अपने आर्थिक-सामाजिक स्तर अनुरूप समारोह का आयोजन
लम्बे समय से समाज में यह मुद्दा उठ रहा है कि तमाम सामाजिक कार्यक्रमों में मितव्ययिता होनी चाहिये। कोरोना काल ने भी हमें मितव्ययी बना दिया है। लेकिन अब जब पुनः सामान्य स्थिति निर्मित होती जा रही है, तो समाज के समर्थ वर्ग में पुनः भव्य मांगलिक सामाजिक आयोजनों की इच्छा उत्पन्न होने लगी है। उनका तर्क है कि यदि हम समर्थ हैं, तो फिर खर्च क्यों न करें? ऐसे में इस विषय पर चिंतन अनिवार्य हो गया है कि अपने आर्थिक-सामाजिक स्तर अनुरूप समारोह का आयोजन क्या है, आवश्यकता अथवा प्रदर्शन? समाज के इस ज्वलंत विषय पर आइये जानें इस स्तम्भ की प्रभारी सुमिता मूंदड़ा से उनके तथा समाज के प्रबुद्धजनों के विचार।
समझदारी के साथ सामाजिक मान-प्रतिष्ठा बढ़ाएं
सुमिता मूंधड़ा, मालेगांव
कोरोना वायरस ने हमें सादगीपूर्ण स्वस्थ जीवन जीने का पाठ पढ़ाया है। आज हम स्वास्थ्य के प्रति जागरूक और परिवार के प्रति समर्पित हो गए हैं। घर-परिवार-समाज में सुख-दु:ख के सभी प्रकार के समारोह सादगी से हो रहे हैं । यह सादगीपूर्ण सामाजिक समारोह मध्यमवर्ग एवं निम्नवर्ग के लिए वरदान हैं, तो उच्चवर्ग के लिए बंधन।
उच्चवर्ग का अपने स्तर के अनुरूप व्यय कहीं-कहीं आवश्यकता है, तो कहीं-कहीं प्रदर्शन। उच्चवर्ग का उनके कार्यक्षेत्र और समस्त लोगों के बीच आर्थिक व्यय आवश्यकता के साथ-साथ समाज में अपना वर्चस्व और प्रतिष्ठा का प्रदर्शन होता है। वैसे धनाढ्यों द्वारा विद्यालय, धर्मशाला, मंदिर, अस्पताल आदि बनवाकर भी पीढ़ियों तक अपना नाम और काम जीवंत रखकर भी मान-प्रतिष्ठा को बढ़ाया जा सकता है।
एक तरफ अपने अर्थ का उपयोग/सदुपयोग करना उसका निजी फैसला है तो दूसरी तरफ सामाजिक संस्थाओं द्वारा समारोहों के लिए बनाए नियम और आचार-संहिता पर अमल करना उसकी नैतिक जिम्मेदारी। कोई भी किसी को उसकी परिस्थिति से अधिक खर्च करने के लिए नहीं उकसाता, यह मात्र मानवीय मानसिकता होती है कि मध्यम और निम्नवर्गीय परिवार उच्चवर्ग का अनुसरण करते हैं और पीसे जाते हैं।
अपने इच्छाओं को अपनी जेब देखकर संतुष्ट रखना चाहिए। दूसरों की देखा-देखी से जीवन में अशांति के अलावा कुछ नहीं मिलेगा । ईमानदारी से विद्या और लक्ष्मी पाने की चाह रखें, संघर्ष करें, धनोपार्जन भी करें पर उसका अपव्यय ना करें। अपनी मेहनत की कमाई को समझदारी से व्यय करके नाम-प्रतिष्ठा को उज्जवल करें ।
सामाजिक नियंत्रण का अभाव
पूजा काकानी, इंदौर
आज छोटे बड़े शहरों में सभी जगह दिखावा बहुत ही बढ़ गया है। कोई भी छोटा-बड़ा समारोह जैसे कि बर्थडे सेलिब्रेशन, शादी ब्याह से लेकर कुछ भी हुआ तो बेफिजूल खर्चा होता ही है। समाज के प्रभावी नियंत्रण के अभाव में और बुद्धिजीवियों की निष्क्रियता से एक पारिवारिक समारोह, सार्वजनिक समारोह बन गया है।
कुछ बड़े लोगों ने जब इस समारोह को शान दिखाने का पर्याय बना लिया, अपनी हैसियत समाज को दिखाने का साधन बना लिया, तो नई परम्परा बनने लगी। इनमें ताजा-ताजा धनवान बने लोग, जिन्हें अंग्रेजी में ‘रिच-डे-नोवा’ कहते हैं, अग्रणी ही रहते हैं।
समर्थजन बनें सेवा का उदाहरण
महेश कुमार मारू,मालेगाँव
समाज अपेक्षा उनसे करता है, जो कि आर्थिक, मानसिक एवम् शारीरिक रूप से सक्षम हैं, समर्थ हैं। परन्तु इसे विडम्बना ही कहेंगे कि हाथी के दांत दिखाने के और तथा खाने के और।
ऐसे विशाल, वैभव सम्पन्न आयोजनों में सीमित या असीमित जितने भी सदस्य सम्मिलित होते हैं, वे अपने अत्यन्त निकट के सगे सम्बन्धी ही होते हैं। भगवान ने पांचों उंगलियां भी विचार पूर्वक समान आकार की नहीं बनायीं हैं परन्तु एकत्रित रूप से मुष्टिका बनकर संगठन शक्ति की परिचायिका बन हमारे समक्ष अनुकरणीय उदाहरण अकस्मात ही प्रस्तुत करती है।
