तीज-त्यौहारों के मूलरूप में परिवर्तन करना उचित अथवा अनुचित?
तीज-त्यौहारों के मूलरूप में परिवर्तन करना उचित-अनुचित? हमारे तीज-त्यौहार विलुप्त होते जा रहे थे, पर कोरोना काल में ऑनलाइन और सोशल मीडिया ने त्यौहारों में फिर से नई जान डाल दी है। अब हर छोटे-मोटे त्योहार को आधुनिकता का जामा पहनाकर नए रंग-ढंग से मनाने लगे हैं। सोशल मीडिया पर फ़ोटो और वीडियो पोस्ट किए जाते हैं। सभी एक-दूसरे से बढ़-चढ़कर हर त्यौहार को मना रहे हैं। विभिन्न प्रकार के मनोरंजन को त्यौहारों के साथ जोड़ दिया जाता है जिससे मजा दोगुना हो जाता है। नई पीढ़ी में हमारे संस्कार और संस्कृति झलकने लगे हैं पर परिवार और समाज के बड़े-बुजुर्गों को यह बदलाव रास नहीं आ रहा है। आज की युवा पीढ़ी इस बदलाव के कारण ही हमारे रीति-रिवाजों में रुचि ले रही है। एक वर्ग इस परिवतर्तन का विरोध भी कर रहा है।
अत: वर्तमान दौर में यह विचारणीय हो गया है कि त्यौहारों को फिर से जीवंत करने के लिए उनके मूलरूप को परिवर्तित करना उचित है या अनुचित? आइये जानें इस स्तम्भ की प्रभारी सुमिता मूंदड़ा से उनके तथा समाज के प्रबुद्धजनों के विचार।
परिवर्तन भी परम्पराओं को अक्षुण्ण रखने के हित में हो
सुमिता मूंधड़ा, मालेगांव
पिछले कुछ वर्षों से हमारे पारंपरिक त्योहार विलुप्त से होते जा रहे थे। आधुनिकता की ओर बढ़ती नई पीढ़ी को तीज-त्यौहारों को मनाने में बिल्कुल भी रुचि नहीं थी। अब खून में हमारे संस्कारों की पकड़ समझें या घर में बड़े-बुजुर्गों की पैठ कि आज हमारे तीज-त्यौहार आधुनिकता का आवरण ओढ़कर पुर्नजीवित हो रहे हैं। चूँकि सबकी दिनचर्या अतिव्यस्त होने लगी है इसलिए नई पीढ़ी तीज-त्योहारों को अपनी सुविधानुसार परिवर्तित कर मनाने लगी है।
त्योहारों को गेट-टूगेदर का रुप देकर मिलने-जुलने का एक नया तरीका निकाल लिया है। किटी-पार्टियों की थीम त्योहारों के अनुसार रखी जा रही है। इन त्योहार थीम पार्टियों के कारण त्यौहार एक दिन में समाप्त ना होकर 15-15 दिन तक चलते रहते हैं। नई-पीढ़ी त्योहारों को पारंपरिक रूढ़िवादी तरीके से ना मनाकर उसे नया आवरण पहनाकर अपनी रुचियों के अनुसार मनचाहा परिवर्तन कर रही है।
यही कारण है कि अब उन्हें त्योहार बोझ प्रतीत नहीं होते और उनमें त्योहार मनाने की उत्सुकता भी बढ़ने लगी है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है त्यौहार मनाने का पारंपरिक तरीका बदलने से हमारे तीज-त्यौहार फिर से जीवंत हो रहे हैं। हाँ इससे फिजूलखर्ची और दिखावे में भरपूर इजाफा हुआ है। कुछेक उच्च धनाढ्यों के तीज-त्योहार तो रंगीनमिजाज भी होने लगे हैं। इससे मूल संस्कारों और पारंपरिक संस्कृति को ठेस पहुंच रही है जो सामाजिक दृष्टिकोण से शर्मनाक और चिंताजनक है।
