सामजिक संगठनों में सख्त नियम उचित या अनुचित?
वर्तमान सत्र में अभा माहेश्वरी सभा द्वारा पदाधिकारियों ही नहीं, बल्कि कार्यकारी मंडल सदस्यों तथा आम समाजजनो तक पर सख्त नियम लागू किये गए हैं। इसमें पदाधिकारियों को अतिरिक्त जिम्मेदारियां अनिवार्य रूप से सौंप दी गई हैं। वहीं आम समाजजन के लिये मतदान हेतु उसके परिवार का सामाजिक, आर्थिक सर्वेक्षण सूची में नाम होना अनिवार्य कर दिया गया है। इस स्तिथि में बड़ी संख्या में कई ऐसे समाजजन मतदान सूची से ही बाहर हो गये हैं, जिनका किन्ही कारणवश इस सामजिक सर्वेक्षण सूची में नाम नहीं है। इससे बड़ी संख्या में समाजजनों के समाज की मुख्यधारा से दूर हो जाने की आशंका उत्पन्न हो रही है। अतः यह विचारणीय हो गया है कि हम सोचें-
“सामाजिक संगठनों में सख्त नियम उचित हैं या अनुचित?” आइये जानें इस स्तम्भ की प्रभारी मालेगांव निवासी सुमिता मूंदड़ा से उनके तथा समाज के प्रबुद्धजनों के विचार।
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नियम जरूरी पर सरलता भी जरूरी-
सुमिता मूंधड़ा, मालेगांव
परिवार हो या समाज ; सबके अपने कुछ नियम निर्धारित किये जाते हैं जिससे उसकी व्यवस्था सुचारू रूप से चल सके । पर नियम और अनुशासन सदैव सभी सदस्यों के लिए आसान और समान हो तो ही श्रेयस्कर होगा । नियम को समाज के हर वर्ग को ध्यान में रख कर ही निर्धारित करना चाहिए । नियम आम समाज-बंधु की पहुंच के बाहर ना हो । साथ ही सामाजिक संस्थाओं के नियम समाज पर किसी भी प्रकार का आर्थिक , शारीरिक और मानसिक बोझ ना बने । जोर-जबरदस्ती से नियमों को थोपा जाना उचित नहीं है । इससे विरोध और विघटन की स्थितियां उत्पन्न हो सकती है ।
नव-पीढ़ी निरंतर सामाजिक संस्थाओं से दूर होती जा रही है जिससे नई विचारधारा से हमारा समाज वंचित रह जाता है । नव-पीढ़ी को जोड़ने के लिए उन्हें सामाजिक संगठनों की विभिन्न कार्य समितियों से जोड़ने की दिशा में संगठन प्रमुखों को सोचना चाहिए । अभी सम्पूर्ण भारत में स्थानीय , जिलास्तरीय , प्रदेशस्तरीय , राष्ट्रीय सामाजिक संगठनों पर नई कार्यकारिणी और पदाधिकारियों के चुनाव और चयन की प्रक्रिया चल रही है ; यही सही समय है कि अनुभवी पदाधिकारी समाज हित में अनुशासन और नियमों की सरलतम व्यवस्था समाज के समक्ष रखे जिसे अपनाने में समाज-बंधु को किंचित हिचकिचाहट ना हो । मत-सम्मत तो मात्र एक जरिया है कि हम आम समाज बंधुओं के विचारों को जान सकते हैं ; हम अपने सामाजिक संगठनों का दिल से सम्मान करते हैं , हमारा उद्देश्य अपने ही सामाजिक संगठनों की मान-सम्मान को ठेस पहुंचाना नहीं है ।
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नियमों का सरलीकरण हो-
नरसिंह करवा ‘बंधु’, जोधपुर
जिला सभाओ से लेकर महासभा के चुनावों के इस दौर में सटीक समय पर माहेष्वरी टाइम्स के मत-सम्मत कॉलम में ऐसे विषय को समायोजित करने के लिए पहले मेरी बधाई स्वीकार करें। संगठन के चुनावों में नियम सख्त या नरम पर एक व्यापक चर्चा वर्तमान समय मे करना बहुत आवश्यक है।
