समाज के लिए चुनाव उचित या अनुचित
लोकतांत्रिक प्रक्रिया में चुनाव इसका महत्वपूर्ण आधार है। कारण यह है कि इसमें हम अपने नेतृत्व का चयन बहुमत के आधार पर करते हैं। हमारे समाज संगठन भी अपने विधानानुसार लोकतान्त्रिक आदर्शों को अपना आधार मानते हैं। गत सत्र में प्रयोगात्मक रूप से चुनाव की जगह चयन किया गया लेकिन इस बार भी इस हेतु महासभा में दबाव बनाया जा रहा है। आखिर प्रजातांत्रिक प्रणाली से चुनाव से इतना भय क्यों है? वर्तमान स्थिति में यह विचारणीय हो गया है कि हम सोचें समाज के लिये चुनाव उचित हैं या अनुचित? आइये जाने इस ज्वलंत विषय पर स्तम्भ की प्रभारी मालेगांव निवासी सुमिता मूंधड़ा से उनके व समाज के प्रबुद्धजनो के विचार।
कर्तव्यनिष्ठ प्रतिनिधि जरुरी- सुमिता मूंधड़ा, मालेगांव
समाज का नया प्रतिनिधि और कार्यकारिणी समिति का गठन चुनाव और चयन दोनों प्रक्रिया से संभव है । लोकतंत्र की परिभाषा चुनाव को अहमियत देती है , जिससे समाज का हर बंधु अपनी पसन्द से चुनिंदा उम्मीदवारों से अपना प्रतिनिधि चुन सकता है पर इस प्रक्रिया से समाज पर समय और अर्थ दोनों का भार बढ़ता है । समाज प्रतिनिधि बनने के लिए उम्मीदवारों की कतार लंबी हो तो चुनाव आवश्यक हो जाता है पर इससे समाज की एकता में सेंध दिखने लगती है । समाज में मतभेद और मनभेद बढ़ते जाते हैं । देखा जाए तो चुनाव के पीछे कुछ समाज-विद्रोही घटक ही होते हैं जो अपने निजी स्वार्थ के लिए , समाज की एकता को भंग करने के लिए , अपनी पेंठ-धौंस जमाये रखने के लिए ऐसा माहौल बना देते हैं कि चुनाव ही एकमात्र विकल्प रह जाता है । सुलझे हुए समझदार सामाजिक कार्यकर्ता कभी भी समय और अर्थ का बोझ समाज पर नहीं डालना चाहते हैं और चुनाव के स्थान पर चयन को महत्व देते हैं । चयन प्रक्रिया में समाज के अनुभवी और वरिष्ठजनों द्वारा चयनित उम्मीदवार को अपना प्रतिनिधि मानकर आपसी समझदारी से संगठित समाज का उदाहरण पेश कर सकते हैं । चयन प्रक्रिया करते समय अनुभवी समाज-बंधुओं को समाज के हर वर्ग को ध्यान में रखकर ऐसे कार्यकर्ता को प्रतिनिधि के रूप में चुनना चाहिए जो तन-मन ही नहीं समय-संयम , समझदारी और दूरदृष्टि रखता हो । अगर समाज की छोटी-बड़ी हर समस्या और समाधान के लिए जागरूक और कर्तव्यनिष्ठ प्रतिनिधि बने तो चयन हो या चुनाव ; समाज को दोनों ही प्रक्रिया मान्य होगी ।
चयन के नाम पर चालाकी न हो- रमेश काबरा
माहेश्वरी समाज की शीर्ष संस्था अखिल भारतवर्षीय माहेश्वरी महासभा के चुनाव का समय आ गया है। ये चर्चा ज़ोरों से चल रही है कि पदाधिकारियों का चयन मतदान करवा कर चुनाव द्वारा किया जाए या सर्वानुमति से चयन द्वारा, जैसे पिछले सत्र में हुआ था। चुनाव का मतलब है, किसी एक व्यक्ति को हमारे समाज का शीर्ष नेतृत्व के रूप में चयन करना, जिसकी सामजिक सोच हो, धरातल से समाज के सभी वर्ग से जुड़ा हो और आम समाज