मित्रता, पारिवारिक समरसता और त्यौहार
सावन मास, छोटी बड़ी तीज से शुरू हुआ सिलसिला गणपति, जन्माष्टमी, श्राद, नवरात्री, दशहरा, करवा चौथ, दीवाली और फिर लगन सराय 1 जुलाई से दिसम्बर तक त्योहारों की ये धूम, कृषि प्रधान संस्कृति के समय में परिवार, व्यक्ति, समाज के रिश्तों में प्रगाढ़ता और सौहाद्रता लाने का एक सहज, सरल और सुंदर प्रयास रहा। सदियों इस श्रेष्ठ परम्परा ने मनुष्य की सामाजिकता को सावधानी से संजोए रखा।
त्योहारों के बहाने रिश्तेदारों का एक दूसरे के घर जाना आना, गांव जनों का मंदिरों के उत्सवों में मिलना जुलना, झांकियों में कला को स्थान और सम्मान मिलना, बच्चो को प्रतिभा प्रसारण के अवसर मिलना, संगीत, नृत्य, भजन-नदी नहाना सब मानवीय जीवन की सामाजिक भूख मिटाने के उत्तम भोजन थे। इनसे परिवार के हर सदस्य की ऊर्जा उत्साह में दिन दिन रात चौगुनी वृद्धि हो जाती थी। जीवन कर्मक्षेत्र में खुशी-खुशी, रमा रहता था एक अकथनीय मरोस के साथ। आधुनिक दौर में परिस्थितियां बदल गई हैं। परिवार विभक्त हो छोटे हो गये हैं, घर के बच्चें नौकरियों के लिये बाहर चले गये हैं। खर्च बढ़ गये हैं और हमारी सामाजिकता केवल सोशल मीडिया तक सिमटकर रह गई है।
परिस्थितियों के बदलाव संग सिमटते हुए रिश्तों ने जहां पहले स्वतंत्रता का सुखद अहसास दिया वहीं कालांतर में कुछ मनवांछित कमियां भी नजर आने लगी। स्वतंत्रता स्वच्छंदता बन गई। अकेलापन एकाकीपन, मुसीबतों के पल, सुख-दु:ख की सामाजिकता, प्रेम, भाईचारा का कम होना किसी शून्यता का अहसास दिलाने लगा। संयुक्त परिवार टूट कर विभक्त हुआ। तब बात इतनी बिगड़ी नहीं थी क्योंकि परिवार तो था। अब दायरा और सिमटने लगा; सिंगल फेमेली से सिंगल पेरेंट्स तक पहुंच गये।
इस अवस्था में भी व्यक्ति यदि खुश हो तो परिवर्तन ग्राह्य और स्वीकार है। परंतु सरकारी और पारिवारिक आंकड़े कुछ और बता रहे है। आज शारीरिक स्वास्थ की जागरुकता ने फिजिकल टेक्स तो इंप्रूव कर दी पर मेंटल हेल्थ चर्चा परिचर्चा का विषय बन गई। मनोवैज्ञानिक, मनोचिकित्सक, काउंसलर की तादाद और व्यवसाय दोनों बहुत बढ़ गये। सामाजिक चिंतन का विषय है कि इस देश में ऐसा अब क्यूं होने लगा। ‘सर्दी जुकाम की तरह टेंशन, फ्रस्टेशन, डिप्रेशन, इनसिक्योरिटी, एंजाइटी शब्द रोज कानों में पड़ने लगे हैं। शुरुआत ही भीषण और डरा देने वाली है। परिणाम और दु:परिणाम भी स्पष्ट नजर आ रहें है। ड्रग्स, लीकर, सुसाइट सामान्य से लगने लगे हैं।
क्या ये सफलता की राह है? क्या ये खुशियों की बहार है? क्या ये आत्म संतुष्टी का ग्रोस है? ‘कदापि नहीं’
मनुष्य सामाजिक प्राणी है। कोरोना काल ने ये अहसास सबको दिला दिया। वर्क फ्रॉम होम का सुखद सपना भयावह लगने लगा। वर्चुअल दुनिया में रिश्ते ढूंढने लगे। लाइक और कमेंट जिंदगी समझने लगे। सब कुछ मुखी से फिसला नहीं है। सामाजिकता के अवसर त्यौहार लायेंगे। अवसर को भुनायें, मेल मिलाप बढ़ाये, पर्वों के आयोजन में उर्जा और उत्साह बढ़ायें। पर्वों के आयोजनों में ऊर्जा और उत्साह बढ़ाये। मेंटल वेल्स, फिजिकल हेल्थ की वेल्थ कमायें।