संघठन हो या कोई अन्य जगह वँहा नियम-कायदे अति अनिवार्य एक पक्ष अवश्य होता है पर,समाज के मंच पर संगठन एक महत्वपूर्ण स्तम्भ होता है। सत्ता के विकेंद्रीकरण के साथ संगठन को समाज के अंतिम व्यक्ति तक पँहुच हो तभी उसकी सार्थकता होती है और उस अंतिम व्यक्ति की उपयोगिता को काम लेने का दायित्व भी समाज-संगठन का दायित्व और धर्म होता है। समाज के संगठनों में चुनाव एक प्रक्रिया होती है। उसमे नियम हो तो कोई बात नहीं पर नियम का सरलीकरण होना बहुत जरूरी है ताकि समाज बिखरे हुए हुनर को सहेज कर उसको समाजउपयोगी कार्यो में इस्तेमाल करे तो सफलताएं खुद ब खुद कदम चूमने लग जाती है। पर,सच्चाई तो यह है कि हम समाज में सेवा की गंगोत्री बनाने की जगह राजनीति महत्वकांशाओ का दलदल बनाने से भी नही चूक रहे हैं।
अभी हमारे जोधपुर जिला-सभा के चुनाव सम्पन्न हुए। एक चुनावी नियम के चलते अधिकांस समाज-बन्धु चुनाव लड़ने से वंचित हो गए। इन चुनावों में महासभा की ओर से प्रकाशित होने वाली माहेष्वरी पत्रिका का सदस्य होना जरूरी था। हालांकि नियम का कोई विरोध नही,पर महासभा क्या पत्रिका के सदस्य होने की अनिवार्यता से ही एक माहेष्वरी को संगठन में आने का रास्ता तय करेगी?
जरूर इस पर भी विचार होना चाहिए। समय अभी युवाओ का है तो महासभा को विश्वामित्र बन कर राम पैदा करने चाहिए। उसके लिए अगर नियम-कायदों का सरलीकरण करना पड़े तो समाज-हित मे कर लेने चाहिए। आखिरकार हमे आगे बढ़ना है।
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सामजिक संगठन में सख्त नियम-
पूजा नबीरा, काटोल
समाज में चल रही चुनाव प्रक्रिया एवं संगठन में आपसी मतभेद यूँ तो सभी जानते हैं किन्तु आज-कल व्यवस्था एवं संगठन के संचालन के नाम पर कठिन नियमावली का निर्माण किया जा रहा है। परिणामस्वरुप, जो परिवार इन बातों से अनभिज्ञ हैं वे स्वयं को समाज कटा-कटा महसूस कर रहे हैं एवं आहत भी हैं। रणनीति में राजनीति सम्मिलित हो कर कभी कभी विकृत स्वरुप ले लेती है। समाज की मतदान सूची में नाम न होने पर मतदान से वंचित कर देना एक प्रकार से अन्याय ही है। समाज के दो गुटों में विभक्त होने की स्थिति में नियमावली का हवाला देकर कई
सूचनाओं की जानकारी सार्वजनिक नहीं की जाती जो अनुचित है। सुचारु संचालन हेतु माहेश्वरी महासभा की ओर से मार्गदर्शित एवं निर्देशित किया जाता है लेकिन- समय, परिस्थिति एवं आवश्यकता अनुसार उनका सामंजस्य जरुरी है।
अनुशासन के लिये नियम होना चाहिए जिस से समस्त समाज को एक सूत्र में बाँधा जा सके किन्तु यदि समाज हित में कोई निर्णय लेना हो तो सर्वसम्मति से लिया जाना चाहिए न कि नियमों का हवाला दे कर टाला जाये। नियम समाज हित के लिये ही होते हैं अतः सभी को यथासंभव उनकी जानकारी दी जानी चाहिए। अगर कहीं बदलाव की जरुरत हो तो पुनर्विचार भी किया जाना चाहिए। विकास की राह में अग्रसर होने के लिये अत्यंत कट्टरता के स्थान पर आपसी सामंजस्य को अधिक महत्व दिया जाना चाहिए जो निर्णय समाज हित के लिये सर्वोपरि हो वही स्वीकार्य है।
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हर समाजजन तक पहले पहुंचे-
भगवती शिवप्रसाद बिहानी, असम