के दुःख दर्द को समझता हो तथा सभी को साथ लेकर चलने कि क्षमता हो। फिर चाहे वो चुनाव से आए या चयन से आए ये महत्वपूर्ण नहीं है। लोकतंत्र में यह अधिकार सभी समाज बंधुओं को है। चुनाव सर्वानुमति से चयन द्वारा संभव नहीं होते हैं तो चुनाव ही एकमात्र विकल्प होता है। कई बार यह सवाल उठता है कि आखिर चुनाव क्यों होना चाहिए? क्या वास्तव में इसकी आवश्यकता है? चुनाव होने से समाज में दो ग्रुप हो जाते हैं। जैसा कि सर्वविदित है ही कि पिछले चुनाव में भी पदाधिकारियों का चयन करके सर्वानुमति द्वारा चुनाव किया गया था लेकिन उस चयन में भी चालाकी थी। समाजबंधुओं ने जिनके हाथ में सिर्फ सभापति के चयन प्रक्रिया के जवाबदारी थी उन्होंने बाकी सभी लोगों की टीम का चयन भी अपने ग्रुप विशेष के लोगों से कर लिया जो कि एक स्वच्छ लोकतंत्र की परम्परा नहीं है। मेरा यह मत है की जहाँ-जहाँ भी नेता या उत्तराधिकारी चुनने में पक्षपात होता है या जोर जबरदस्ती होती है, तब उस संस्था का विकास नहीं हो पाता, बल्कि विघटन ही होता है। दुर्भाग्यवश इस बार महासभा के हुक्मरानों ने उन्हीं लोगों को वोट देने का अधिकार दिया है जिन्हें इस सत्र में कराए गए सामजिक आर्थिक सर्वेक्षण में अपने आप को पंजीकृत किया है व वो ही चुनाव लड़ सकते हैं, जबकि अभी तक यह कार्य अधूरा ही है। जब इस तरह के सर्वेक्षण का कार्य ही अपूर्ण है तो इस तरह की अहर्ता को क्यों लागू किया गया? क्या कुछ चंद लोगों के लिए ही यह महासभा है? क्या यह आम समाजबंधुओं के लिए तानाशाही थोपना जैसा नहीं है, अन्याय नहीं है? इसलिए चुनाव की पद्धिति तो निष्पक्ष होनी ही चाहिए और चयन के नाम पर चालाकी से भी बचना चाहिए।
चयन या चुनाव-दोनों में आरोप-
सतीश लाखोटिया, नागपुर
‘लोकतांत्रिक देश हमारा भारत, उसमे हम माहेश्वरी, हमारा समाज और चुनाव’ बड़ा ही रोचक एवं चिंतनीय विषय है, समाज चुनाव। हम समाज के लोग दोनों ही तबलों पर बात करने में माहिर हैं। सिलेक्शन से चुनाव हुआ तो भी आरोप, मतदान हुआ तो बहुत पैसा खर्च किया, गुटबाजी, सौदेबाजी करके जीत गए। यह संगीन आरोप, दोनों ही सूरतों में लगतें हैं। समाजसेवा करने वाले का निश्चित ही मरण है। यह कटु सत्य है, जनप्रतिनिधि चाहे कोई भी हो जो काम करेगा उसके हाथ से गलतियां होना स्वाभाविक बात है। पर उन गलतियों को बढ़ा-चढ़ाकर इशू बनाकर अपने आप को बढ़ा समाजसेवी बताना आजकल आम बात हो गई है। मेरी सोच के हिसाब से सिलेक्शन या इलेक्शन कुछ भी करा लो, गुटबाजी, सौदेबाज़ी, दिखावा, कुछ भी कम होने के आसार मुझे तो व्यक्तिगत तौर पर दिखाई नहीं देते। समाजसेवा करने वाले हमारे बंधु जो भी सत्ता में आते हैं, सभी अपने अपने तरीके से बेहतर काम करने की कोशिश दिल से करते हैं, कोई कम तो कोई ज़्यादा। हम सभी समाजबंधुओं को पहले स्वयं में आमूल परिवर्तन यह लाना चाहिए की टीका-टिपण्णी के बजाए मुख्यधारा से जुड़कर अपने से जो भी बन पड़ता वह करने का जतन दिल से करना चाहिए।
