विशेष अवसरों पर सोशल मीडिया द्वारा शुभकामनाएं प्रेषित करना उचित अथवा अनुचित?
आज से एक दशक पूर्व गणगौर, तीज, होली, दीपावली और दशहरे आदि बड़े त्योहारों पर हम अपने नाते रिश्तेदारों और परिचितों का आशीर्वाद लेने और राम-राम करने उनके घर आया जाया करते थे। पर जब से हम सोशल मीडिया में सक्रिय हुए हैं, परिवार और समाज में निष्क्रिय हो गए हैं। व्यक्तिगत तौर पर मिलना जुलना तो नहीं के बराबर हो गया है। हम मशीनों को अपना मान बैठे हैं और इंसानों को पराया। वर्षभर में तीन या चार त्योहार ही तो विशेष होते हैं, जब हम एक दूसरे के घर जाकर शुभकामनाएं और आशीर्वाद का प्रेमपूर्वक लेन देन करते हैं। एक दूसरे के परिवार के साथ समय बिताते हैं और आपसी संबंध मजबूत बनाते हैं। पर आजकल ऐसा नहीं होता है हम मात्र सोशल मीडिया के द्वारा शुभकामनाएं संदेश भेजकर इस पारंपरिक रिवाज से इतिश्री कर लेते हैं।
ऐसे में प्रश्न उठता है कि हमारा यह सोशल मीडिया व्यवहार उचित है अथवा अनुचित?आइये जानें इस स्तम्भ की प्रभारी सुमिता मूंदड़ा से उनके तथा समाज के प्रबुद्धजनों के विचार।
त्यौहारों पर मेल मिलाप आवश्यक
सुमिता मूंधड़ा, मालेगांव
त्यौहारों पर एक दूसरे के घर जाकर शुभकामनाओं का आदान-प्रदान हमारी परंपरा रही है, पर आजकल दिखावटी व्यस्तता के साथ-साथ स्वयं को टेक्नोलॉजी में अप-टू-डेट साबित करने के चक्कर में हमने इस परंपरा को इतिहास बना दिया है। व्यस्तता की बात करें तो त्योहारों पर मिलने वाली छुट्टियों को हम आजकल पर्यटन में इस्तेमाल करने लगे हैं अथवा मोबाईल में ही अपना समय गंवा देते हैं, पर जब किसी से मिलने जुलने की बात करो तो व्यस्तता का बहाना बनाते हैं। आभासी दुनिया के लिए समय जितनी आसानी से निकलता है वास्तविक दुनिया के लिए समय निकालना उतना ही मुश्किल हो जाता है।
जैसे जैसे परिवार छोटे हो रहे हैं तो वैसे वैसे रिश्ते कम हो रहे हैं। आने वाले दशक में तो चाचा, मामा, बुआ, मासी भी इक्के दुक्के घरों में ही दिखाई देंगे। इतना ही नहीं रिश्तेदारों से अधिक दोस्तों को अहमियत देने का नया रिवाज भी चल रहा है। रिश्तेदारों के लिए समयाभाव देखा गया है, दोस्तों के लिए नहीं। आखिर खून के रिश्तों से इतना अलगाव क्यों हो रहा है, आज की पीढ़ी को? कोरोना वायरस हमें काफी अच्छी सीख देकर गया है कि संकट के समय परिवार का साथ कितना आवश्यक है? ‘ढाक के वही तीन पात’ कोरोना का रोना जब तक चल रहा था हम संयुक्त परिवार और रिश्तों की अहमियत को समझ रहे थे, पर उसके जाते ही हम फिर से अपने पुराने लिबास में आ गए जो कि शत प्रतिशत गलत है। तीज त्यौहार पर हमें एक दूसरे से मिलना चाहिए, संबंधों को प्रगाढ़ बनाने के लिए यह सबसे बड़ा कदम है। मुश्किल वक्त में यही आपसी संबंध तो काम आते हैं; मशीनें नहीं। मशीनें हमारे जीवन को आसान बनाने के लिए बनाई गई हैं, उनमें भावनाएं नहीं हैं, मशीनें कभी भी हमारे सुख-दुख की साथी नहीं बन सकती।
