माहेश्वरी समाज का ऐतिहासिक पर्व- सातुड़ी तीज
सातुड़ी तीज पर्व भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की तृतीया को इस बार 02 सितम्बर को मनाया जाएगा। यह वैसे तो सम्पूर्ण राजस्थान का पर्व है, लेकिन माहेश्वरी समाज के लिये तो यह उसकी उत्पत्ति से सम्बंधित होने के कारण विशेष पर्व का दर्जा ही रखता है। आईये जानें क्यों मनाते हैं इसे और कैसे मनाऐं?
प्राचीन मान्यताओं के माध्यम से प्रतिपादित किया गया है कि श्राप वश 72 उमराव पत्थर की प्रतिमा में परिवर्तित हो गए थे। तब उनकी पत्नियों ने अपनी तपस्या से भगवान शिव व माता पार्वती को प्रसन्न किया। भगवान शिव ने उन उमरावों को पुनः जीवन प्रदान किया। इन उमरावों ने पुनः जीवन पाकर तत्काल तलवार आदि शस्त्रों का त्यागकर तराजू को ग्रहण किया एवं माहेश्वरी समाज की स्थापना की।
जिस समय भगवान शिव ने उमरावों को पुनः जीवन दिया, उस वक्त उन्हें भूख लगी। भोजन के लिए अन्य वस्तु वहां उपलब्ध न होने से प्रभु के आदेश पर वहां उपलब्ध बालूरेती के पिण्ड बनाये गए एवं भगवान शिव ने मंत्र द्वारा उन रेत के पिण्ड को ‘‘सत्तु’’ के पिंडों में परिवर्तित कर दिया। ये सत्तु पिंड खाकर हमारे पूर्वजों ने अपने पेट की ज्वाला शांत की एवं क्षत्रिय वर्ण से वणिक वर्ण की ओर नई जीवन यात्रा माहेश्वरी के रूप में प्रारंभ की।
अतीत से जुड़ी परम्परा
जिस तरह तलवार एवं कृपाण से पिण्डों को बड़े कर हमारे पूर्वजों द्वारा खाया गया था, उसी तरह आज भी चाकू से पिण्डों को बड़े (काटना) करने की परम्परा चली आ रही है। इस दिन 72 उमरावों के भगवान शिव एवं माता पार्वती के आशीर्वाद से पुनः जीवित होने पर उनकी पत्नियों में हुई असीम खुशी ने एक महोत्सव का रूप धारण कर लिया था।
अनेक दिनों से तपस्या में लीन महिलाओं ने अपना उपवास जंगल में उपलब्ध कच्चे दूध, ककड़ी, नींबू एवं प्रभु द्वारा प्रदत्त सत्तु को ग्रहण करके तोड़ा था। ठीक इसी प्रकार आज भी माहेश्वरी महिलाएं तीज के दिन उपवास रखकर शाम को नीमड़ी की पूजा करके, चंद्र दर्शन कर अर्ध्य देती हैं एवं अपना उपवास कच्चे दूध, सत्तु, ककड़ी व नींबू से तोड़ती हैं।
इसमें विशेष रूप से चार प्रकार के सत्तु बनाए जाते हैं। परंपरानुसार जिस स्त्री के विवाह के बाद प्रथम सावन आया हो, उसे ससुराल में ही रखा जाता है। अतः पकवान बनाकर बेटियों को सिंधारा भेजा जाता है।
सौभाग्य की कामना से पूर्णाहुति
रात्रि में चंद्रमा उगने के बाद अर्ध्य दिया जाता है। अर्ध्य देते समय बोलते हैं-‘सोना को सांकलों, मोत्यां को हार, बड़ी तीज (कजली तीज) का चांद के अरग देवता, जीवो बीर-भरतार।’ अर्ध्य देने के बाद पिंडा (सत्तू) पासा बड़ा किया जाता है। पति या भाई चांदी के सिक्के से पिंडे का एक टुकड़ा तोड़ते (बड़ा करते) हैं।
पति द्वारा पत्नी को कच्चे दूध के 7 घूंट पिलाकर उपवास खुलवाया जाता है। महिलाएं कलपना निकाल कर सास-ननद को देकर अखंड सौभाग्यवती का आशीर्वाद लेती हैं। इसके बाद पूजा की हुई नीमड़ी का एक पत्ता सत्तू के साथ देकर कहती है, ‘नीमड़ी मीठी’।
माना जाता है कि ऐसा कहने से वे पीहर ससुराल सभी जगहों पर अपने मीठे व्यवहार से सभी का दिल जीत लेती हैं। इस व्रत का उद्यापन विवाह के बाद प्रथम वर्ष में ही यदि कर सकें तो बहुत अच्छा, नहीं तो जब भी मौका लग जाए तब जरूर करना चाहिए। इसमें 18 पिंडे एवं उसके साथ 18 नीमड़ी बना कर 18 सुहागिनों को बांटते हैं। सासुजी को कपड़े और कलपना भेंट करते हैं।
2 Comments