Readers Column

जीवन के लिये जरुरी है प्रकृति का साथ

पर्यावरण अर्थात् प्रकृति हम उसके संरक्षण की बात आमतौर पर ऐसे करते हैं, जैसे आदर्शों का प्रदर्शन कर रहे हैं। लेकिन हकीकत देखें तो हम जो भी करते हैं, अपने लिये ही करते हैं। कारण यह है कि जीवन के लिये प्रकृति का साथ जरूरी भी है। आखिर हम भी तो इस पर्यावरण का ही एक हिस्सा है।

प्रकृति संरक्षण यह भारतीय संस्कृति का ही अहम भाग है। यहाँ के प्रत्येक त्यौंहार, हमारी दिनचर्या, हमारी पूजन पद्धति आदि सभी पर्यावरण व वृक्षों के साथ जुड़ी हुई है। कभी हम वट वृक्ष की पूजा कर उस पर मोली बाँध लम्बी उम्र की कामना करते हैं तो कभी पीपल, तुलसी को सींचकर सुख-समृद्धि चाहते हैं।

dr sulakshmi toshniwal

कभी बिल्व-पत्र भगवान शिव पर चढ़ा कर उन्हें प्रसन्न करते हैं, तो कभी भारतीय नववर्ष पर नीम, काली मिर्च व मिश्री का सेवन कर स्वस्थ रहने की कामना करते हैं तो सातुड़ी तीज पर महिलाएं नीमड़ी माता (नीम की डाली) की पूजा कर पारिवारिक सुख समृद्धि व लम्बी आयु की कामना करती हैं, तो कभी आँवले के वृक्ष की पूजा तो कभी केले के पौधे की पूजा कर स्वस्थ्य व समृद्ध बने रहने की मंगल कामना करते हैं।

भारतीय संस्कृति में वृक्षों की पूजा करना अर्थात् वृक्षारोपण निरन्तर करते रहना, उनको खाद-पानी देकर बड़ा करना फिर उनका सेवन करना आदि बातें मुख्य रूप से बतायी गई हैं। हममें से अधिकांश व्यक्ति इन वृक्षों की पूजा भी करते हैं तो सेवन भी करते हैं।

जब हमारी संस्कृति ही पर्यावरण रक्षा से प्रेरित है तो हम भी हमारी सोच में थोड़ा परिवर्तन करें और हमारे सामाजिक रीति-रिवाज के साथ वृक्षारोपण को जोड़ लें तो देखते ही देखते प्रदूषण स्वत: ही समाप्त होता चला जायेगा। हमारे जीवन के तीन मुख्य चरण हैं- जनम, परण व मरण। ये तीनों ही प्रकृति के साथ जुड़े हैं।


जन्म पर प्राकृतिक वंदनवार

घर में नये प्राणी के आगमन के समय कमरे व घर के द्वार पर नीम की पत्तियों की बंधनवार बाँधी जाती है, नीम के पानी का उपयोग करते हैं। इन सबके पीछे मान्यता है कि नीम में इतनी ताकत है कि उसकी छाया व हवा से सभी प्रकार के रोग के कीटाणु नष्ट हो जाते हैं। बच्चे के जन्म के समय जिस प्रकार कई सामाजिक रीति-रिवाजों, भोज आदि का आयोजन करते हैं, उसी प्रकार निश्चय कर लें कि एक वृक्ष भी लगायेंगे, जो बच्चे के जीवन के लिए स्वस्थ्यता का आशीर्वाद होगा।


परण (विवाह) में प्रकृति संरक्षण

परण अर्थात विवाह के समय भी घरों में ताजे पत्तों की वंदनवार बाँधी जाती है। कलश को नीम के पत्तों से सजाया जाता है, तो मण्डप केलों के पत्तों से। जब दूल्हा, दुल्हन के यहाँ पहुँचता है तो स्वागत में पुष्प वर्षा की जाती है, जो सम्मान का भी प्रतीक है। तोरण हेतु भी नीम की डाली का ही उपयोग किया जाता है।

इस अवसर पर भी यदि एक वृक्ष लगा दें तो धरती को हरा-भरा बनाने में वर-वधू का भी योगदान रहेगा व सुखद स्मृतियां भी बनी रहेगी। राहगीर व पशु-पक्षियों को छांव मिलेगी तथा उनका आशीर्वाद भी अनजाने में ही प्राप्त हो जायेगा।


मुक्ति की कामना में भी प्रकृति

मरण अर्थात् मृत्यु के समय भी सुखी लकड़ियों से दाह-संस्कार किया जाता है। मुँह में तुलसी पत्र व पवित्र गंगाजल दिया जाता है। अर्थात् मृत्यु के समय भी वृक्षों का उपयोग किसी न किसी रूप में किया ही जाता है। हमारा भी कर्त्तव्य बनता है कि हम कम से कम एक वृक्ष तो हमारे प्रिय परिवारजन की याद में लगाएं, जो फल-फूल व पत्तों से परिपूर्ण हो सम्पूर्ण दुनिया को स्वस्थता का आशीर्वाद होगा।

हमारे परिवार में मेरे पिताजी सेठ सुंदरलालजी, माता चम्पादेवी व भ्राता महेंद्र तोषनीवाल की मृत्यु पश्चात हमने उनकी याद में वृक्षारोपण किया। जमीन में गहरा गड्ढा करके उनकी अस्थियों को सम्मानपूर्वक रखकर ऊपर से वृक्ष लगा दिया। यह अस्थि-विसर्जन भी धरती माता की गोद में हो गया जो हम सब की पालनहार है।

अस्थियां खाद में परिवर्तित हो उस वृक्ष को पोषित भी करती है। आज भी जब उनकी स्मृति में लगा वृक्ष देखते हैं तो ऐसा लगता है मानों अपने रोम-रोम से पूरी दुनिया को आशीर्वाद दे रहे हैं।

आइये! हम सभी आजादी के इस अमृत महोत्सव पर प्रण करें कि हम हमारे प्रत्येक सामाजिक व पारिवारिक आयोजन पर एक वृक्ष अवश्य लगायेंगे व दूसरे व्यक्तियों को भी इस हेतु प्रेरित करेंगे, यही हमारी प्रकृति के प्रति सच्ची उपासना व पूजा होगी।


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