समय के साथ परिवर्तन संसार का नियम है, पर परिवर्तन से हमारे संस्कारों और मूल संस्कृति का अपमान नहीं होना चाहिए। परिवर्तन सदैव परंपराओं को संजोकर अक्षुण्ण रखने के हित में होना चाहिए तभी तो पीढ़ी दर पीढ़ी हमारी धरोहर, हमारे संस्कार, हमारी संस्कृति नया जामा पहनकर भी खिलखिलाते रहेंगे।
थोड़ा परिवर्तन अनुचित नहीं
पूनम नंदकिशोर जाजू, मुखेड़, नांदेड
पुराना रिवाज नया अंदाज-थोड़ा तुम बदलो, थोड़ा हम बदले। समय का चक्र जिस तरह घूम रहा है, इस चक्र के साथ हमें भी यदि चलना है तो नई पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी दोनों का सहयोग जरूरी है। कई वर्षों से चले आ रहे अपने त्योहारों को पुरानी पीढ़ी ने बहुत ही आदर-सम्मान और एकजुट होकर मनाया हैं। वही आज की पीढ़ी को देखा जाए तो पढ़ाई; व्यस्तता और समय का अभाव इन कारणों से और कई जगह तो नई पीढ़ी ऐसे भी सोचती थी कि जहां अपना गांव में घर है वहां तो सारे रीति रिवाज होते ही है तो हम ना करें तो भी चलेगा।
लेकिन जब कोरोना का काल आया और सभी फिर से अपने घर परिवार के साथ रहने लगे तो उन्हें भी त्योहारों में मजा आने लगा। उन्होंने कुछ नए अंदाज मे कुछ परिवर्तन के साथ सारे त्योहारों को खुशी-खुशी मनाया। नई पीढ़ी को उसमें आनंद भी बहुत आया और अब यही सिलसिला वैसे ही नए अंदाज में क्यों ना हो मैं मानती हूं कि रीति-रिवाजों को आगे बढ़ाना और इन त्योहारों के महत्व को पीढ़ी दर पीढ़ी संजोए रखना यह सबसे ज्यादा जरूरी है।
नई पीढ़ी इन्हें परिवर्तन करने की कोशिश कर रही है तो इस परिवर्तन में बड़े बुजुर्गों का भी साथ यदि नई पीढ़ी को मिलता है तो यह त्योहार प्रेममय वातावरण में परिवर्तित हो जाएंगे, जिससे परिवार में एकजुटता और प्रेम भी बढ़ेगा।
रूपांतरण कुछ हद तक उचित
नेहा चितलांगिया, मालदा
आज की युवा पीढ़ी पाश्चात्य संस्कृति से अत्यधिक प्रभावित है। उन पर पाश्चात्यता या आधुनिकता का रंग कुछ इस प्रकार चढ़ रहा है कि हमारी अपनी भारतीय संस्कृति कहीं विलुप्त होती नजर आ रही है। हमारे तीज-त्योहारों को वे भूलते जा रहे हैं। ऐसे में हमारे तीज-त्योहारों, संस्कृति, संस्कार आदि को जीवंत रखने के लिए रूपांतरण कुछ हद तक उचित है।
जब त्योहारों के मूल रूप यानी उनमें छिपी शिक्षा, आस्था, विश्वास, अपनापन, आपसी भाईचारा, स्नेह आदि के साथ कुछ परिवर्तित अंदाज भी शामिल हों तो वे युवा पीढ़ी को अत्याधिक आकर्षित करेंगे, जैसे पारंपरिक उपहार कुछ नई लुभावनी सी सजावट के संग। यदि हम त्योहारों को कुछ रोचक, मनोरंजक बनाएं तो युवा वर्ग अपनी संस्कृति से भी जुड़ेंगे और बिना किसी दबाव के अपने रीति-रिवाज, त्योहारों को सहर्ष अपनाएंगे।
समय के साथ चलना आवश्यक है
मनीषा राठी, उज्जैन
