अपनी पूरी संपत्ति दान कर देना कितना उचित?
आजकल माता-पिता व उनकी संतान के बीच जनरेशन गेप के कारण टकराव बढ़ता जा रहा है। अकसर माता-पिता को अपने बच्चों से यह कहते सुना जाता है कि या तो सुधर जाओ नहीं तो हम अपना पैसा किसी ट्रस्ट को या किसी सामाजिक संस्था को देकर चले जाऐंगे। अभी कुछ ही दिनों पहले हमारे एक परिचित परिवार में माता-पिता की अपने बच्चों से इतनी नाराजगी और गुस्सा दिखा कि उन्होंने अपनी सारी संपत्ति किसी संस्था को दान कर दी। एक और दंपत्ति ने तो आक्रोश में आकर अपने नौकर के नाम अपनी सारी संपत्ति कर दी।
ऐसे में विचारणीय हो गया है कि माता-पिता द्वारा ऐसा कदम उठाना कितना उचित है, या कितना अनुचित? माना कि सम्पत्ति उनकी कमाई हुई है, लेकिन क्या ऐसा कदम उठा लेना सही है? ऐसा करके हम युवा पीढ़ी में सुधार कर रहे हैं अथवा उनमें आक्रोश उत्पन्न कर भटकाव पैदा कर रहे हैं? आइये जानें इस स्तम्भ की प्रभारी सुमिता मूंदड़ा से उनके तथा समाज के प्रबुद्धजनों के विचार।
इससे बच्चे के सुधरने की गुंजाइश नगण्य हो जाएगी
सुमिता मूंधड़ा, मालेगांव
माता-पिता अपने बच्चे की परवरिश में कोई कमी नहीं रखते और ना ही संस्कार देने में। फिर भी कभी-कभार बच्चे परिस्थितिवश जाने-अनजाने में गलत संगत अथवा बाहरी परिवेश के बहकावे में आ जाते हैं और पारिवारिक संस्कारों के विपरीत कार्य करने लगते हैं। ऐसे में परिवार की नाराजगी जायज है। माता-पिता को हरसंभव कोशिश करनी चाहिए कि उनके भटके बच्चे सुधर जायें क्योंकि बच्चों के भटकने से परिवार-समाज-देश की भी क्षति होती है।
ऐसे बच्चे की कॉउंसलिंग करवाने के साथ उनकी संगत और परिवेश में बदलाव की जरूरत है। बच्चे को वसीयत और संपत्ति से बेदखल करने के पूर्व माता-पिता को बच्चे को सुधारने में साम-दाम-दंड-भेद नीतियों का उपयोग भी करना पड़े तो गलत नहीं होगा। अगर हमारी परवरिश की नींव मजबूत हो तो ठोकरें खाकर भी हमारे भटके हुए बच्चे अंततः सही रास्ते पर आ ही जायेंगे। बस इनको समझने और समझाने के लिए सही मार्गदर्शन की आवश्यकता है।
संपति का वारिस बच्चे को न बनाकर अपनी बहू-बेटी और नई पीढ़ी को बनाया जा सकता है अथवा अपने बच्चे को ही विशेष शर्तों के साथ सम्पति पर साझा/एकल मालिकाना हक दिया जा सकता है। इससे बच्चा संपत्ति उपयोग करने के लालच/जरूरत के लिए खुद को अवश्य परिवर्तित करेगा। अपने बच्चे को संपति से पूरी तरह बहिष्कृत कर देना उचित नहीं है। इससे तो स्थिति संभलने की जगह बिगड़ सकती है यानि बच्चे के सुधरने की गुंजाइश नगण्य हो जाएगी।
