Mat Sammat

करियर के लिए परदेश में जाकर बसना कितना उचित-अनुचित?

आज हर उच्च शिक्षित युवा अपने करियर के लिए अपना पैतृक गाँव और शहर ही नहीं स्वदेश को भी छोड़कर परदेश-विदेश में अच्छी नौकरी और करियर के लिए पलायन कर रहा है। हमारे गाँव और छोटे शहर रिक्त हो रहें हैं, माता-पिता अकेलेपन के साथ जीवन जीने को मजबूर हो रहें हैं। साथ ही हमारे देश की प्रतिभाएं दुसरे देशों को गौरवान्वित कर रही हैं। यह हमारे परिवार, समाज और राष्ट्र के लिए बहुत बड़ी क्षति है। आखिर युवाओं का परदेश में जाकर बसना का फैसला कितना उचित/अनुचित है? आइये जाने इस ज्वलंत विषय पर स्तम्भ की प्रभारी मालेगांव निवास सुमिता मूंधड़ा से उनके व समाज प्रबुद्धजनों के विचार।

दोनों पहलुओं पर सोचें- सुमिता राजकुमार मूंधड़ा , मालेगांव 

हर सिक्के के दो पहलू होते हैं ; सकारात्मक और नकारात्मक । उच्च शिक्षा के लिए बच्चों का परदेश या विदेश में जाना किंचित भी चिंतनीय नहीं है । शिक्षा का महत्व बढ़ रहा है । नित नये कार्यक्षेत्र विकसित हो रहे हैं । हर क्षेत्र में प्रतियोगिताएं बढ़ गई है । ऐसे में उच्च शिक्षा प्राप्त करना भविष्य की जरूरत बन गई है। छोटे शहर और गांव के बच्चों को उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए अच्छी कॉलेज , इंस्टिट्यूट , यूनिवर्सिटी के लिए बड़े शहर ही नहीं विदेश में जाना अब आम हो गया है।

उच्च शिक्षा के लिए बड़े शहरों/विदेशों में गये हुए बच्चों को लगता है कि उनकी शिक्षा का पूरा सदुपयोग सिर्फ बड़े शहर में ही होगा । अच्छी सैलरी के साथ-साथ अच्छी सोसाइटी में उठना-बैठना होगा । सभी भौतिक सुख-सुविधाएं भी सिर्फ बड़े शहरों में ही उनको मिल सकती है। शहरी आकर्षण उनको अपनी तरफ खींचता चला जाता है। देखा जाए तो पूर्णत गलत भी तो नहीं है हमारे होनहार। अप्रत्यक्ष रूप से कहीं ना कहीं हम भी उनको परदेश/विदेश में बसने को बढ़ावा देते ही हैं। हम सोचते हैं कि जो हमें नहीं मिला अपने पैतृक गांव में , हम जिस अभाव में रहे हैं , जिन चीजों से हमें परेशानी झेलनी पड़ी है जीवनभर ; उसकी छाया भी हमारे जिगर के टुकड़ों पर ना पड़े  इसलिए भी हमसे दूर जाकर बसने की उनकी इच्छा को हम सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं।

अगर हम छोटे शहरों के रहवासी अपनी दकियानूसी सोच में थोड़ा परिवर्तन करें , बच्चों को उनकी नई शिक्षा-प्रणाली के साथ नए तरीकों को व्यापार और अन्य कार्यक्षेत्रों में आजमाने की अनुमति दें तो उनकी शिक्षा का फायदा हमारे अपने ही छोटे शहर के व्यापार को मिलेगा और अपना शहर भी उन्नति की ओर अग्रसर होगा। साथ ही बच्चों को संयुक्त परिवार में रहने के लिए सदैव प्रेरित करें । पारिवारिक संस्कार और संस्कृति की जड़ को हमेशा बच्चों के मन में मजबूत बनाये रखें।

समय-समय पर परिवार में युवा बच्चों को उनकी अहमियत और अस्तित्व को महत्व जताना भी जरूरी है । अगर हम बड़े थोड़ी समझदारी और विस्तृत सोच रखें तो हम अपने बच्चों के बच्चों के साथ अपने ही पैतृक निवास पर पचपन और बचपन का मजा ले पायेंगे और छोटा शहर भी नई शिक्षा और सोच के साथ विकसित होगा।


