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“श्रद्धा” का पर्व है- पितृ श्राद्ध

वर्ष में एक बार आने वाला पर्व ‘‘ सोलह श्राद्ध ’’ वास्तव में पितरों के प्रति ‘‘श्रद्धा’’ की अभिव्यक्ति का पर्व है। इससे न सिर्फ उनकी आत्मिक शांति होती है, बल्कि उनके आशीर्वाद से श्राद्धकर्ता की मनोकामना भी पूर्ण होती है।

सनातन संस्कृति के धर्मप्राण ग्रंथ वेद हैं। वेदों में यद्यपि कर्मकाण्ड, उपासना काण्ड तथा ज्ञानकाण्ड तीनों का वर्णन मिलता है। तथापि इनमें मुख्य स्थान कर्मकाण्ड को ही प्राप्त है। कर्मकाण्ड के अंतर्गत ही वेदोंक्त विविध यज्ञों की अनुष्ठान पद्धतियाँ हैं, जिनमें ‘पितृयज्ञ’ का भी महत्त्वपूर्ण वर्णन किया गया है।

इस पितृयज्ञ का अन्य नाम है- श्राद्ध। अर्थात् पितृयज्ञ ‘श्राद्ध’ शब्द का वाच्यार्थ हैं पिता-माता आदि पारिवारिक मनुष्यों की मृत्यु के बाद उनकी तृप्ति के लिये श्रद्धापूर्वक किये जानिे वाले पिंडोंदकादि समस्त कार्य पितृयज्ञ अथवा श्राद्ध शब्द से व्यवहृत होते हैं।

श्राद्ध की परिभाषा है-‘‘श्रद्धया कृतं कर्मंश्राद्धम्” अर्थात् पितरों को उद्देश्य करके श्रद्धापूर्वक की जाने वाली तर्पण, पिण्डदानादि क्रिया श्राद्ध कहलाती है। यूँ तो शास्त्रों में छियानवें प्रकार के श्राद्धों का उल्लेख प्राप्त होता है- ‘‘षण्षवति श्राद्धानि’’


मनोकामना सिद्धि का भी पर्व

प्रत्येक व्यक्ति को श्रद्धापूर्वक शास्त्रोक्त समस्त श्राद्धों को यथासमय करते रहना चाहिये। जो शास्त्रोक्त समस्त श्राद्धों को न कर सकें, उन्हें पितृपक्ष में अपने मृत पितृगण की मरण तिथि के दिन श्राद्ध करना चाहिये। पितृपक्ष के साथ पितरों का विशेष सम्बन्ध है। पितृपक्ष में श्राद्ध करने से पुत्र, आयु, आरोग्य, ऐश्वर्य और अभिलषित वस्तुओं की प्राप्ति होती है।

पुत्रानायुस्तथारोग्यमैश्वर्यमतुलं तथा।
प्राप्नोति पञ्चमेकृत्वा श्राद्धं कामांश्च पुष्कलान्।

वहीं पितृपक्ष में ‘पितृगण श्राद्ध’ न पाने पर निराश होकर दीर्घ श्वास त्याग करते हुए गृहस्थ को दारुण श्राप देकर पितृलोक में वापस चले जाते हैं-

वृश्चिके समनुप्राप्ते पितरो दैवतैः सह।
निःश्वस्य प्रतिगछन्ति शापं दत्वा सुदारुणम् ।।

अतः निर्दिष्ट वचनों से स्पष्ट है कि ‘श्राद्ध’ का फल केवल पितरों की तृप्ति ही नहीं, अपितु उससे श्राद्धकर्ता को भी विशिष्ट फल की प्राप्ति होती है। अतः द्विजातिमा को अपने परमाराध्य पितरों के श्राद्धकर्म द्वारा आध्यात्मिक आधिदैविक एवं आधिभौतिक उन्नति प्राप्त करनी चाहिये।


कब करें किनका श्राद्ध

पद्मपुराण पुष्कर खंड में लिखा है कि एकादशी व्रत के दिन श्राद्ध उपस्थित होने पर उस दिन को छोड़कर अगले दिन श्राद्ध करना चाहिए। माता-पिता अथवा पूर्वज के मृत्यु-दिवस पर एकादशी होने पर द्वादशी में श्राद्ध करना चाहिए। स्कंद पुराण में कहा गया है कि एकादशी व्रत नित्य है और श्राद्ध एक नैमित्तिक कार्य है।

अतः जो नित्य है, उस एकादशी तिथि के दिन उपवासी रहकर द्वादशी को श्राद्ध का अनुष्ठान करना चाहिए। ब्रह्मवैवर्त पुराण में लिखा है – हे राजन! एकादशी के दिन श्राद्ध करने से दाता, भोक्ता एवं पितर प्रेत योनी को या तीनों नरक को प्राप्त होते हैं।

सुहागिन स्त्री का श्राद्ध पति के रहने तक नवमी को किये जाने का प्रावधान है, चाहे उसकी मृत्यु किसी भी तिथि को हुई हो। पति के स्वर्गवास पश्चात श्राद्ध मृत्यु तिथि को ही किया जाना चाहिए। हांती मृत्यु तिथि को ही निकाली जायेगी।

अप्राकृतिक मृत्यु वाले प्राणी (दुर्घटना, आत्महत्या, युद्ध) का श्राद्ध चौदस को ही होगा चाहे उसकी मृत्यु किसी भी तिथि को हुई है। हांती मृत्यु तिथि को ही निकाली जाएगी।


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Sri Maheshwari Times

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