भगवान विष्णु का प्रिय माह पुरुषोत्तम मास
भारतीय कालगणना के पंचांग के अनुसार प्रति 3 वर्ष में एक अधिक मास होता है। हिंदू धर्मशास्त्रों में इसे अत्यंत पवित्र मास माना जाता है। यही कारण है कि इसे भगवान विष्णु के प्रिय पुरुषोत्तम मास के रूप में भी जानते हैं। इस बार यह अधिक मास आगामी 18 सितंबर से अश्विन मास के आधिक्य के साथ प्रारंभ हो रहा है जो 16 अक्टूबर को समाप्त होगा।
आश्विन अधिक मास 18 सितम्बर से 16 अक्टूबर, 2020 तक रहेगा। इस दौरान मांगलिक एवं मनोकामना सिद्धि के अलावा अन्य सभी धार्मिक-आध्यात्मिक कार्य होंगे। अधिक मास को पुरुषोत्तम मास, लौंद मास, मलमास आदि नामों से भी जाना जाता है।
सौर वर्ष और चान्द्र वर्ष में सामंजस्य स्थापित करने के लिए प्रत्येक तीसरे वर्ष में एक चान्द्र मास की वृद्धि कर दी जाती है। अतः वह वर्ष 13 मास का हो जाता है जिसे अधिक मास कहा जाता है।
अधिक मास लगभग 32 माह 16 दिन तथा 4 घटी के अंतर से आता है। सूर्य 30 दिन में राशि परिवर्तन कर अगली राशि में प्रवेश करता है, इस एक माह को सौर मास कहा जाता है।
एक चान्द्र मास में दो पक्ष होते हैं, पहला शुक्ल पक्ष प्रतिपदा से पूर्णिमा तक, पुनः कृष्ण पक्ष प्रतिपदा से अमावस्या तक। जिस चान्द्र मास में सूर्य संक्रांति (सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश) का अभाव हो, उस चांद्र मास को अधिक मास कहते हैं।
इस दौरान 16 सितंबर को सूर्य कन्या राशि में और 17 अक्टूबर को प्रातः 7.04 बजे तुला राशि में प्रवेश करेगा। इस प्रकार अधिक मास (18 सितंबर से 16 अक्टूबर) के मध्य सूर्य संक्रांति का अभाव रहेगा। स्वामी रहित होने से यह मास मंगल कार्यों के लिए त्याज्य है।
क्यों आता है अधिक मास:
ऋग्वेद में वर्णन है कि अधिक मास एक खगोलीय गणना है। जिसके अनुसार सूर्य लगभग 30.44 दिन में एक राशि पूर्ण करता है, यह सूर्य का एक सौर मास है। 12 सौर मास में लगभग 365.25 दिन होंगे जो एक सौर वर्ष होता है।
प्रत्येक चान्द्र मास 29.53 दिन का होता है। अतः चान्द्र वर्ष में करीब 354.36 दिन होते है। इस तरह दोनों के कलेण्डर वर्ष में लगभग 10.87 दिन का अन्तर आ जाता है।
तीन वर्ष में यह अन्तर लगभग एक माह का हो जाता है। इस अन्तर को दूर करने के लिये हर तीसरे वर्ष में एक अधिक मास का नियम बताया गया है।
क्यों कहलाता है पुरुषोत्तम मास:
शास्त्रों के अनुसार इस मास को विशेष महत्वपूर्ण माना गया है। वर्ष के 12 महीनों में सूर्य की 12 संक्रांतियां होती हैं। प्रत्येक मास के स्वामी निर्धारित हैं, अधिक मास का कोई स्वामी नहीं होने के कारण भगवान श्रीकृष्ण ने इसका स्वामित्व स्वयं स्वीकार कर इसे ‘पुरुषोत्तम’ नाम दिया है।
श्रीकृष्ण ने कहा है कि
‘‘अहमेते यथा लोके प्रथितः पुरुषोत्तमः। तथायमपि लोकेषु प्रथितः पुुरुषोत्तमः।।’’