देश में रोजगार की वृद्धि ज़रूरीशरद गोपीदासजी बागडी, नागपुर

बच्चे व युवा परिवार, समाज व देश की बुनियाद, भविष्य होता हैं। अपने देश के बच्चों, युवाओं, प्रतिभाओं का विदेश में जाकर बसना सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक या हर तरह से अनुचित व हानिकारक होता है परंतु हमारे देश में उच्च शिक्षा, रोजगार, इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी व बढती जनसंख्या के कारण बच्चों के भविष्य का सोचने पर इसे अनुचित भी नही कहा जा सकता।

बच्चों के विदेश बसने के दुष्परिणाम यह हो रहा है कि रिश्तों की अहमियत खत्म हो रही, माता-पिता-पुत्र-पुत्री, भाई-बहन के रिश्तो से आत्मियता,पारिवारिक सौहाद्रता, जबाबदारी का अहसास शनैः शनैः विलुप्त होता जा रहा है। शहरों में अधिकांश बुजुर्ग अकेले मानसिक गरीबी के साथ अंदर ही अंदर घुटन के साथ अपना जीवन यापन कर रहे है।वृद्धाश्रम बढते जा रहे है। हमारे देश के होनहार प्रतिभाओं का उपयोग दुसरे देश कर रहे है।

बदलते सामाजिक, व्यापारिक माहौल मे बच्चों, युवाओं के भविष्य के लिये गाँवों व छोटे शहरों मे स्कूल-कॉलेज, उच्च शिक्षा का इंफ्रास्ट्रक्चर, बुनियादी संसाधन, रोजगार आदि बेहद जरूरी होता है।


संस्कृति के पतन का दौर- श्यामसुंदर लाखोटिया , मालेगांव

आज हमारे देश के युवाओं का पलायन का दौर से गुजर रहा है , हम सबको भय लग रहा है एक समय तक्षशिला एवम नालंदा जैसे विश्वविद्यालयों मे सैकडो की सख्या मे विदेशी छात्र विधा की विविध शाखाओं मे ज्ञानार्जनके लिए आते थे और इस प्रकार इस देश को महान होने का गौरव प्रदान करते थे आज समय बदला परिस्थितियों ने पलटा खाया आज अपने देश के सभी समाज के यवक विदेशों की तरफ मुह कर लिया है।

आगे जाकर इस समाज उन्नति गगन से गिरकर रसातल मे जारहा है भौतिक क्षति से कही अधिक क्षोभकारी एवम अपना सांस्कृतिक नैतिक तथा बौद्धिक पतन हो रहा है। कल तक हम जगतगुरु की पहचान थी आज हमे विधार्जनके लिए विदेशों का द्वार खटखटाना पडता है कल तक हम स्वावलंबी थे। आज हमे अपनी आवश्यकता पूर्त्ति के निमित बहुलतया परकीय सहायता पर निर्भर रहना पडता है ।


देश में उचित मूल्यांकन का अभावमधु भूतड़ा, जयपुर

शिक्षा विकास की ओर ले जाती है और विकास की कोई सीमा नहीं है,विकास तो अनंत है। शिक्षित युवाओं को आकर्षित करने के लिए सबसे ज्यादा प्रभावित करता है उनका उचित मुल्यांकन, जो आज तक सही रूप से हमारे देश में नहीं हो पाया है, इसलिए युवाओं को परदेश में जाकर बसना पड़ता है। हमारे देश में उन्हें उनकी शिक्षा और काबलियत के अनुरूप वातावरण दिया जाए तो उनको विदेशों में जाने से रोका जा सकता है।

माता-पिता युवाओं को शिक्षा के लिए भी देश के बाहर भेज देते हैं, फिर उनके पास घर लौटने का विकल्प नहीं होता है, क्योंकि जिस तरह की पढ़ाई की जाती है, उसके अनुसार ही कार्य करना पड़ता है,जो यहाँ नहीं मिल पाता है, यह बहुत बड़ी समस्या है। विदेशों की चकाचौंध और आज़ाद जीवनशैली भी विशेष आकर्षण है  विदेश में बसने का। वैसे तो पहले और आज भी गांव से युवा धनोपार्जन के लिए शहरों का रुख करता है , फिर ख़ुद को सेटल करने के बाद माँ बाप को लेकर शहर आ जाता है, पर पुरानी बात अलग थी, आज माता-पिता लाचार नहीं है,स्वयँ भी पढ़ें लिखे है,ऐसे में युवाओं के कैरियर पर कोई अड़चन नहीं डालते हैं, बल्कि उन्हें स्वयं आगे बढ़ाने के लिए प्रयास करते हैं।