यह भी सोचने वाली बात है कि जब हम अपने ही बच्चे पर विश्वास खो चुके हैं तो क्या गारण्टी है कि अन्य व्यक्ति विशेष अथवा संस्था जिसे आप अपनी संपति दान कर रहे हैं वहाँ उसका सदुपयोग ही होगा। इसलिए बेहतर यही है कि आपकी मेहनत की कमाई आपके अपनों के पास ही रहे। वैसे भी विरासत को संजोना और संभालना हमारी अपनी काबिलियत और किस्मत पर निर्भर है कि हम उसका उपभोग एवं उपयोग कर पाते हैं अथवा दुरुपयोग और बर्बाद।
ऐसा करना उचित नहीं है
मधु ललित बाहेती, कोटा
हमारे बच्चे हमारे जीन्स से ही बने हैं और जैसे हमने संस्कार दिये हैं वे वैसे ही बने हैं। हां कुछ कमियाँ हो सकती है लेकिन वे हैं तो हमारी संतान। वे हमसे प्रेम भी करते हैं, मान भी देते हैं। कभी-कभी परिस्थिति अनुकूल नहीं भी हो सकती है, पर ऐसे किसी कदम से अनावश्यक रूप से उन्हें अपना दुश्मन मत बनाइए। अब बात करते हैं किसी संस्था की, तो संस्था दो चीज़ों से बनती है, एक उनका संविधान और दूसरे उसके कार्यकर्ता।
आपने संविधान को देखकर, प्रभावित होकर संस्था के साथ जुड़ने का निर्णय कर लिया और अपनी सम्पत्ति भी दान करने का मन बना लिया। लेकिन आपने कभी दूसरी बात पर ध्यान नहीं दिया कि संस्था के कार्यकर्ता कैसे हैं? जिन कार्यकर्ताओं ने संस्था की स्थापना की है वे निःसंदेह श्रेष्ठ होंगे लेकिन दूसरी या तीसरी पीढ़ी उतनी ही श्रेष्ठ हो ये ज़रूरी नही। आप जिसे भी नेक कार्य के लिये दान करते हैं वे भी कहीं ना कहीं दोषयुक्त होते ही हैं।
तो आपके बच्चों में भी कुछ दोष है तो आपको संस्था को वरीयता नहीं देनी चाहिये। बच्चों को वरीयता देंगे तो वे आपके प्रति प्रेममयी बने रहेंगे। आज संस्थाओं के हाल बहुत अलग है क्योंकि समाज का दृष्टिकोण बदल चुका है। थोड़ी मात्रा में दान करना हो तो सही है लेकिन सम्पूर्ण सम्पत्ति को दान करना मेरी दृष्टि से उचित नहीं है। हम भी युवाओं के प्रति धारणा बनाने से पहले अपनी ओर नहीं देखते।
हमारे देश में दान की परम्परा है, अच्छे कार्य के लिये दान देना भी चाहिये लेकिन अपने बच्चे को सजा देकर दान देना ? यह भी सच है कि कुछ बच्चे कुसूरवार हैं लेकिन कितने? मुठ्ठी भर बच्चों की सजा सारे समाज को कसूरवार ठहराकर नहीं दी जा सकती है। बहुत से संस्थान अच्छा काम भी करते हैं लेकिन सभी कुछ उनको देकर जाना बच्चों के साथ अन्याय जैसा लगता है। हाँ किसी के पास बच्चे ही ना हों तो बात अलग है।
सबसे पहले परिवार का हक
कपिल करवा, संगरिया
संसार में जीवन के दो नियम प्रचलित है, ईश्वर द्वारा प्रदत्त ‘‘खाली हाथ आए थे और खाली हाथ जाना है,’’ दूसरा संसार का नियम ‘‘पैसा है तो शक्ति और संपन्नता है।’’ इसी में उलझा हुआ इंसान कुछ समझ ही नही पाता है।
दान के बारे में कहा जाता है कि आपके पास धन है तो सबसे पहले अपने परिवार, रिश्तेदार, आस पड़ोस, समाज जो कमजोर हैं, उनकी मदद करो। इसके बाद नगर, फिर जिले, फिर राज्य और देश-परदेश का नंबर आता है। खुद का परिवार, रिश्तेदार जो परेशानी में हों उनको सहयोग नही देकर लोक दिखावा और प्रतिष्ठा के लिए किया हुआ दान उचित नहीं है।
