्म कुण्डली में त्रिकोण भाव के स्वामी ग्रह यदि केन्द्र के स्वामियों से आपस में युति, दृष्टि, अथवा राशि परिवर्तन का योग इन्हीं शुभ स्थानों में बनाएं तो राजयोग का निर्माण होता है जिससे जीवन में शुुभ फलों की अधिकता आती है।

राजयोग

परन्तु यदि इन केन्द्रेश और त्रिकोणेष के साथ किसी अन्य भाव के स्वामी भी योग करें तो इस प्रकार बनने वाला राजयोग भंग हो जाएगा और शुभ फलों की प्राप्ति में न्यूनता आएगी। केन्द्रेश और त्रिकोणेश के परस्पर संबंध से राजयोग कैसे बनते हैं, इन्हें कुछ उदाहरणों द्वारा स्पष्ट किया जा रहा है-

  1. केन्द्रेश किसी भी त्रिकोण भाव में त्रिकोणेष के साथ हों। जैसे कर्क लग्न में चौथे (केन्द्र) भाव का स्वामी शुक्र नवम त्रिकोण में गुरु के साथ बैठे।
  2. केन्द्रेश किसी त्रिकोण में हो और त्रिकोणेश किसी भी केन्द्र में हो जैसे कर्क लग्न में ही दशमेश मंगल और सप्तमेश शनि दोनों पंचम भाव में एक साथ बैठे हों।
  3. केन्द्रेश किसी भी त्रिकोण में हो और त्रिकोणेश किसी अन्य त्रिकोण में हो।
  4. केन्द्रेश किसी भी केन्द्र में हो और त्रिकोणेश भी किसी केन्द्र में आ जाए। जैसे कर्क लग्न में नवमेष गुरू लग्न या सप्तम में हो और दशमेश मंगल चतुर्थादि किसी भी केन्द्र में हो।
  5. केन्दे्रश अपने केन्द्र में हो, जैसे कर्क लग्न में लग्नेश चन्द्रमा और नवम् त्रिकोणेश बृहस्पति दोनों लग्न में स्थित हों तब केन्द्रेश व त्रिकोणेश दोनों ही एक प्रकार से त्रिकोण में भी होंगे और केन्द्र में भी। यही कारण है कि यह एक बहुत श्रेष्ठ राजयोग माना जाता है।

केन्द्रेश-त्रिकोणेश योगफल

  1. लग्नेश-चतुर्थेश संबंध से- सुखी जीवन
  2. लग्नेश-पंचमेश संबंध से- विद्वान/ बुद्धिमान
  3. पंचमेश-दशमेश संबंध से- राजकार्यों में कुशल
  4. चतुर्थेश-पंचमेश संबंध से- बुद्धि के प्रयोग से सुखी
  5. पंचमेश-सप्तमेश संबंध से- बुद्धिमती पत्नी से सद्गृहस्थ
  6. चतुर्थेश-नवमेश संबंध से- भाग्योदय से सुखी
  7. सप्तमेश-नवमेश संबंध से- भाग्यशाली पत्नी की प्राप्ति से सद्गृहस्थ
  8. लग्नेश-नवमेश संबंध से- भाग्यवान
  9. दशमेश-लग्नेश संबंध से शरीर सुख- राजसुख
  10. नवमेश-दशमेश संबंध से- भाग्य सुख एवं राज्य सुख।

राहु/केतु भी बनाते हैं राजयोग

राहु व केतु छाया ग्रह हैं। इनकी अपनी स्वतंत्र फल देने की सामर्थ्य नहीं होती है। यह जिस भाव में बैठेंगे, उसी भाव का फल देंगे। ये जिस राशि में होंगे, उस राशि का स्वामी यदि बलवान हो तो ये भी बलवान माने जाऐंगे। यदि उक्त राशि निर्बल हों तो ये भी निर्बल माने जाऐंगे।

पाराशर मत के अनुसार यदि राहु केतु की अधिष्ठित राशि का स्वामी किसी कुण्डली में योगकारक है तो ये भी योगकारक हो जायेंगे और वे योगकारक नहीं हैं तो ये भी योगकारक नहीं होंगे। राहु या केतु यदि केन्द्र या त्रिकोण में स्थित हैं और केन्द्र में स्थित होकर त्रिकोणेश से संबंध करें अथवा त्रिकोण में स्थित होकर केन्द्रेश से संबंध करते हैं तो राजयोग कारक होते हैं।

मुख्यतः राहु-केतु अपनी अधिष्ठित राशि का ही फल देते हैं। उदाहरणस्वरूप यदि राहु वृश्चिक राशि में केन्द्र या त्रिकोण में बैठा हो तो वह वृश्चिक राशि के स्वामी मंगल के समान ही फल प्रदान करेगा तथा केन्द्र-त्रिकोण के नियमानुसार संयोग हो तो राजयोग कारक होंगे।

