“पुराने व नई पीढ़ी के बीच वैचारिक टकराव”- जिम्मेदार कौन?
वैचारिक टकराव – “कल- आज और कल” यह बीते समय की फ़िल्मी कहानी नहीं बल्कि घर-घर की कहानी है। नई व पुरानी पीढ़ी के बीच वैचारिक टकराव होता ही रहा है और वर्तमान दौर में तो यह और भी बढ़ गया है। इससे अच्छे भले सुसंस्कृत परिवारों की खुशियां भी कम हो जाती हैं। ऐसे में विचारणीय हो गया है कि आखिर पुरानी व नई पीढ़ी के बीच वैचारिक टकराव क्यों होता है?
आखिर इस वैचारिक टकराव के लिए ज़िम्मेदार है कौन? समाज ही नहीं बल्कि पारिवारिक व्यवस्था को आदर्श व सुखद बनाये रखने के लिये इस ज्वलंत विषय पर चिंतन अनिवार्य हो गया है। आइये जानें इस स्तम्भ की प्रभारी सुमिता मूंधड़ा से उनके तथा समाज के प्रबुद्धजनों के विचार।
थोड़ा-थोड़ा दोनों झुकें:
-सुमिता मूंध़ड़ा, मालेगांव
भारतीय परिवारों में तीन से चार पीढ़ियां एक छत के नीचे रहती हैं। हर पीढ़ी स्वयं को शत-प्रतिशत सही समझती है। कभी-कभार आपसी वैचारिक मतभेद विकराल रूप ले लेते हैं। परिवार में सामंजस्य बनाए रखने के लिए हर पीढ़ी का सहयोग आवश्यक है।
सिर्फ एक पीढ़ी से ही सर्वदा परिस्थितियों के अनुरूप स्वयं को ढालने की उम्मीद करना गलत है। नव-पीढ़ी में जोश और जिज्ञासा भरपूर होती है, समय के साथ दौड़ लगाती इस पीढ़ी पर लगाम कसना टेढ़ी खीर है।
घर के बड़े-बुजुर्ग इनके कार्यकलापों पर नजर रखते हुए नव-पीढ़ी से दोस्ताना संबंध बनाए रखे और जब कभी इनके कदम डगमगाए तो समझदारी और सूझबूझ के साथ इनका मार्गदर्शन करें।
उन पर जिम्मेदारियां थोपने की बजाय उनको जिम्मेदारियां सौंपें। चूंकि समय के साथ-साथ परिवर्तन होने से कार्य अब आसान हो गए हैं जिनका असर रहन-सहन पर भी पड़ता है। आज के बच्चे कुएं के मेढ़क की तरह नहीं हैं, वो तो पूरे आकाश को नापना चाहते हैं।
उनकी जिज्ञासा या ज्ञान भी सीमित नहीं है। पर उनकी बंधनमुक्त और खुली सोच को बड़े-बुजुर्गों अपनाना नहीं चाहते, घर के बुजुर्गों में बदलाव लाना काफी मुश्किल होता है। आज की पीढ़ी को थोड़ा धैर्य और संयम रखकर अपनी बात बड़ों को समझानी होगी, जिद्द तो बनती बात को भी बिगाड़ सकती है।
हम चाहे जितने भी आधुनिक और डिग्रीधारी हो जाएं पर कभी अपने पारिवारिक संस्कार और संस्कृति का दामन ना छोड़े, अगर यह बात आज की पीढ़ी गांठ बांध लें तो परिवार की एकता और अखंडता पर कभी आंच नहीं आएगी। थोड़ा झुकें-थोड़ा झुकाएं। सहर्ष पारिवारिक परिवर्तन अपनाएं।
बच्चों को संस्कारों का पाठ भी पढ़ाएं:
-श्यामसुंदर धनराज लखोटिया, मालेगांव
वैचारिक टकराव – आजकल हर माता पिता अपने बच्चों को ऊंचे स्कूलों में पढ़ाते हैं, लेकिन उन बच्चों मे विनम्रता का पाठ नहीं के बराबर होता है। उनमें सात्विक प्रवृत्तियां का लोप हो रहा है, सादगी का अभाव है।
आवश्यकता है तो बस थोड़े से समन्वय की तथा बालकों में स्वयं के प्रति परिवार के प्रति तथा समाज के प्रति कर्तव्यों की भावना जाग्रत कराने की। शक्ति-भक्ति और युक्ति का संगम कराना व सिखाने की भी जरूरत है।
आज की पीढ़ी की सोच है खाओ पीओ मौज करो, पुरानी पीढ़ी की सोच जियो और जीने दो। सुंदरकांड की पहेली चौपाई याद दिलाती है ‘जामंवत के बचन सुहाए, सुनि हनुमंत हृदय अति भाए’, जामंवत जी वृद्ध हैं, हनुमानजी अतुलनीय बलशाली नौजवान हैं।
वृद्ध की सलाह को स्वीकार करके सुंदरकांड की रचना हुई। हमारा कहना है आज की पीढ़ी वृद्धों से सलाह ले तो जीवन मे पारिवारिक व्यवस्था आदर्श व सुखद बन सकती है।
माता-पिता ही जिम्मेदार:
-अनिता ईश्वरदयाल मंत्री, अमरावती