समाज हेतु चुनाव ही अधिक उचित-
अनिता मंत्री
चुनाव का अर्थ होता है, योग्य व्यक्ति का चयन करना। वर्तमान समय में यह मानव के विकास का एक अहम हिस्सा है। चुनाव द्वारा समय-समय पर होने वाले परिवर्तन इस बात को साबित करते हैं कि अंतिम निर्णय जनता का ही होता है। एक लोकतांत्रिक देश में रहने वाले उच्च शिक्षित समाज में भी चुनाव व्यवस्था का काफी महत्व होता है क्योंकि इसी के द्वारा समाज के नागरिक अपने समाज के अच्छे विकास के लिए उसे सुचारु रूप से चलाने के लिए नेतृत्व चुनते हैं। इससे समाज को उचित सम्मान मिलता है व समाज के लोगों को आपस में संचार अथवा जुड़ाव होता है। सामाजिक कार्यकर्ता को अनुभव के आधार पर अपने स्वयं के व्यक्तित्व को विकसित करने का अवसर मिलता है। समाज के चयनकर्ता समाज में नयी पीढ़ी के लिए नयी तकनीक का विकास व समाज की आर्थिक-सामाजिक स्थिति में सुधार कर सकते हैं।
पुनः पद न लें-
श्यामसुंदर लाखोटिया, मालेगांव
आज हमारे समाज के सामने वर्तमान युग की एक ऐसी उलझन भरी भयानक समस्या उपस्थित है, जिससे बचा नहीं जा सकता? प्रश्न है, समाज में चुनाव या चयन के बारे में? समाज में ज्ञान और विज्ञान की सतत प्रग्रति तो चुनाव चयन पद्धिति से ही हो सकती है व समाज का संगठन मजबूत भी। समाज में बड़े पदों पर जो विराजमान हैं, उनको वापस पद लेना नहीं चाहिए ताकि दूसरों को भी मौका मिले। मनुष्य के मन में विष भी है, अमृत भी। विष व अमृत कहीं बाहर नहीं रहते हैं, वे मनुष्य के विचार एवं संकल्प में ही रहते हैं। चुनाव द्वंद्व-युद्ध है, इससे क्रोध-घृणा का निर्माण होता है। चयन से अमृत ही मिलता है। त्याग और वैराग्य बाहर से लादने पर नहीं आता है, वह तो अंतर में जागरण से हो जाता है। यह सब वर्तमान पदाधिकारी के मन के जागरण पर ही निर्भर है।
सहमति न होने पर ही चुनाव जरुरी
-पूजा नबीरा, काटोल
नेतृत्व हेतु आजकल चुनाव की प्रक्रिया तब आवश्यक हो जाती है, जब सर्वसम्मति से एक नाम पर सहमति न हो। किन्तु यह भी सत्य है इससे गुटबाजी एवं छींटाकशी के साथ वैमनस्य बढ़ जाता है एवं एक गाँठ हमेशा के लिए मन पर पड़ जाती है। ये विरोध पक्ष-विपक्ष की तरह पूरे कार्यकाल में चलता रहता है। अतः चुनाव की जगह यदि योग्य को सर्वसम्मति से चुना जाए तो एक सौहार्दपूर्ण वातावरण में सभी कार्यक्रम सफलतापूर्वक हो सकेंगे। संगठन का मतलब ही संगठित रहना है, पर मतभेद के साथ रखी नींव मनमुटाव कर कई खाई उत्पन्न कर संगठन को कमज़ोर कर देती है। अतः योग्य व्यक्ति का चुनाव यदि निर्विरोध हो तो समाज के विकास के लिए यह निश्चित ही अधिक शुभ एवं सार्थक होगा।
लोकतंत्र के नींव है चुनाव
-राजकुमार मूंधड़ा, मालेगांव