अखिल भारतीय माहेश्वरी महासभा समाज ने सभी पदाधिकारियों पर कठिन नियम लागू कर दिया है जिस परिवार का नाम सामाजिक व आर्थिक सूची के सर्वे में नहीं है उसे समाज में मतदान देने का अधिकार नहीं हैं। मेरा कहना यह है कि आपने जो कड़े नियम लगाए हैं, वह जरूरी हैं, लेकिन नियम चालू करने या लगाने से पहले प्रत्येक गांव में जाकर सर्वे किया है, क्या? वाट्सएप, पेपर व पत्रिका में केवल लिखा है और नियम लागू कर दिया, यह तो गलत होगा। हमारे समाज में तीन चौथाई परिवार पत्रिका, पेपर नहीं लेते हैं, कुछ चौथाई परिवार वाट्सअप भी नहीं जानते हैं, उनके मताधिकार छीनता लगता है, इससे तो अपने समाज के बढ़ने में भी कमी आएगी। जब उनको पता चलेगा कि हमारा मताधिकार नहीं है, हमारे समाज में ही तो समाज में दरारें बढ़नी जायज हैं। जब दरारें बढ़ेंगी तो समाज आगे नहीं बढ़ पाएगा। मैं नियम के विरुद्ध नहीं हूं, पर जो भी नियम लागू हों, वह सभी समाजबंधुओं को पता होना चाहिए। मिलकर बैठकर विचार जरूर करें नियम लगाना सरल है, पर उसको पूरी तरह निभाना कठिन हो सकता है। सभी सहयोग करें, समाज के व्यक्ति व सभी मिलकर बात करें और हमारे जो भी बच्चे, भाई-बहन हैं, उन्हें मताधिाकर से अलग नहीं रहने दें।
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कहीं रूस जैसी स्थिति न बन जाए-
श्यामसुंदर धनराज लखोटिया, नाशिक
मैं व्यक्तिगत रूप से सामाजिक सगंठन के नियम खुशी से मानता हूं। इसको लागू करने अलग-अलग तरीके हैं जिस समाज में धर्म और नीति नियम के पांव लड़खाने लगते हो तो समाज में संस्कार खत्म होने लगेगा। आज प्रत्येक चिंतनशील व्यक्ति अनुभव करता है। सत्य, नैतिकता और चरित्र की चर्चा तभी होगी जब समाज में नियम होगा। नियम सख्त असख्त दोनों हो सकते हैं। आज हमारा समाज जिस दौर से गुजर रहा है उससे मुझे भय लग रहा कि हमारा समाज रूस जैसा न हो जाए? समाज शनैः-शनैः रूस की तरह ही टुकड़ों-टुकड़ों में विभक्त होने की कगार की और बढ़ रहा है। कत्र्तव्य परायणता कमजोर हो रही है। येन-केन प्रकार से सत्ता पर कब्जा करना ही उनका एकमात्र उद्देश्य बन गया। इनको संरक्षण देने के लिए भी कुछ व्यक्ति ही जिम्मेदार हैं। जब अपना उल्लू सीधा करना हो तो संविधान को तोड़-मोड़कर फायदा उठाते हैं। मैं आज सभी से आह्वान करता हूं कि समाज में रचनात्मक विचारधारा के साथ आकर गंदगी वाले विचार वालों का सुधार करके समाज सगंठन को बढ़ाने में योगदान दें।
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नियम पालन में ही समाज में हित-
शालिनी चितलांगिया, छत्तीसगढ़
जितने लोग उतनी बातें ये एक सर्वविदित तथ्य है, क्योंकि सबकी सोच अलग अलग होती है। किसी एक विषय को प्रत्येक व्यक्ति अपनी सोच और अपने नजरिये से देखता है और स्वयं की सोच को ही सही मानता है। पर ये सोच व्यक्तिगत रूप में सही सिद्ध हो सकती है लेकिन जहां बात सामाजिक संगठनों से जुड़ी हो, वहां कई लोग एकजुट होकर सामाजिक हित हेतु कार्य करते एवं कई उपयोगी और उचित फैसले लेते हैं। अगर इतनी बड़ी जिम्मेदारी हो और लोगों के वैचारिक मतभेद हों तो समाज उत्थान की ओर कैसे अग्रसर होगा, इसीलिए कुछ नियम कानून बनाये गए हैं, जिनको मानकर किसी एक दिशा की ओर सबके विचारो को इंगित किया जा सकता है। समाज अगर नियमों को सख्त नहीं बनाएगा तो एक संगठन का सर्वसहमति युक्त निर्णय लेना कठिन होगा और कई उचित फैसलों का क्रियान्वयन नहीं हो पाएगा जो समाज के उत्थान में बाधक होगा। अतः नियम बनाकर उनका सख्ती से पालन होना बहुत जरूरी है।
