प्रकृति के प्रति क्या हम अपनी ज़िम्मेदारी निभा रहे हैं?
वर्तमान दौर में समाचार-पत्र पौधरोपण के समाचारों से भरे रहते हैं। इसके बावजूद हरियाली बढ़ने की जगह कम होती जा रही है। बिना व्यवस्थित योजना के होने वाले निर्माणों में कई बड़े वृक्ष काटकर धराशाई कर दिए जाते हैं, जबकि इतने वृक्ष लग नहीं पाते। ऐसे में विचारणीय हो गया है कि प्रकृति के प्रति क्या हम अपनी ज़िम्मेदारी निभा रहे हैं, या मात्र खानापूर्ति की जा रही है? मानव-जीवन ही नहीं बल्कि सृष्टि को बचाना है, तो पर्यावरण को भी बचाना पड़ेगा। इस विषय पर आइये जानें इस स्तम्भ की प्रभारी सुमिता मूंधड़ा से उनके तथा समाज के प्रबुद्धजनों के विचार।
कब तक हम प्रकृति के प्रति लापरवाह रहेंगे?
-सुमिता मूंध़ड़ा, मालेगांव
आधुनिक मशीनी युग में विशेषकर कोरोना काल में हम इंसानों के लिये अपनी श्वासों को बचाये रखने एवं स्वस्थ जीवनयापन करने के लिए सर्वाधिक आवश्यक कार्य है, पर्यावरण का संरक्षण। आज आयुर्वेद हमारे जीवन की संजीवनी बन गया है क्योंकि आयुर्वेदिक औषधियों को ग्रहण करके हम अपनी शारीरिक रोग-प्रतिरोधक क्षमता का स्तर बढ़ा य्हे हैं और वर्तमान परिस्थितियों में यही हमारे पास कोरोना वायरस के विरुद्ध एकमात्र हथियार है। यह औषधियां भी तो वृक्षों की ही देन हैं, जिन्हें हम रोपित करना तो दूर पनपने भी नहीं देना चाहते। आज हमें आयुर्वेदिक औषधियों की किल्लत महसूस हो रही है, क्योंकि जिनका हमने कभी पोषण ही नहीं किया उनका फल कैसे मिलेगा?
पिछले कुछ वर्षों से वृक्षारोपण के लिए जागरूकता चढ़ी जरूर है, पर अधिकांशतः पौधों को उचित स्थान पर रोपा नहीं जाता है जिससे उनके पोषण और देखरेख का अभाव रहता है और वो पल्लवित नहीं हो पाते। बस अपनी तसल्ली या लोक दिखावे के लिए हम पर्यावरण-वृक्षारोपण अभियान से जुड़ते हैं, नए-नए पेड़ लगाते हैं, तस्वीरें खिंचवाते हैं, सोशल मीडिया पर बढ़-चढ़कर तस्वीरों के साथ अपना प्रचार-प्रसार करते हैं, लोगों की वाहवाही बटोरते हैं और पर्यावरण संरक्षण की अपनी जिम्मेदारी को पूर्ण मान लेते हैं।
क्या सिर्फ पेड़ लगाने या बीज आरोपित करने तक ही हमारी जिम्मेदारी थी? आरोपित करने के बाद उसकी देखरेख व प्रकृति की जिम्मेदारी है? क्या हम अपने नवजात बच्चों को भी जन्म देकर भगवान भरोसे छोड़ देते हैं? हमें ऐसे अनेकानेक सवालों का समाधान कर पर्यावरण के लिए अपने दायित्वों को पूरी निष्ठा और ईमानदारी के साथ निभाने के लिए दृढ़ संकल्प लेना होगा और तभी हमारा प्राकृतिक ऋण भी उतरेगा।
पर्यावरण के बारे मे सोचना जरूरी:
–श्यामसुंदर धनराज लखोटिया, मालेगांव
प्रकृति के विरोध मे जायेंगे तो दुष्प्रभाव भुगतना होगा। आज करोना वायरस से पुरा विश्व भय की चपेट मे आया हुआ है। इसका मूल कारण पर्यावरण का दूषित होना है। भारत की बड़ी आबादी आज गरीबी रेखा के नीचे रहती है। ऐसे में अधांधुध विकास की होड़ मे पर्यावरण सुरक्षा ओर विकास के बीच संतुलन बैठाने की आवश्यकता है।
हमें पर्यावरण को लेकर सर्वोच्च प्राथमिकता की नीति बनानी पडेगी तथा आम लोगो को साथ लेकर मानसिकता मे बदलाव लाना होगा। एक समय भारत मे बहुत धने वृक्षों का जंगल था, जो इस समय पुरा साफ कर दिया गया। यह जिम्मेदारी सरकार व हम लोगो की बनती हे नये-नये वृक्ष लगावें।