सबसे बड़ी मजेदार बात है कि अधिकांश माता पिता अपने बसाये हुए घर में ही रहना ज्यादा पसंद करते हैं, बच्चों के घर नहीं जाना चाहते हैं, ऐसा अनेकों घरों में अब यही देखने को मिल रहा है।
हाँ इससे छोटा परिवार और भी छोटा होने लगा है, कारण है शिक्षा और पैसा। धन बिना जीवन की आपूर्ति सम्भव नहीं है।

आरबीआई के गवर्नर मिस्टर रघुराम राजन, उनके पास भारत में उनके ओहदे अनुसार काम नहीं है, ऐसे में उनके पास देश छोड़ कर जाने के अलावा कोई चारा नहीं है, ऐसे भी कई दृष्टांत आपको देखने को मिलते है। देश में शिक्षा के अनुसार उचित मुल्यांकन के साथ नौकरियाँ मुहैया करवाना और इंडस्ट्रीज बढ़ाने से युवाओं का विदेशों में जाने की संभावना को बहुत हद तक कम किया जा सकता है।


प्रतिभा का देश में महत्व नहीं- ज्योति मालानी , इटारसी 

आज के यूथ का सपना ही परदेश में जाकर बसना हो गया है। हो भी क्यों ना, माता-पिता की सोच कि हमारे बच्चे को पढ़ा लिखा कर हम बहुत बड़ा इंजीनियर, डॉक्टर,चार्टर्ड अकाउंटेंट बना रहे हैं और जब इतना पढ़ लिख लेंगे तो देश में इनकी योग्यता के हिसाब की नौकरी तो मिलेगी नहीं। कारण तो जगजाहिर है देश में आरक्षण का जो वृक्ष फलीभूत हो रहा है, उसका हर्जाना देश के ( सचमुच के ) योग्य और होनहार युवा पीढ़ी को भुगतना पड़ेगा। उसकी शिक्षा का प्रतिफल यहां मिल ही नहीं रहा है।

परिणाम वह विदेश की ओर आकर्षित होगा ही। विदेश आज से नहीं वर्षों से भारत के ऐसे होनहार बुद्धिजीवी योग्य युवाओं का बाहें फैलाकर स्वागत कर रही है और उन्हें उनकी योग्यता का प्रतिफल दे रहा है । वही यह प्रश्न कि विदेश में बसना कितना उचित कितना अनुचित?

हमारी महत्वाकांक्षाओं को सीमित कर क्यों न युवा पीढ़ी को पढ़ा लिखा कर अपने ही व्यवसाय को आगे और बढ़ाने की ओर प्रेरित करें। पिछले कुछ सालों में युवा पीढ़ी में यह फर्क भी देखने को मिल रहा है। शिक्षित युवा पीढ़ी में आई चेतना की वजह से ही हमारा देश एक विकसित देश कहला रहा है ।


माता-पिता स्वयं ज़िम्मेदार- पूजा नबीरा,काटोल

आज युवा पीढ़ी का परदेश में जाकर बसना कोई विशेष बात ही नहीं रही क्योंकि आज माता-पिता के लिए भी यह गर्व का विषय बन गया है। बचपन से ही उन्हें मशीन की तरह तैयार किया जाता है की किसी भी कीमत पर जॉब को पाना ही उनके जीवन की सबसे प्रमुख अनिवार्यता है। अतः जब अच्छी कीमत में अपने हुनर को बेचने का मौका आता है, वे इसे इंकार नहीं कर सकते और विदेश में जाकर बस जाते हैं।

युवाओं को इसके लिए प्रोत्साहित ही किया जा रहा है तो आखिर उन्हें गलत कैसे ठहराया जा सकता है? वे तो भावना रहित रोबोट बनते जा रहें हैं, जहां वे अपनी सर्वाधिक कीमत पर बिक जाते हैं। आज हर गाँव-शहर में बड़ी संख्या में माता-पिता अकेले जीवन काट रहें है। किन्तु दोनों में से किसी एक की मृत्यु के बाद जीवन अकेलेपन के अवसाद से भर जाता है किन्तु जब तक बच्चे अपनी ज़िन्दगी में सेट हो चुके होते हैं।

कभी-कभी वे अंतिम संस्कार में भी शामिल नहीं हो पाते, तब उन्हें धिक्कारना शुरू कर दिया जाता है। अतः बच्चों को मशीन नहीं इंसान होने के संस्कार भी अवश्य दिए जाने चाहिए। यह एक संवेदनशील विषय है।


Like us on Facebook

Via
श्री माहेश्वरी टाइम्स
Back to top button