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लचीले हो समाज के नियम-
अनीता ईश्वरदयाल मंत्री,अमरावती
समाज संगठन के नियमों का प्रत्यायोजन संगठन के निम्न स्तर तक किया जाना चाहिए। संगठन की संरचना सरल से सरल होनी चाहिए। संगठन के नियम लोचशील होने से बिना भारी पेâरबदल के ही संगठन में नवीन तकनीक को लागू करके कार्यकुशलता में वृद्धि की जा सकती है। संगठन संरचना में भावी आवश्यकता और वर्तमान स्थिति के अनुसार समायोजन की व्यवस्था नहीं होगी तो संगठन अप्रभावशाली हो जाएगा। समान कार्य करने वाले संगठन के पदाधिकारियों के अधिकारों एवं दायित्वों में भी एकरूपता होनी चाहिए। संगठन के नियम समाज के नागरिकों की इच्छाओं के अनुकूल होना चाहिए। संगठन के पदाधिकारी को कई बार समायोजन करने के उद्देश्य से भावुकतापूर्ण अपीलों का भी सहारा लेना चाहिए। संगठन के नियमों में लोचशीलता नहीं होगी तो संगठन में सत्ता उच्च स्थान से निम्न की और क्रमिक रूप से बढ़ती है। समाज का व्यक्ति उसके विवेक प्रकाश से अपनी भूल को जानने और मिटाने का सामथ्र्य रखता है। विवेक रूपी प्रकाश उसे जन्मजात प्राप्त होता है। संगठन के पदाधिकारी विवेक रूपी प्रकाश से नियमों में लोचदार स्थिति लाकर उन्हें प्राप्त पद का सदुपयोग कर सुंदर समाज का निर्माण कर सकता है। सुंदर समाज के रचना में स्वयं का भी कल्याण है। यहीं वर्तमान समय में समाज और युग की मांग है।
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सख्त नियम बिलकुल उचित-
नवल माहेश्वरी, उत्तर प्रदेश
यह विषय इस समय आया क्योंकि अखिल भारतीय महासभा के चुनाव है। उसमें कुछ बड़ों धनाढ्यों या विशिष्ट को मताधिकार से वंचित रहना पड़ा है। कारण कुछ भी हो पर अनुशासन के बिना कोई देश, संगठन नहीं चल सकता। आज सेना व पुलिस बल अनुशासन के कारण बेहतरीन ढंग से चल रहे हैं, पर अन्य सरकारी या गैर सरकारी उपक्रम अनुशासन के अभाव में जगह-जगह विषमता उत्पन्न करते हैं। अनुशासन सीखना है तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में आईये, देखिये कैसे कार्य होता है? अनुशासन कैसे होता है? क्या है अनुशासन? महासभा का मैं भी कार्यकारी मंडल का सदस्य हूं, हर माह व तीन माह में चाहे माहेश्वरी की सदस्यता हो, बैठकों में उपस्थित या सोशल इंजीनियरिंग डाटा हो, हर समय महासभा प्रदेश सभा से अवगत कराया गया। फिर भी हम कोई अर्हता पूरी नहीं करते, तो जिम्मेदारी किसकी? लेकिन इस बार बड़े महानुभावों के वोट कटे तो प्रश्न उठा। कभी प्रश्न सामान्य व्यक्तियों के कटने पर क्यों नहीं उठता? सोशल इकोनामिक डाटा का फायदा किसके हित में है? आप विचार करें। जो समाज की प्रगति में साथ ही नहीं रह सकता, समाज में साथ नहीं चल सकात, अर्हता पूरी नहीं करता, मताधिकार भी नहीं रख सकता है। समाज का सहयोग करें तभी बढ़ेगा, समाज, देश व धर्म।