भले ही हम अपने कामकाज और दिनचर्या में व्यस्त रहें पर तीज त्योहारों के साथ-साथ रिश्तों को भी जीवंत रखने के लिए हमें पारंपरिक तरीके से ही त्योहारों पर समय निकालकर अपने सगे-संबंधियों रिश्तेदारों से व्यक्तिगत रूप से मिलना जुलना चाहिए। अपने बच्चों को भी इस परंपरा का निर्वहन करने की सीख देनी चाहिए क्योंकि एकल और छोटे परिवार होने के कारण भविष्य में यही बचे-खुचे थोड़े बहुत रिश्ते ही हमारी खुशी में शामिल होंगे और हमारे मुश्किल समय में भी साथ निभाएंगे।
मिलजुल कर दे बधाइयां और शुभकामनाएं
पूनम नंदकिशोर जाजू, महाराष्ट्र
आज से कुछ साल पहले की दुनिया ही कुछ अलग थी, हर त्यौहार का मजा भी कुछ अलग था। जब भी कोई त्यौहार होता था। सभी अपने सगे संबंधियों के आने का इंतजार करते थे और हम भी अपने सभी सगे संबंधियों के यहाँ जाने के लिए आतुर रहते थे। विशेष अवसर और त्योहार पर सोशल मीडिया द्वारा शुभकामनाएं देना यह मुझे तो अनुचित लगता है, क्योंकि हम जब सोशल मीडिया द्वारा किसी को शुभकामनाएं देते हैं, तो उसमें आशीर्वाद भी कॉपी पेस्ट होकर ही मिलता है। लेकिन जब हम प्रत्यक्ष रूप से किसी के यहां जाते हैं और उन्हें शुभकामनाएं देते हैं और उनसे जो आशीर्वाद लेते हैं वह आशीर्वाद और शुभकामनाएं और सबसे मिलने का मजा, अपनापन और अपने संबंधों को जोड़ कर रखने के लिए जो एक कड़ी बंधती है, उसमें प्रेम की परिभाषा ही अलग होती है।
प्रत्यक्ष रूप में जाकर सबसे मिलने व आशीर्वाद लेने से आज की पीढ़ी तो एक दूजे से जुड़ेगी ही लेकिन दूसरी पीढ़ी भी अपने परिवार को और परिवार के सदस्यों को जानेगी, पहचानेगी और अपने परिवार के सारे सदस्यों के साथ संपर्क में रहने की, परिवार को एकजुट रखने की जिम्मेदारी हमारी भी है। आज की पीढ़ी को यह सारी बातें समझनी होगी। हमारे दादाजी, हमारे पिताजी यह सब परिवार से जुड़े हैं। जब हम सब मिलते रहेंगे, रोज ना सही त्योहार बार को मिलेंगे, तो आज की पीढ़ी भी अपने परिवार की एक जूटता समझेगी और आज की सोशल मीडिया वाली पीढ़ी भी संस्कारवान बनेगी।
मेल-मिलाप रिश्तों की जड़
नेहा बिनानी, मुंबई
त्यौहार पर खुशियां चौगुनी हो जाती हैं, जब सब साथ मिलकर कोई त्यौहार मनाऐं। चाहे गांव हो या शहर होली -दीपावली आदि पर सभी रिश्तेदार, पड़ोसी एक दूसरे के घर राम-राम के लिए जाते हैं, फिर चाहे कोई मन मुटाव ही क्यों ना हो। इस दिन सब भूल कर सभी आनंद से समय व्यतीत करते हैं। एक दूसरे के यहां व्यंजन, मिठाई खाना और मिठाई आदान प्रदान, लगभग एक हफ्ते तक त्यौहार की रौनक रहा करती थी। किंतु कुछ वर्षों से सब फोन पर बात करके ही इति श्री समझ लेते हैं।
