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आँखों का भी दुश्मन है मधुमेह

वैसे देखा जाए तो मधुमेह एक ऐसी बीमारी है, जिससे पूरा शरीर ही प्रभावित होता है, लेकिन इसका आंखों पर विशेष प्रभाव होता है। इसके कारण उत्पन्न डाइबिटिक रेटिनोपैथी आंखों की रौशनी तक छीन लेती है। आइये जानें क्या है यह?

जब मधुमेह (डाइबिटीज) का प्रभाव आंख के पर्दे पर पड़ता है, तो आंख के पर्दे पर बनी रक्तवाहिनियों से रक्त या तरल पदार्थ निकलने लगता है, जो पर्दे को नुकसान पहुंचाता है। इसे मधुमेह जनित आंख के पर्दे का रोग (डाइबिटिक रेटिनोपैथी) कहा जाता है।

मधुमेह जनित रेटिनोपैथी छोटी रक्त वाहिकाओं को नुकसान पहुंचने से होती है। ये रक्त वाहिकाएं ही रेटिना को पोषण पहुंचाती हैं। क्षतिग्रस्त होने पर इनमें से रक्त व अन्य तरल पदार्थो का रिसाव होने लगता है, जिससे रेटिना के ऊतकों में सूजन आ जाती है और नजर धुंधलाने लगती है। यह स्थिति आमतौर पर दोनों आंखों को प्रभावित करती है।

इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) के मुताबिक, हालांकि मधुमेह जनित रेटिनोपैथी हमेशा से ही मधुमेह से जुड़ी एक बड़ी परेशानी रही है, लेकिन हाल के वर्षो में इसके मामलों में वृद्धि देखने में आ रही है।

यदि समय पर उचित कदम नहीं उठाए गए, तो स्थिति और अधिक खराब हो सकती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार भी अंधेपन का एक प्रमुख कारण है ‘डायबिटिक रेटिनोपैथी’। हालांकि, यह एक ऐसी स्थिति है, जिसे ठीक किया जा सकता है और होने से रोका भी जा सकता है।


क्या हैं इसके सामान्य लक्षण?

डाइबिटिक रेटिनोपैथी के लक्षणों में मैक्युला में सूजन के कारण दृष्टि का कमजोर होना प्रमुख रूप से शामिल है। अचानक मकड़ी के जाल या मच्छर जैसी आकृतियां दिखायी देने लगती हैं। यदि रक्तस्राव की मात्रा अधिक होती है, तो पूर्ण अंधापन हो सकता है।

कभी-कभी डाइबिटिक रेटिनोपैथी से ग्रस्त व्यक्ति की नजर स्पष्ट व पूर्ण होती है और उसे किसी भी लक्षण का आभास नहीं होता। इसलिए यह अति आवश्यक है कि प्रत्येक मधुमेह रोगी को अपना नेत्र परीक्षण अवश्य करवाना चाहिए जिसमें प्रमुख रूप से पुतली को फैलाकर पर्दे की जांच अति आवश्यक है,क्योंकि यदि रक्तस्राव होने से पहले ही इसका पता लग जाए, तो बचाव संभव है।


दो प्रकार की है यह बीमारी

डाइबिटिक रेटिनोपैथी के दो प्रकार होते हैं। पहला, बैकग्राउंड डाइबिटिक रेटिनोपैथी और दूसरा प्रोलिफरेटिव डाइबिटिक रेटिनोपैथी। बैकग्राउंड डाइबिटिक रेटिनोपैथी में आंख के पर्दे के अंदर रक्तवाहिनियां फूलने लगती हैं और उनसे रक्त या तरल पदार्थ का रिसाव होने लगता है। इससे पर्दे के टिश्यूज में सूजन आ जाती है और इसमें पीले रंग का पदार्थ (वसा) जमा होने लगता है, जिसे एक्स्यूडेट्स कहते हैं।