समाज में और परिवारों में भी यही विषमतायें होती ही हैं। उसे संगठित रखना, वैसे तो सबका ही कर्तव्य है,परन्तु सामर्थ्यवानों का उत्तरदायित्व अधिक है।
सिर्फ दिखावा है ऐसे आयोजन
पूजा नबीरा, काटोल नागपुर
समाज में ये ज्वलंत मुद्दा बार बार उठता रहा है कि भव्य प्रदर्शन एवम दिखावा क्यों? किन्तु संपन्न वर्ग एक सपने की तरह इसे अपनी आँखों में पालता है और विवाह या अन्य सामाजिक समारोह में शक्ति, सम्पन्नता को इसी माध्यम से प्रकट कर गौरवान्वित महसूस करता है।
नाते रिश्तेदारों में भव्य समारोह उत्साह और ऊर्जा संचरित करते दिखाई देते हैं। सराहना के साथ इनकी चर्चा की जाती है। आवश्यता तो बिलकुल नहीं इसे प्रदर्शन ही कहा जाना चाहिये। हल्दी, मेंहदी जैसी रस्में अब इवेंट बन गईं है।
कृपया विचार कीजिए, भावनायें अब पीला, हरा पहनने तक सिमट गईं हैं। सरलता सलोनापन, सहज़ अपनापन, सब भव्य पांडालों और दिखावे के नीचे दफ़न तो नहीं हो रहे?
पैसे की बर्बादी से बचना जरूरी
सतीश लाखोटिया, नागपुर
ब्याह, भरण, मरण, त्योहार आदि में पुरातन काल से ही अपनी अपनी हैसियत के हिसाब से राजा से लेकर रंक ने इसे अमल में लाया है। हमारी सोच सच में बहुत अजीबोगरीब है। हम मरने में भी यह सोचते हैं कि कोई बुजुर्ग सब कुछ देख कर परलोक धाम गया है तो उसके पीछे अच्छे से अच्छा करना चाहिए।
जिस समाज में किसी बुजुर्ग आदमी के मरने पर यह सोच रहती है तो वहाँ खुशी के अवसर पर किस तरह का माहौल रहता होगा, इसका अनुमान हम सभी लगा सकते हैं। मानो या ना मानो हमारे समाज में ऐसी सोच रखने वाले यकीनन ज्यादा हैं।
अब खर्चीलेपन एंव मितव्यता की बात हम करे तो आर्थिक संपन्नता का दृष्टिकोण हमारे जेहन में आ ही जाता है। संपन्न इंसान अपने अरमान पूरे करने के लिए कुछ भी करें तो मेरी व्यक्तिगत सोच के हिसाब से हमें कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए। हाँ पर दिखावे के नाम पर पैसे की बर्बादी से बचने के बारे में अवश्य हमें सोचना चाहिए।
समाज, शादी ,जन्मदिन ,मरनोपरांत खर्चा एवंअन्य पारिवारिक या घरेलू आयोजन आज चर्चा का विषय बन गये हैं। इसके जिम्मेदार हम सब हैं। हमारे बड़े बुजुर्ग भी यह सारे उत्सव मनाते थे। हम अगर ३५/४० साल पहले हमारे समाज में यह कार्यक्रम अपनी योग्यता के अनुसार कैसे चलते थे और उनकी शोभा कैसे होती थी इसका अध्ययन कर कर समाज में चेतना लावें तो समाधान मिल सकता है।
गांव या शहर के पंच ( बड़े बुजुर्ग) योग्यतानुसार आयोजन की अनुमती देते थे जिसे शक्कर गालना कहते थे। शक्कर की तुलना आयोजक के शक्ती के अनुसार आंक कर उतनी मिठाइयां और उनकी तुलना में सारा आयोजन करना पड़ता था। इस व्यवस्था में आयोजकों को अतिथियों पर नियंत्रण करना आवश्यक होता था। सारे खर्चे उसी हिसाब से होते थे। इस व्यवस्था में आयोजक को अपने आर्थिक गनना का आभास नहीं होता था।
आज के जमाने में भी समाज में कुछ व्यवस्था बनाए तो नियंत्रण हो सकता है। दिखावे के लिए सौ बहाने मिल सकते हैं मगर हमें सोचना चाहिए की समय की पुकार क्या है।
टाटा के घर भी शादियां हुई थी और अंबानी के घर भी शादी हुई
एक जगह सरलता से और दूसरी जगह धूमधाम से हुई। दोनों परिवार बराबर के सम्रुद्द हैं और दोनों के भी घर संसार जोरदार बसे।
अपना जीवन जितना सरल बनाओ उतना आपको आनंद आएगा।
अपने में कहावत है ब्याव मूडी मुंडा में भी हुव मुखी मोतियां में भी हुव।
सही विचार!