इसमें धर्म, समाज, संस्कृति, शिक्षा भी आपकी प्राथमिकता में शामिल होने चाहिए। क्रम के अनुसार आपके समस्त दायित्व पूर्ण होने के पश्चात धन को दान करना जायज है, उसमे कोई दुविधा नहीं है।
मधुर स्मृति भी है पैतृक सम्पत्ति
पल्लवी दरक, कोटा
माता-पिता अपना आधा जीवन अपनी संतानों का भविष्य संवारने में लगा देते हैं। आजकल देखने में आ रहा है कि कई अभिभावक अपनी संपूर्ण संपत्ति दान कर देते हैं। यदि उनकी संतान नहीं है, तो इस तरह का दान प्रशंसनीय है। परंतु यदि उनकी संतान हैं, तो अभिभावकों को अपनी संपत्ति का कुछ हिस्सा या जो भी उनकी जमा पूंजी है, उसका कुछ अंश अपने बच्चों को आशीर्वाद स्वरूप अवश्य देना चाहिए।
क्योंकि मेरा ऐसा मानना है कि अभिभावक द्वारा दी गई कोई भी वस्तु चाहे वह गहने हों, संपत्ति हो, मकान हो या अन्य किसी रूप में; बच्चों को सदैव अभिभावकों के संघर्ष की याद दिलाती रहेगी। उन्होंने अपने जीवन में क्या खोया, क्या पाया? यह आने वाली पीढ़ी के लिए एक भावनात्मक तथ्य हो सकता है।
अपने माता-पिता से जुड़ी हर चीज से बच्चों को लगाव महसूस होता है। अभिभावक चाहें तो अपनी संपत्ति का कुछ अंश दान कर सकते हैं और कुछ अंश स्मृति के तौर पर बच्चों को दे सकते हैं। यह सब इसलिए नहीं कि बच्चों को अभिभावकों से धन या पैसा चाहिए। बल्कि इसलिए कि इनमें से कई चीजें उनके बचपन से जुड़ी हो सकती हैं, जो बचपन से लेकर अब तक आए परिवर्तनों की याद दिलाएगी और इससे वे भी जीवन में संघर्ष करते हुए आनंद के साथ आगे बढ़ने के लिए प्रेरित होंगे।
अपनी पूरी संपत्ति दान कर देना कितना उचित?
पूजा काकानी, इंदौर
अपनी पूरी संपत्ति दान कर देना अनुचित है। दान धर्म करना अच्छी बात है, लेकिन आक्रोश में आकर इतना बड़ा कदम उठाना ठीक नहीं है। माता-पिता अपनी पूरी जिंदगी मेहनत कर एक-एक पाई जोड़ते हैं। अपनी नई पीढ़ी के लिए काम करना सरल कर देते हैं। जरूरतमंदों को दान देना सबसे बड़ा कर्म होता है, जितनी उसे जरूरत हो उतना ही दीजिए।
प्यार मोहब्बत से जीना ही सबसे बड़ा कर्म होता है। अगर सच में आप अपने बच्चों को रूढ़िवादी विचारधारा से बाहर देश की तरक्की में योगदान देना चाहते हैं, तो अपने बच्चों से कितने आज पढ़े हो की जगह पर, कितना आज सीखे हो, का प्रश्न करें। परिवार में पैसे से पैसा बढ़ता है।
किसी भी अन्य व्यक्ति जिसको पैसा बांट रहे हैं, वह तो बिना सोचे समझे व्यर्थ ही पैसा उड़ाएगा। आप अपनी नई जनरेशन को समझाइए कि व्यर्थ पैसा ना उड़ाए, उसकी कदर करें, जहां लगाना चाहिए वहीं उपयोग करें। जब जेब में रुपए हों तो दुनिया आपकी औकात देखती है और जब जेब में रुपया ना हो तो दुनिया अपनी औकात दिखाती है। ना बाप बड़ा ना भैया सबसे बड़ा रुपैया।