अर्थात उन गुणों के कारण जिस प्रकार मैं वेदों, लोकों और शास्त्रों में ‘पुरुषोत्तम’ नाम से विख्यात हूं, उसी प्रकार यह मलमास भी ‘पुरुषोत्तम’ मास के नाम से प्रसिद्ध होगा। भगवान पुरुषोत्तम इसको अपना नाम देकर इसके स्वामी बन गए हैं। अतः इसकी महिमा और बढ़ गई है।
मास में निष्काम भाव से ही देव कार्य करना चाहिए। इस मास का आध्यात्मिक महत्व अधिक होता है। फल प्राप्ति की कामना से किए जाने वाले प्रायः सभी कार्य इस मास में वर्जित हैं। अधिक मास में दान पुण्य, जप तथा व्रत करने का फल अक्षय होता है।
श्रीमद्भागवत सप्ताह, श्रीरामचरित मानस पाठ, देवी जागरण, गीताजी का पाठ, रुद्रीपाठ तथा श्री हरिनाम संकीर्तन का आयोजन, श्रवण करना चाहिए। पार्थिव शिव पूजा विशेष फलदायी होती है।
अधिक मास में प्रतिदिन ब्रह्ममुहूर्त में उठकर नित्यक्रिया के पश्चात किसी पुण्यवती नदी या सरोवर में स्नान करना चाहिए। तत्पश्चात विष्णु भगवान का यथाविधि षोड़शोपचार पूजन करना चाहिए। सात्विक भोजन करें। मन, वचन और कर्म से पवित्र रहना चाहिए।
अधिक मास में क्या करें-क्या ना करें:
इस मास में केवल ईश्वर के निमित्त व्रत, दान, हवन, पूजा, ध्यान आदि करने का विधान है। ऐसा करने से पापों से मुक्ति मिलती है और पुण्य प्राप्त होता है। भागवत पुराण के अनुसार पुरुषोत्तम मास में किए गये सभी शुभ कार्यों का फल प्राप्त होता है।
इस माह में भागवत कथा श्रवण, राधा कृष्ण की पूजा तथा तीर्थ स्थलों पर स्नान एवं दान का महत्व है। ‘ओम नमो भगवते वासुदेवाय’ मंत्र अथवा गुरु द्वारा प्रदत्त मंत्र का नियमित रूप से जप करना चाहिए।
इस मास में श्रीविष्णु सहस्त्रनाम, पुुरुषसूक्त, श्रीसूक्त, हरिवंश पुराण एवं एकादशी महात्म्य कथाओं के श्रवण से सभी मनोरथ पूरे होते हैं। शालिग्राम भगवान की मूर्ति स्थापित करके उसकी स्वयं पूजा करनी चाहिए।
श्रीमद्भगवद्गीता के 15वें (पुरुषोत्तम नामक) अध्याय का अर्थ सहित नित्य पाठ करना चाहिए। इस मास में कामना पूर्ति के लिए किए जाने वाले सभी व्रत, अनुष्ठान आदि करना वर्जित है। अतः कूप निर्माण, बावड़ी, बाग, वन का प्रारंभ तथा देव प्रतिष्ठा व किसी भी प्रयोजन के निमित्त व्रत, उत्सव, उद्यापन, विवाह, वधू प्रवेश आदि कार्य करना वर्जित हैं।
भूमि-सोना-तुलादान, भूमि पूजन, कुआं पूजन, संन्यास ग्रहण, किसी भी शुभ कार्य को करना, व्यापार का श्रीगणेश, निंदित अन्न का भोजन, नशीली वस्तुओं का सेवन आदि अधिक मास में ना करें।
राशि अनुसार व्रत-दान-जप:
मेष तथा वृश्चिक राशिः
इन दोनों का स्वामी मंगल है। अतः अधिक मास में निष्काम भाव से मंगल की वस्तुओं मूंगा, गेहूं, मसूर, लाल वस्त्र, कनेर पुष्प, गुड़, तांबा, लाल चंदन, केसर आदि का दान करें। मंगलवार के व्रत करें। भोजन में प्रथम 7 ग्रास (गेहूं, गुड़ तथा घी से बने हलवा या लड्डू) का भोग लगाकर ग्रहण करें, इसके पश्चात इच्छानुसार पदार्थ सेवन करें। मंगल मंत्र ‘ओ हृं श्रीं भौमाय नमः’ का जप करें।