मधुमेह

यदि रिसाव होने पर तरल पदार्थ मैक्युला (पर्दे के केंद्र) पर होता है तो यह महीन या सूक्ष्म दृष्टि पर असर डालता है और गंभीर बीमारी का रूप धारण कर लेता है। प्रोलिफरेटिव डाइबिटिक रेटिनोपैथी में असामान्य नई रक्त वाहिनियां पर्दे पर ऑप्टिक नर्व (दृष्टि तंत्रिका) या विट्रीअ‍ॅस (पर्दे के आगे के रिक्त स्थान) में फैलने लगती हैं।

यह नसों का जाल जब फटता है, तब इनसे रक्त निकलने लगता है, जो विट्रीअ‍ॅस जेली में भर जाता है। इस कारण रोशनी आंख के पर्दे तक नहीं पहुंच पाती। कभी-कभी यह विट्रीअ‍ॅस जेली में खिंचाव पैदा कर देती है, जिससे पर्दा पीछे से उखड़ जाता है या अपने स्थान से हट जाता है।

इस स्थिति को ट्रैक्शनल रेटिनल डिटेचमेंट कहते हैं। यह स्थिति दृष्टि को तो हानि पहुंचाती ही है, पूर्ण अंधापन भी ला सकती है। कभी-कभी तो इसके साथ काला मोतिया (ग्लूकोमा) की समस्या भी पैदा हो जाती है।


ऐसे करें आंखों का बचाव

रक्त शर्करा के स्तर पर नियंत्रण करके इससे बचा जा सकता है। रक्त शर्करा के स्तर पर लगातार नजर रखनी चाहिए और पर्याप्त शारीरिक गतिविधियों में हिस्सा लेना चाहिए। इस विकार से संबंधित जटिलताओं में से एक मैकुलर एडेमा है, जो उच्च रक्तचाप वाले लोगों में होता है। इसलिए, इसके लेवल को कंट्रोल में रखें।

मधुमेह

अपनी आंखों की जांच नियमित रूप से कराएं। यद्यपि मधुमेह जनित रेटिनोपैथी और अन्य ऐसी समस्याओं के लिए स्क्रीनिंग काफी नहीं होती। फिर भी इससे समय पर उपचार में मदद मिल सकती है। इस रोग के लिए रेटिना का रंगीन फोटो और फ्लोरेसिन एंजियोग्राफी नामक जांचें करायी जाती हैं।

ऑप्टिकल कोहीरेंस टोमोग्राफी (ओसीटी) यह अत्याधुनिक जांच है जिसके द्वारा पर्दे की भीतरी पर्तों की जांच संभव है। ‘‘लेजर फोटो कोएगुलेशन’’ विधि में लेजर की किरणों द्वारा आंख की नसों से रक्तस्राव को रोकने और असामान्य नसों को विकसित होने से रोकने के लिए रक्तवाहिनियों को सील कर दिया जाता है। लेजर उपचार द्वारा रक्तस्राव को रोक दिया जाता है, जिससे दृष्टि में सुधार या स्थिरता आती है।

आजकल कुछ दवाओं का आंख में इंजेक्शन लगाया जाता है, जो डाइबिटिक रेटिनोपैथी में होने वाले परिवर्तनों को रोकने में सहायक हैं। इन इंजेक्शनों की जरूरत उन स्थितियों में होती है, जहां पर मैक्युला में सूजन ज्यादा होती है या फिर जहां लेजर उपचार के बाद भी रक्तस्राव होता है। यदि रक्त भरने से पारदर्शी विट्रीअ‍ॅस जेली धुंधली हो जाती है या ट्रैक्शनल रेटिनल डिटेचमेंट हो जाता है, तो लेजर उपचार काम नहीं करता।

ऐसी स्थिति में विट्रेक्टॅमी नामक ऑपरेशन की आवश्यकता होती है। निष्कर्ष रूप में देखें तो डाइबिटिक रेटिनोपैथी का जितनी जल्दी से जल्दी पता चल जाए, उतना अच्छा है।

डॉ मंगल राठी, परतवाड़ा


Via
Sri Maheshwari Times

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