अनावश्यक उपभोग पर हो नियंत्रण:
-प्रतीक भारत पलोड़, बैंगलोर
प्रकृति वो माँ है जो हमारा पालन-पोषण करती है। किन्तु मनुष्य की लालसा है वैभव, सुविधाएँ, साम्राज्य, तकनीक, उद्योग, धन और प्रसिद्धि। इसीलिए तो हम जाने-अनजाने अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार अधिक से अधिक उन्नत कपड़ों, फर्नीचर, विद्युत् उपकरणों, ईंधन पीते वाहनों और विविध सुविधाओं से घिरे रहते हैं और इन सभी को उपलब्ध कराने वाले उद्योगों को उत्तरोत्तर बढ़ावा देते है। इस प्रकार का जीवन जीते हुए विभिन्न अवसरों पर पर्यावरण के संरक्षण की बातें करना परिहास जैसा लगता है।
उपभोग के बिना तो जीवन सम्भव नहीं और ना ही हम अपनी जीवन शैली बदल पाएंगे; किन्तु एकल प्रयोग प्लास्टिक, सजावटी फर्नीचर, ईंधन की अनावश्यक खपत, नित नए मोबाइल और कपड़े खरीदने से तो स्वयं को रोक ही सकते हैं। हम अपनी सुविधाओं, लालसाओं और इच्छाओं पर नियन्त्रण रखते हुए, निरन्तर प्रकृति का ध्यान करते हुए, यदि थोड़ा भी योगदान कर पाएँ तो ये हमारी आने वाली पीढ़ियों के लिए एक उपहार होगा।
सभी समझें अपनी जिम्मेदारी:
-भारती काल्या, कोटा
आज प्रवृत्ति के संरक्षण के लिए सभी देशों की सरकार और विभिन्न संगठन कार्य कर रहे हैं। अतः हमारा भी कर्तव्य है कि हम अपनी जिम्मेदारी से प्रकृति को सुंदर व सरंक्षित रखें, स्वच्छ और स्वस्थ रखें। लेकिन मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रकृति का दोहन भी करता है। फलस्वरूप प्राकृतिक संसाधनों पानी, हवा, पर्यावरण आदि में शुद्धता का अभाव हो रहा है।
आज आवश्यकता इन संसाधनों को बचाने की है। शुद्ध हवा के लिए पौधे लगाएं और उनकी उचित देखभाल करें और जो पेड़ लगे उन्हें संरक्षित करने में मदद करें। बच्चों को भी पेड़-पौधों का महत्व समझाएं। जल ही जीवन है, इसे व्यर्थ ना बहाएं। रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून। अतः रसोई में काम लिया पानी जैसे दाल, चावल के धोने का पानी सब्जियां या वृक्ष सींचने के काम में लें। कम दूरी के लिए गाड़ी का उपयोग ना करके पैदल चलें। पशुपालन करते हैं तो गाय के गोबर और गौमूत्र से भी प्रकृति की आबोहवा शुद्ध होती है।
विकास के लिए प्रकृति की उपेक्षा:
-अनुश्री मोहता, खामगांव
समान रूप से भरण पोषण करती है, फिर उसे सहेजने का दायित्व मोटी लोग ही क्यूं निभाते हैं? प्रकृति को जिन अनगिनत तरीकों व तीव्रता से क्षति पहुंचाई जाती है, उसके सामने चंद लोगों के प्रयास बौने साबित होते हैं। लॉकडाउन के बहाने प्रकृति ने संजीवनी जरूर पाई है। लेकिन अब अनलॉक के पक्षी भविष्य में यह स्थिति किस प्रकार बनी रहे यह चुनौती व जिम्मेदारी देश के हर व्यक्ति को समझनी होगी। मनुष्य की प्राथमिक जरूरतों को पूरा करने के लिए एक हद तक विकास की जरूरत समझी जा सकती है। पर हमें तो विकास का चस्का लग चुका है।
अत्यधिक भौतिक सुख-सुविधाओं की कीमत हम प्राकृतिक असंतुलन के रूप में चुका रहे हैं। एक बड़ा तबका अनभिज्ञ व लापरवाह है, जो प्रकृति के प्रति अपनी जिम्मेदारी को उपेक्षा की दृष्टि से देख रहा है। विकास के नाम पर तीव्रता से प्रकृति के हरे-भरे क्षेत्रों को समाप्त किया जा रहा है। जितने वृक्ष काटे जाने हैं, कम से कम उतने पहले लगाए जाएं, उसके उपरांत ही कटाई की अनुमति मिले।