मिथुन तथा कन्या राशिः
इनका स्वामी बुध होने से इन्हें हरे मूंग, हरा वस्त्र, हरा फल, पन्ना, केसर, कस्तूरी, कपूर, शंख, घी, मिश्री, धार्मिक तथा शास्त्र की पुस्तकों का दान करना चाहिए। बुधवार का व्रत करें।
भोजन के पूर्व 5-7 तुलसी के पत्ते गंगाजल के साथ ग्रहण करने के पश्चात व्रत खोलें। जपनीय मंत्र ‘ओम ऐं श्रीं श्रीं बुधाय नमः।’
कर्क राशिः
स्वामी चंंद्रमा के लिए बांस की टोकरी, साबुत चावल, कपूर, मोती, श्वेत वस्त्र, श्वेत पुष्प, घी से भरा पात्र, चांदी, मिश्री, शर्करा, दूध, दही, खीर, स्फटिक माला इत्यादि का दान करें। सोमवार का व्रत करें।
भोजन में प्रथम 7 ग्रास (दही, चावल या खीर) का भोग लगाकर ग्रहण करें, फिर अन्य भोजन सामग्री ग्रहण करें। जपनीय मंत्र ‘ओम ऐं क्लीं सोमाय नमः।’
सिंह राशिः
स्वामी सूर्य के लिए माणिक्य, सवत्सागाय, लाल वस्त्र, लाल पुष्प, लाल चंदन, गुड़, केसर तथा तांबा दान करें। रविवार का व्रत करें। सूर्यास्त से पूर्व भोजन करें तथा नमक का प्रयोग न करें। सूर्य मंत्र ‘ओम हृीं ह्नौं सूर्याय नमः’ का जाप करें।
वृष तथा तुला राशिः
इनमें जन्मे व्यक्तियों का राशि स्वामी शुक्र होने से इन्हें सफेद छींटदार वस्त्र, सजावट-शृंगार वस्तु, सवत्सागाय, सफेद स्फटिक, साबुत चावल, सुगंधित वस्तु, कपूर, श्वेत चंदन, श्वेत पुष्प, घी, शक्कर, मिश्री, दही, खीर, आदि का दान करना चाहिए।
गौशाला में दान दें, गाय की सेवा करें। तुलसी की पूजा करें। स्त्रियों का आदर सम्मान करें। शुक्रवार का व्रत करें। व्रत के दिन सफेद रंग की गाय तथा कन्या के दर्शन कर सम्मानित करें।
छः कन्याओं को भोजन कराएं जिसमें खीर होनी चाहिए। मंत्र जाप ‘ओम हृीं श्रीं शुक्राय नमः।’
मकर तथा कुंभ राशिः
इनका स्वामी शनि है। इन्हें शनि की प्रिय वस्तुओं तिल, तेल, कुलथी, उड़द, काला वस्त्र, काला पुष्प, जूता, कस्तूरी, नीलम, कटेला, स्टील या लौह पात्र, सप्त धान्य (जौ, गेहूं, चावल, तिल, कागनी, उड़द, मूंग), आदि का दान किसी वृद्ध ब्राह्मण, दीन-हीन, गरीब व्यक्ति, अपंग, बेसहारा आदि को सामर्थ्य के अनुसार दक्षिणा सहित करना चाहिए।
शनिवार के व्रत के दिन काले कुत्ते, भिखारी या अपाहिज को उड़द दाल, केला तथा तेल से बना भोजन अवश्य कराएं। ‘ओम ऐं हृीं श्रीं शनैश्चराय नमः।’ मंत्र के जाप करें।
धनु तथा मीन राशिः
राशि स्वामी गुरु की वस्तुओं घी, शहद, शर्करा, हल्दी, पीतवस्त्र, पीत धान्य, शास्त्र पुस्तक, पुखराज, लवण आदि का निष्काम भाव से दान करें।
कन्याओं को भोजन कराएं, वृद्धजन, विद्वान एवं गुरुओं की सेवा करें। गुरुवार के व्रत के दिन केले के वृक्ष का दर्शन कर पूजा करें, हल्दी मिश्रित जल से सींचे, घी का दीपक जलाएं।
केलों का दान करें स्वयं केले नहीं खाएं। जप मंत्र ‘ओम ऐं क्लीं बृहस्पतये नमः।’