आज के समय में माता-पिता बच्चों को सिर्फ और सिर्फ पढ़ाई, लिखाई के प्रति जागरूक करते हैं। इसलिए युवा जीवन में प्रगति कर रहे हैं। बुजुर्ग जीवन के अंतिम पड़ाव में अकेलेपन से जूझ रहे हैं।
उच्च शिक्षा के लिए घर से बाहर निकले बच्चों की गृह वापसी कम ही होती है। उन्हें सिर्फ आजादी, विचारों में, निर्णय में किसी का सुझाओं या हस्तक्षेप पसंद नहीं है। आज संयुक्त परिवार लगभग समाप्त ही होते जा रहे हैं।
घर आपके बच्चे के ‘सीखने के लिए पहला विद्यालय’ है। घर पर एक अनुकूल और प्रेमपूर्ण वातावरण बनाएं, जिसमें वह जीवन के सभी मूल्यों और गुणों को सीख सके। इसके लिए परिवार के हर सदस्य को एक-दूसरे के प्रति प्यार और सम्मान दिखाने के लिए प्रोत्साहित करें।
इसके अलावा, उन कार्यों और व्यवहार का अनुसरण करें जिनकी आप बच्चों से उम्मीद करते हैं। आपको और आपके परिवार के बच्चों को सुविधा के साथ-साथ संस्कार भी देना अनिवार्य है । इसलिए सिर्फ और सिर्फ माता-पिता ही इस टकराव के लिए जिम्मेदार है।
दोनों जिम्मेदार नहीं:
-भारती काल्या, कोटा
जिम्मेदार न घर के बुजुर्ग हैं, न बच्चे। वास्तव में जिम्मेदार हैं, बच्चों और बड़ों के बीच विचारों में असमानता, वैमनस्यता, सहनशीलता की कमी व एक-दूसरे की बात न सुनना। समय के साथ परिस्थितियों, आवश्यकता, जीवनशैली सभी में बदलाव आ रहा है।
इन बदलावों को ध्यान में रखते हुए बढ़ो और बच्चों को एक-दूसरे को समझना चाहिए, तभी पुरानी और नई पीढ़ी के बीच विचारों में टकराव नहीं होगा। बुजुर्ग कुछ परंपराएं अपनी नकार दें, कुछ-कुछ आधुनिकता का जामा ओढ़लें।
बच्चे कुछ बुजुर्गों की परंपराएं थाम लें, कुछ आधुनिकता बिसार बुजुर्गों के अनुभव का लाभ लें। बुजुर्ग बच्चों में बच्चे बन जाएं, किसी बात पर बच्चे यदि गलत हैं तो प्रेम और विश्वास से समझाएं।
बच्चे बुजुर्गों का सम्मान करें। कम्प्यूटर, मोबाइल जैसे संसाधनों का उपयोग करना सिखाते हुए स्वयं से जोड़ें। बुजुर्ग बच्चों की बात सुनें। हो सकता है किसी काम में उनके विचार आपसे ज्यादा बेहतर हों।
बच्चे जो भी काम करें, घर के बड़े सदस्यों की राय जरूर लें, इससे बच्चों और बूढ़ों में अपनापन बरकरार रहेगा। घर के सभी सदस्य ईश्वर की संध्या आरती इकट्ठे होकर करें इससे भी नकारात्मकता दूर होती है।
अंगुली पकड़ के ‘जो’ चलते थे वे ही अब मुझे रास्ता दिखाते हैं:
-राजकुमार जाजू, वर्धा (महाराष्ट्र)
वैचारिक मतभेद और असहमति ये मानव जीवन शैली का हिस्सा ही है किंतु दो पीढ़ियों के बीच कोई वैचारिक मतभेद हों तो उसे हम जनरेशन गैप का नाम दे देते हैं।
वस्तुतः पुरानी और नई पीढ़ी का संघर्ष नूतन और पुरातन सोच का संघर्ष है, जो कम अधिक मात्रा में सदैव रहता है किंतु वर्तमान युग में अचानक भारी परिवर्तन हो जाने के कारण टकराव की परिस्थितियां अधिक स्पष्ट और प्रभावशाली हो गई है। इससे संघर्ष को और भी बल मिला है।
दोनों पीढ़ियों में संघर्ष का एक कारण मानव जीवन में बढ़ती हुई संकुचित संकीर्णता भी है। विज्ञान के साथ-साथ मनुष्य की गति दूर-दूर तक संभव हो गई। उसी अनुपात में उसका हृदय संकुचित और संकीर्ण बन गया।
दोनों पक्षों का अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन करना ही इसका एकमात्र उपाय है। नई पीढ़ी यदि बड़ों को अत्याधुनिक गतिविधियों से प्रेम से अवगत कराती रहे और धीरज के साथ परंपराओं का पालन करें तो वे इनके दिलों में राज कर सकते हैं।
बुजुर्गों को भी चाहिए कि हर समय बच्चों को गलत ना ठहराए, इनके जीवन जीने के तौर-तरीकों में अनावश्यक हस्तेक्षप न करे तथा नये विचारों को सहजता से अपनाकर अपना स्थान व कद और भी ऊंचा उठा सकते हैं।