भारत एक उत्सव प्रधान देश है। हमारी उत्सव प्रियता जग ज़ाहिर है। त्योहार हमारी सांस्कृतिक धरोहर हैं, जिनसे हम भावनात्मक रूप से सपरिवार जुड़ते हैं। त्योहार आते ही घरों की रौनक़ अद्भुत हो जाती है और फिर यदि शहर से दूर पढ़ने या नौकरी करने वाले बच्चे घर आ जायें तो उस वातावरण का कहना ही क्या? युवा पीढ़ी को यदि अपनी संस्कृति, संस्कार और त्योहारों से जोड़े रखना है तो उसके मूल स्वरूप को बनाये रखने के साथ थोड़ा बहुत परिवर्तन करने में कोई हर्ज नहीं।
उदाहरण के तौर पर रक्षाबंधन माहेश्वरी परिवारों में ऋषि पंचमी को मनाया जाता है किंतु उस दिन सार्वजनिक अवकाश नहीं होता तो ये त्योहार उसके आस पास आने वाले रविवार को (ऐसा ही भाई दूज का पर्व भी) किसी एक स्थान या तो कोई होटल, गार्डन या रिसोर्ट में सभी बहनों और भाईयों के आर्थिक सहयोग से मना लिया जाता है जिससे अतिरिक्त व्यय भार किसी एक पर नहीं पड़ता और समय की भी बचत होती है। रविवार अवकाश सभी को सुविधाजनक होता ही है।
इसी तरह दीपावली पर दीयों के साथ साथ बिजली से चलने वाली लाइटिंग लगाने में बच्चों की मदद ले कर उन्हें उस त्योहार की महत्ता बताई जा सकती है। त्योहार सिर्फ़ तैयारियां नहीं हैं, ये बच्चों को रीति-रिवाज़ और परंपराओं से परिचित कराने के अवसर भी हैं। आपकी एक छोटी-सी कोशिश आपके बच्चे को उसकी संस्कृति की जड़ों से जोड़े रखेगी।
जब भी प्रथाओं में कुछ नवीन परिवर्तन होता है तो प्रारंभ में उनका विरोध स्वाभाविक है किंतु उसके दीर्घक़ालीन परिणाम सकारात्मक होते हैं तो ये विरोध स्वतः ही समाप्त हो जाते हैं। अत: नई पीढ़ी को अपनी संस्कृति, संस्कार, परम्पराएँ और त्योहारों की धरोहर हस्तरांतरित करने के लिए उसके स्वरूप में थोड़े बहुत परिवर्तन श्लाघ्य हैं।
समयानुकूल बदलाव उचित
विनीता काबरा, जयपुर
‘फूल की जगह पंखुड़ी हो तो भी अच्छा’ यह कहावत तो हम अपने बचपन से ही सुनते आ रहे हैं। यह इस विषय पर भी सार्थक है। आधुनिक युग में तीज त्योहारों के मूल रूप में परिवर्तन तो हुआ है लेकिन यही परिवर्तन अगर युवा पीढ़ी को जोड़ रहा है तो यह उचित है। कुछ नहीं करने से तो अच्छा है कुछ करें, अगर युवा पीढ़ी परिवर्तन के साथ त्योहारों को अपना रही है और उनमें अपनी हिस्सेदारी बढ़ा रही है तो यह समाज के लिए अच्छा है।
जब वह तीज त्योहार को मनाएँगे, बड़ों के साथ रहेंगे, तो उनकी सोच में भी परिवर्तन आएगा। वह धीरे-धीरे ही सही और परिवर्तनों के साथ ही सही लेकिन अपने रीति-रिवाजों को अपनाएंगे। उन्हें अपनी समृद्ध विरासत और तीज त्योहार के पीछे का विज्ञान भी पता चलेगा तो वह भी अपनी इस परंपरा को गर्व से अपनाएँगे।
आधुनिक युग की आपाधापी में सभी त्योहारों को मूल रूप से मनाना आज की युवा पीढ़ी के लिए संभव नहीं है लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वह परिवर्तन के साथ अपनाएँ तो वह गलत है। हमारे ग्रंथ और पुराण समय से बहुत पहले की सोच लेकर लिखे गए हैं। तब त्योहारों की जो परंपराएं बनी वह उस समय के हिसाब से बनी हुई थी वो आज के समय में प्रासंगिक नहीं है तो बदलाव के साथ अपनाना सवर्था उचित है।