सबको अपनी ही डिजिटल दुनिया में रहना भाने लगा है। बड़े शहरों में दूरियों के नाम पर मिलना जुलना और भी कम हो गया है। सभी समय की व्यस्तता का बहाना लगाकर बचना चाहते है। लेकिन क्या सचमुच हम इतने व्यस्त हैं, या हम इन सब से नजरें चुराना चाहते हैं? आज रिश्तेदारी में भी कोई दूसरी पीढ़ी के बच्चों को नहीं जान पाता क्योंकि मिलना जुलना ही नहीं होता। फिर ऐसे में कैसे कोई किसी के बच्चे के लिए विवाह सम्बन्ध बताएगा? ये सब प्रथाएं किसी न किसी उद्देश्य से ही बनी थी जिसे अब हम मॉडर्न होने के नाम से नकारते जा रहे है। कितने ही लोगों को तो हम फोन भी नहीं करते, बस सोशल मीडिया से ही बधाई दे देते है। फिर जब विपत्ति में हमें किसी अपने की जरूरत होती है तो वो भी कैसे आपके काम आ पाएगा। तो आइए अपनी जड़ों की ओर लौटे, मेल मिलाप बढ़ाए, खुशियां पाए।
रामा-श्यामा एक सुंदर विधान
शशि लाहोटी, कोलकाता
एक समय था जब दिवाली-होली या तीज त्यौहार पर लोग एक दूसरे से मिलकर शुभकामना संदेश देते थे। बड़ों को प्रणाम कर उनका आशीर्वाद लेते थे। अब तकनीक की दुनिया ने जहॉं पूरे विश्व को एक मुट्ठी में लाकर बंद कर दिया है, वहीं पर इसने रिश्तों में दूरियाँ भी बढ़ाई है।
इन दिनों त्योहारों की शुभकामना संदेश में मैसेज द्वारा या बहुत जरूरी हो तो फोन पर प्रणाम करके इतिश्री कर लेते हैं। अगर एक ही शहर में नहीं रहते हैं तब तो सोशल मीडिया के माध्यम से बात होना, वीडियो कॉल से एक दूसरे का चेहरा देखना रिश्तो में प्रगाढ़ता लाता है। लेकिन परिवार यदि एक ही शहर में हो तो रामा-श्यामा जैसे सुंदर विधान को समाप्त करना सही नहीं है। मिलने से नई पीढ़ी के बच्चे भी परिवार और उनके मूल्य को समझेंगे। कम से कम जो दो-तीन बड़े त्यौहार हैं, उसमें तो मिलकर प्रणाम और अभिवादन करना चाहिए।
जब पाँव छूकर करते प्रणाम, और चखते व्यंजनों का स्वाद। तब चेहरा खिल खिल जाता है, और मन में भर जाता आह्लाद।
विशेष परिस्थिति में ही यह उचित
ममता लाखणी, नापासर
विशेष अवसर अपने आप में एक विशेष पहचान रखते हैं और इन अवसरों पर अपनों से व्यक्तिगत रूप से मिलकर आशीर्वाद और शुभकामनाओं का आदान-प्रदान करना अपने आप में एक विशेष महत्व रखता है। वर्तमान युग तकनीकीकरण का युग है परंतु हमें इस तकनीकीकरण की तकनीक में अपने संस्कारों को नहीं नकारना चाहिए।
जैसा कि हमारे संस्कारों के अनुसार अपनों से मिलकर आशीर्वाद और शुभकामनाएं लेना-देना अपने आप में विशेष महत्व रखता है, तो मेरे विचार में विशेष अवसरों पर तो सोशल मीडिया द्वारा शुभकामनाएं प्रेषित करना उचित प्रतीत नहीं होता। परंतु यदि दूरियां अधिक हैं या मिलना संभव नहीं है तो अपवाद स्वरूप ही इस माध्यम को स्वीकारा जा सकता है। अन्यथा अपनों से मिलने पर तो लगाव बढ़ता ही है ना कि इसका कोई विपरीत प्रभाव होता है।