लोकतांत्रिक व्यवस्था की नींव ही चुनाव है, चयन नहीं। जब आप किसी संस्था को चलाने की जिम्मेदारी किसी को सौंपते हो तो वो व्यक्ति उस पद के लिए लायक है या नहीं ये आप चुनाव के माध्यम से ही समझ सकते हो क्योंकि उसी से वैचारिक मतभेद सामने आते हैं। इससे इस बात का ज्ञान होता है कि किसकी विचारधारा समाज के हित में है। वरना आप चयन प्रक्रिया में तो उन महानुभाव को आर्थिक और ताकतवर ओहदा देखकर सीधा कुर्सी पर बैठा देते हो चाहे वह उसके लायक हो या नहीं। ऐसे किसी महानुभाव को पद देने के बाद, जिन्हे उसकी पूरी जानकारी तक नहीं होती, कई संस्थाओं का विनाशकारी हश्र होते देखा गया है। आजकल समाज बांधव भी इस बारे में काफी समझदार हो गए हैं और समाज का भला बुरा अच्छी तरह समझते हैं। अंत में इतना ही कहना चाहूंगा कि ऐसी आदर्शवादी संकल्पना क्या काम की, जिससे समाज का भला होने के बजाय गलत हाथों में डोर सौंप दी जाए।
सर्वसम्मति है समय की आवश्यकता
-शालिनी चितलांग्या, छत्तीसगढ़
चुनाव का मतलब अपनों के बीच से ही अपना मुखिया चुनने की प्रक्रिया है, जो सर्वथा उपयुक्त एवं प्रभावकारी है। जब हम किसी व्यक्ति विशेष को मुखिया हेतु चुनते हैं, हम उस पर अपना भरोसा दिखाते हैं, पदभार संभालने हेतु उपयुक्त समझते हैं, तो यह बहुत बड़े सम्मान की बात होती है। प्रजातांत्रिक राज में अगर प्रजा किसी एक को जिम्मेदारी सौंपे तो उससे बड़ी उपलब्धि क्या हो सकती है? वो एक अकेला व्यक्ति सैकड़ों, लाखों, करोड़ों की अपेक्षाओं का आदर कर उनका प्रतिनिधित्व करता है। किन्तु आजकल चुनाव सार्थक इसलिए नहीं लगते क्योंकि समाज में राजनीति बढ़ती जा रही है और आपसी सहयोग, मिल बाटकर कार्य का क्रियान्वन घटता जा रहा है। ऐसे में एक अकेला मुखिया लोगों के समक्ष यदि एक गलत फैसला कर दे तो तो लोग उसका साथ नहीं देते जबकि ये वही लोग हैं, जिन्होंने उसे चुना है। अतः चुनाव का महत्व समझते हुए सर्वसम्मति से किसी एक व्यक्ति को चुनना और उसका सहयोग करते हुए उसे और स्वयं को एक समझकर फैसला करना आज की एक परम आवश्यकता है।
*चुनाव से अहं की जीत होती है *
लोकतांत्रिक तरीके से चुनाव समाज हित मे बिल्कुल भी नही है,छोटा सा सामाजिक दायरा उसमे भी चुनाव से संबंधों में दरारें आना प्रारम्भ हो जाती है|
चुनाव से पूर्व तक जो प्रत्याशी सामाजिक स्तर पर समाज के नाम और हित के लिए संघर्षरत रहते हुए अपना संपूर्ण समाज को देने के लिए तत्पर और सक्रिय रहता है,वो पराजय के पश्चात समाज की मुख्य धारा से कट जाता है,लोकतान्त्रिक तरीके से चुनाव यदि कराना ही है तो फिर 18 वर्ष से ऊपर के सभी समाज जनो से मतदान कराया जाय ताकि हर समाज बंधु उस व्यक्ति के बारे में जान सके|
ये निचले संगठन के पदाधिकारियो के माध्यम से उच्च पदों का चयन पूर्णतः गलत प्रक्रिया है,यदि व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा को भुलाकर आपसी सामंजस्य और सद्भावना से पदाधिकारियों का मनोनयन किया जाय तो समाज हित मे होगा।
सही कथन रमन काबरा जी….