राहु केतु किसी भाव में अकेले हों, तब तो भाव साहचर्य से इनका फल निर्णय हो जाएगा, लेकिन ये सदा तो अकेले नहीं होंगे।

ऐसी स्थिति में जिस ग्रह के साथ होंगे उसकी शुभाशुभ फल शक्ति को भी प्राप्त कर लेंगे। अतः राहु केतु शुभ भावेश के साथ बैंठें तो ये शुभ होंगे और अशुभ भावेश (3,6,8,11) के साथ बैठें तो ये भी अशुभ हो जायेंगे।


कैसे होता है राजयोग भंग

लघुपाराशरी के श्लोक 14 में बताया गया है कि केन्द्रेश व त्रिकोणेश का परस्पर संबंध राजयोग कारक होता है। यदि इनके साथ दूसरे ग्रहों का संबंध न हो तो ही विशेष फल मिलता है। इन दूसरे ग्रहों के संबंध में श्लोक 22 द्वारा स्पष्ट किया गया है कि

‘‘धर्मकर्माधिनेतारणै, रंन्ध्रलाभाधिपौ यदि। तयोः सम्बन्धमात्रेण, न योगं लभते नरः।।’’

अर्थात केन्द्र-त्रिकोण के स्वामी ग्रहों की युति से बनने वाले राजयोग कारक ग्रहों से जब जन्म कुण्डली के अशुभ भाव अष्टम अथवा त्रिषड़ाय (3,6,11) भाव के स्वामी ग्रह भी युति कर लेंगे तो उनके शुभफल प्रदान करने की शक्ति कम हो जाएगी तथा जन्मकुण्डली में निर्मित राजयोग भंग हो जाएगा। उदाहरणार्थ-

  1. मेष लग्नः 3, 6 भाव का स्वामी बुध यदि केन्द्र-त्रिकोणेश सूर्य, चंन्द्र से संबंध स्थापित करे तो वह राज योग को भंग कर अपनी दशान्तर्दशा में व्यक्ति की उन्नति में बाधक बनेगा।
  2. वृष लग्नः शुक्र, शनि यदि केन्द्र-त्रिकोण स्थान में संबंध बनाएँ तो व्यक्ति को विशिष्टता प्रदान करने में सक्षम है, परन्तु अष्टमेश गुरू के साथ में युति करने मात्र से राजयोग भंग हो जाएगा।
  3. मिथुनः बुध लग्नेश व चतुर्थेश होने से योगकारक है। परन्तु इसी बुध से अष्टमेश शनि अपनी युति या दृष्टि द्वारा राजयोग को भंग करने में समर्थ होगा।
  4. कर्कः पंचमेश-दशमेश-मंगल यदि लग्नेश चन्द्रमा के साथ सप्तम अथवा दशम भाव में योग करे तो यह प्रबलतम राजयोग होगा परन्तु अष्टमेश शनि अथवा व्ययेश-तृतीयेश बुध की युति अथवा दृष्टिमात्र से राजयोग भंग हो जायेगा।
  5. सिंहः चतुर्थेश-नवमेश मंगल की लग्नेष सूर्य से केन्द्र त्रिकोण में होने वाली युति योग कारक है। इस योग को षष्ठेश शनि भंग करने में सक्षम होगा।
  6. कन्याः लग्नेश-दशमेश बुध से मंगल अथवा शनि के संयोग मात्र से ही राजयोग भंग होगा क्योंकि मंगल यहां पर तृतीयेश-अष्टमेश तथा शनि षष्ठेश होकर अशुभ भावों के स्वामी है।
  7. तुलाः शुक्र, शनि की केन्द्र त्रिकोण में युति निश्चित ही योग कारक है। परन्तु गुरू (तृतीयेश, षष्ठेश) का योग राजयोग भंग करेगा।
  8. वृश्चिकः मंगल, चन्द्र तथा सूर्य की युति व्यक्ति को उन्नति दिलाएगी परन्तु बुध (अष्टमेश लाभेश) का इनसे योग हानिकारक है।
  9. धनुः गुरू-सूर्य की युति श्रेष्ठता प्रदान करेगी परन्तु इनसे शुक्र (षष्ठेश,लाभेश) का संयोग घातक हो जाएगा।
  10. मकरः शुक्र-शनि की युति राजयोग कारक है परन्तु गुरू अथवा सूर्य की दृष्टि या युति मात्र से यह योग भंग हो जायेगा।
  11. कुंभः शुक्र-शनि केशुभ योग को यदि गुरू अथवा बुध प्रभावित करें तो राजयोग भंग हो जायेगा।
  12. मीनलग्नः गुरू-चन्द्र मिलकर प्रभावशाली राजयोग का निर्माण करेंगे परन्तु यहां पर तृतीयेश-अष्टमेश शुक्र की युति से राजयोग भंग हो जायेगा।

उपाय- राजयोग भंग कारक ग्रह के जप, दान, व्रत आदि करने से शुभफलों को प्राप्त किया जा सकता है।


Via
Sri Maheshwari Times

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